मामचन्द शाह/देहरादून
उत्तराखंड के समूचे जनमानस के व्यापक जनआंदोलन और संघर्षों के बाद ही नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ। इस आंदोलन में लोगों ने ऐसी-ऐसी आहुतियां दी, जो अविस्मरणीय हैं। कुछ स्मृतियों में रह गए हैं तो कुछ आंदोलनकारी ऐसे भी हैं, जो आंदोलन में जख्मी होने के बाद करीब पिछले 23-24 वर्षों से बिस्तर पर बेजान होकर पड़े-पड़े उत्तराखंड की दशा केवल समाचार माध्यमों से सुन पा रहे हैं, क्योंकि वह चल-फिर नहीं सकते।
उत्तराखंड राज्य प्राप्ति के बाद से लेकर आज तक विभिन्न सरकारों ने राज्य स्थापना दिवस पर अपने-अपने तरीके से इस दिवस को मनाया और भविष्य का खाका खींचा। लेकिन उत्तराखंड आंदोलन के दौरान घायल हुए ऐसे दो आंदोलनकारी, जिन्होंने आजीवन कष्ट भोगने को ही अब अपनी नियति मान ली है, को आज भी उस सम्मान और मदद की प्रत्याशा है, जिससे उनका शरीर पुन: स्वस्थ तो नहीं हो सकता, लेकिन उनकी दिनचर्या आसानी से जरूर चल सकती है। राज्य स्थापना दिवस जैसे पावन मौके पर सरकार को ऐसे आंदोलनकारी की सुध लेनी भी उतनी ही आवश्यक हो जाती है, जितनी कि भविष्य की योजनाएं बनानी जरूरी हैं।
यहां बात की जा रही है देहरादून निवासी अमित ओबराय की। वह दो अक्टूबर 1995 को पुलिस लाठी चार्ज के दौरान रिस्पना पुल से नीचे गिर गए थे। काफी इलाज के बाद भी उनका आधा शरीर बेजान हो गया। उत्तराखंड सरकार उन्हें 10 हजार की पेंशन देती है, लेकिन आज की महंगाई में इतना खर्च तो उनके लिए रखा गया सहायक के लिए भी पर्याप्त नहीं है। इसी तरह के दूसरे दिव्यांग प्रकाश पांगती रुड़की में रहते हैं। स्थापना दिवस पर सरकार से इन दोनों दिव्यांगों का पूरा खर्च वहन करने की हर बार की तरह इस बार भी प्रत्याशा है।
क्या आप सोच सकते हैं कि एक व्यक्ति 23 वर्षों से एक ही बिस्तर पर कैसे लेट कर रह सकता है, लेकिन मजबूरी और बीमारी ऐसा करने को बाध्य कर देती है। देहरादून के प्रगति विहार निवासी अमित वह नाम है, जो इतने वर्षों से विवशता के चलते बिस्तर पर लेटने को मजबूर हैं। उसे कोई प्राकृतिक बीमारी नहीं, बल्कि दुर्घटनावश के कारण बीमारी की चपेट में आ गया, लेकिन अमित की आंखें इतने वर्षों तक एक ही जगह पर लेटे-लेटे भी उत्तराखंड का नाम सुनते ही चमक उठती हैं। आइए जानते हैं कैसे हुआ यह सब।
दो अक्टूबर 1995 का दिन था। उस दिन मुजफ्फरनगर कांड की बरसी मनाने के लिए देहरादून स्थित रिस्पना पुल पर सभी उत्तराखंड राज्य निर्माण के आंदोलनकारी एकत्र हुए थे। जिसमें देहरादून के अमित ओबराय भी शामिल थे। इसी बीच पुलिस ने आंदोलनकारियों पर लाठी चार्ज कर दिया और पुलिसिया मारपीट के दौरान भगदड़ मच गई। जिसमें अमित रिस्पना पुल से नीचे गिर गए और जिससे उन पर काफी चोटें आई और उनकी रीढ़ की हड्डी टूट गई। किसी तरह उन्हें हॉस्पिटल पहुंचाया गया और उपचार शुरू हुआ।
आज इस घटना को 23 साल बीत चुके हैं। तब से लेकर अमित बिस्तर पर ही जिंदगी से जंग लड़ रहे हैं। इस दुर्घटना में उनके कंधे से नीचे का पूरा शरीर बेजान और निष्क्रिय हो गया है। शरीर का एक हाथ उठाने के लिए भी उन्हें एक सहायक चाहिए। ऐसे में वह विकट परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं।
बावजूद इसके अमित में जीने की जबर्दस्त ललक है। बस चिंता है तो सिर्फ इस बात को लेकर कि बढ़ती महंगाई में उनका इलाज आखिर कितने दिनों तक चल पाएगा? इलाज और तीमारदारी पर बड़ी रकम हर महीने खर्च हो रही है।
इस संबंध में अमित बताते हैं कि भले ही इस घटना को 23 साल बीत गए हों और अब वह 41 साल के हो चुके हों, लेकिन उन्हें आज भी दो अक्तूबर 1995 की घटना का एक-एक क्षण बड़े अच्छे से याद है। कहते हैं कि मैं तब 11वीं का छात्र था। उत्तराखंड आंदोलन अपने चरम पर था। आंदोलनकारी बड़ी संख्या में मुजफ्फरनगर कांड की बरसी मनाने एकत्र हुए थे। सब जगह बंद था। बड़ी संख्या में पुलिस बल भी वहां तैनात था। खूब नारेबाजी हो रही थी। तभी पुलिस के जवान पुल के दोनों ओर से लाठियां भांजते हुए आंदोलनकारियों पर टूट पड़े। पुल पर भगदड़ मच गई। इसी दौरान पुल के पास खड़ा मैं अचानक नीचे गिर गया। जहां से मुझे इलाज के लिए कोरोनेशन अस्पताल ले जाया गया। वहां पीजीआई चंडीगढ़ रेफर किया गया। वहां एक महीने इलाज के बाद मैं घर लौट गया। तब से न जाने कितने उतार-चढ़ाव देखे हैं।
आंदोलन के दौरान दो लोग पूर्ण विकलांग हुए, उनमें से एक हैं अमित
उत्तराखंड राज्य गठन के बाद पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी से लेकर भुवनचंद्र खंडूड़ी, रमेश पोखरियाल निशंक, विधायक हरबंस कपूर और न जाने कितने नेता उनके घर आए। जब त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री नहीं थे, कई बार मेरे घर आए, लेकिन आज कोई नहीं आता।
अमित बताते हैं कि मेरे शरीर का निचला हिस्सा बेजान-सा है। आंदोलन के दौरान दो लोग पूर्ण विकलांग हुए, उनमें से एक वह हैं। उनका कहना है कि जब सबकी पेंशन बढ़ी तो हम दो लोगों को छोड़ दिया गया। पेंशन बढ़ाने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा।
फेसबुक पर काटते हैं समय
अमित फेसबुक के जरिए देश-दुनिया से जुड़े हैं। उन्होंने दुनियाभर के उनकी हालत वाले 150 लोग ढूंढ निकाले हैं। ये सभी सोशल मीडिया पर बातें करके एक-दूसरे का हौंसला बढ़ाते हैं। उनकी बीमारी सी जुड़ी चिकित्सा क्षेत्र की नई अनुसंधानों के बारे में अनुभव साझा करते हैं। फेसबुक चलाने के लिए वे ध्वनि पहचानने वाले साफ्टवेयर का इस्तेमाल करते हैं।
अमित कहते हैं कि सरकार से उन्हें आंदोलनकारी कोटे की 10 हजार रुपये पेंशन मिलती है, लेकिन ये नाकाफी है। वह चाहते हैं कि उनके इलाज का सारा खर्च सरकार उठाए, ताकि उनकी बूढ़ी मां को कुछ राहत मिल सके।
हाल ही में उनसे पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भी मिलने गए। रावत कहते हैं कि जब उन्हें इस बारे में पता चला तो थोड़ा मैं बेचैन भी हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि हमारा राज्य और हम उनके लिए कुछ भी न कर पाये हों। अमित से बात की। वह बहुत हौसले वाले व्यक्ति हैं। उत्तराखंड में दो ऐसे व्यक्ति हैं, जो राज्य आंदोलन के समय में घायल होकर करीब पूर्ण विकलांगता की स्थिति में हैं। अमित का आधा शरीर ही काम करता है और कमर से नीचे का हिस्सा काम नहीं करता है।
हरीश रावत कहते हैं कि ऐसे ही दूसरे व्यक्ति रुड़की में प्रकाश पांगती हैं। मैं उनसे भी नहीं मिल पाया हूं। इनको 10 हजार प्रति माह पेंशन मिलती है और मैं समझता हूं कि एक सहायक का खर्च भी राज्य सरकार को वहन करना चाहिए। उन्होंने कहा कि वह इन दोनों के विषय में मुख्यमंत्री से मिलेंगे और बात करके आग्रह करेंगे वह गौर करें, ये राज्य आंदोलनकारी हमारी धरोहर हैं। आंदोलन के दौरान इन्हें मिले गहरे जख्म अभी भी नहीं भर पाए हैं। ऐसे में इनकी जिम्मेदारी और इलाज व खर्च इत्यादि का जिम्मा भी सरकार का ही होना चाहिए।
बहरहाल, ऐसे जीवंत उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को उचित सरकार आखिर कब तब मिल पाता है, यह देखने वाली बात होगी।