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ग्लेशियर (glacier) की निगरानी से कोई प्रमाणित शोध

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ग्लेशियर (glacier) की निगरानी से कोई प्रमाणित शोध

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड (Uttarakhand) चमोली (Chamoli) जिले की नीति घाटी में नंदा देवी ग्लेशियर (Galcier) टूटने से बाढ़ (Flood) का सामना कर रहा है। वैसे तो भारत में ग्लेशियर की वजह से नुकसान आम बात नहीं है, लेकिन फिर भी भारत सरकार हिमालय के ग्लेशियरों पर खास तौर पर निगरानी का काम देश की कई अनुसंधान संस्थाओं के जरिए करती है।  लेकिन प्रमुख कार्य बेंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) के दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज (DCCC) ने किया है। कश्मीर से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक के भारतीय इलाकों में कुल 267 ग्लेशियर हैं जिन पर निगरानी रखने के साथ संबंधित शोध हुए हैं।

दुनिया के तीसरे ध्रुव के नाम से पहचाने जाने वाले हिमालय को लेकर जितनी जानकारी है उससे यह संकट खत्म होने से रहा क्योंकि न तो ज्यादा डेटा है और न ही रिसर्च। आर्कटिक और अंटार्टिका के बाद दुनिया का तीसरा ध्रुव इसी हिमालय क्षेत्र को हिन्दू कुश भी कहते हैं। जो हिमालय क्षेत्र अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, किर्गिजस्तान, मंगोलिया, म्यांमार, नेपाल, पाकिस्तान, ताजिकिस्तान और उज्बेकिस्तान तक यानी लगभग 5  मिलियन वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है।

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विशेषताओं की बात करें तो इस पूरे क्षेत्र में सांस्कृतिक रूप से संपन्न एक बड़ी आबादी रहती है। हां, यही वो अकेला क्षेत्र है जो ध्रुवीय क्षेत्रों से अलग बाहर की दुनिया में सबसे ज्यादा बर्फ इकट्ठा करता है इसीलिए इसको द थर्ड पोल भी कहते हैं। ऐसे में घूम फिरकर वही सच्चाई सामने आ जाती है कि हिमालय के ग्लेशियरों में जो चल रहा है उसकी क्या वजह है और उसे कैसे रोका जा सकता है? इस पर न तो कोई प्रमाणित शोध ही है और न ही पूरी गंभीरता से कुछ किया गया दिखता है। हालांकि इस बार सर्दियों में यह हादसा हुआ है जिस पर कई लोगों को आश्चर्य होना स्वाभाविक है। यह भी सच है कि पिछले काफी दिनों से वहाँ पर मौसम बिगड़ा हुआ था और जबरदस्त बर्फबारी हो रही थी। हो सकता है कि इससे उस पूरे इलाके में फिसलन भी बढ़ गई हो जिसके चलते कोई बर्फ की चट्टान खिसक गई हो। लेकिन यह सब कयास ही हैं।

चमोली का सच वैज्ञानिक शोध का विषय है। लेकिन सवाल वही कि कि हम हादसों से कब सीख लेंगे? यूं तो ग्लेशियरों पर ग्लोबल वॉर्मिंग यानी जलवायु परिवर्तन के असर को लेकर लंबे समय से और बेहद विस्तार से अध्ययन किया जा रहा है जिससे ही पता चला कि हिमालय के हिंदुकुश क्षेत्र में पारा बढ़ रहा है जिससे वैश्विक तापमान की वृध्दि का असर ज्यादा ऊंचाई पर होने से हिमालय पर कुछ ज्यादा ही हो रहा है। फिर भी सब कुछ जानकर अनजान रहना और धीरे से बड़ी-बड़ी विपदाओं को भुला देना और फिर किसी नए हादसे की ओर चल पड़ना जहां भावी पीढ़ी के साथ-साथ पूरी मानव सभ्यता व उसी प्रकृति के साथ अन्याय है जिसने हमें यह जीवन दिया। काश इस हादसे के बाद प्रकृति का स्वाभाव, जलवायु परिवर्तन और धरती की तपन की सच्चाई समझ आ पाती! लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि पठारी इलाकों में तापमान बढ़ने से हवा ज्यादा आर्द्र यानी नम होती है।

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सर्दियों में बर्फ ज्यादा गिरती है जिससे बढ़ता वजन हिमस्खलन का कारण बनता है।वहीं गर्मियों में बारिश का पानी दरारों में लॉक हो जाता है
जिससे मिट्टी और बर्फ में फिसलन पैदा होती है और हिमस्खलन होता है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह बड़े कारण हो सकते हैं। लेकिन उससे भी ज्यादा यह कि ऐसी परिस्थितियां एकाएक क्यों निर्मित होने लगीं? जहां भू-गर्भीय, धरातल में होने वाली गतिविधियों की निगरानी और जानकारी के लिए जिस तरह से कई उपकरण और तंत्र हैं, काश ग्लेशियरों में होने वाली गतिविधियों को दर्ज करने के लिए भी ऐसे ही आर्टिफीसियल इण्टेलीजेन्स विकसित कर लिए जाते जो असंभव नहीं है।

दुख इस बात का है कि देश में ही नामी गिरामी तकनीकी संस्थाओं के बावजूद इस पर किसी का ध्यान हीं गया। वहीं पेरिस क्लाइमेट समझौता भी जल्द अमल में लाया जाता जिससे ग्लोबल वार्मिंग के बीच तापमान को 2 डिग्री तक कम किया जा सकता और डेढ़ डिग्री से ज्यादा न बढ़े यह व्यवस्था हो पाती। लेकिन ज्यादातर देशों ने संयुक्त राष्ट्र को इसपर अपनी कोई योजना ही नहीं दी है न ही अमल में लाया। काश इन सबसे भी ग्लेशियर क्षेत्रों में होने वाली बड़ी जन और धन हानियों को रोका सकता। हालिया शोध में यह बात सामने आई है कि गंगोत्री ग्लेशियर पर्यावरण में आए बदलाव के चलते हर साल 22 मीटर पीछे खिसक रहा है।जहां तक सब दूसरे सबसे बड़े ग्लेशियर का सवाल है, तो पिंडारी ग्लेशियर 30 किमीमीटर लंबा और 400 चौड़ा है। यह ग्लेशियर त्रिशूल, नंदा देवी और नंदाकोट पर्वतों के बीच स्थित है।

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पर्यावरणीय बदलाव की वजह से फिलहाल हर साल ये ग्लेशियर कई मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। अतिसंवेदनशील ग्लेशियरों के टूटने, एकाएक पिघलने से उत्तर भारत में भयावह बाढ़ और तबाही की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। उत्तराखंड में ऐसी करीब 50 ग्लेशियर झीलें खतरनाक स्थिति में हैं और इनका फटना तबाही का सबब बन सकता है। हिमालय के ग्लेशियरों के अध्ययन के लिए वर्ष 2009 में वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान में सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी प्रोजेक्ट शुरू किया गया था। इस प्रोजेक्ट को अब अचानक बंद कर दिया गया है। केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने निर्णय कर लिया है कि इस सेंटर को अब कोई बजट जारी नहीं किया जाएगा। विभाग के इस निर्णय से वाडिया संस्थान को बड़ा झटका लगा है और कहीं न कहीं इससे ग्लेशियरों पर किया जा रहा अध्ययन भी प्रभावित होगा।

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी के लिए वर्ष 2009 में 23 करोड़ रुपये दिए थे। तब यह प्रोजेक्ट पांच साल का था। जलवायु परिवर्तन के दौर में ग्लेशियरों की स्थिति पर अध्ययन की महत्ता को देखते हुए वर्ष 2014 में तय किया गया कि इसे हर साल एक्सटेंशन दिया जाएगा। तब से केंद्र सरकार से सेंटर में काम कर रहे विज्ञानियों व विभिन्न तकनीकी कायरें के लिए हर साल एक से डेढ़ करोड़ रुपये प्राप्त हो रहे थे। अब ग्लेशियरों पर अध्ययन के लिए विज्ञानियों को संस्थान के अल्प बजट पर निर्भर रहना है सेंटर फॉर ग्लेशियोलॉजी की शुरुआत में अहम भूमिका निभाने वाले हिमनद विशेषज्ञ उनका कहना है कि नॉर्थ व साउथ पोल के बाद जिस हिमालय को थर्ड पोल माना जाता है, उसके ग्लेशियरों के अध्ययन का प्रोजेक्ट बंद नहीं किया जाना चाहिए।

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ग्लेशियर उत्तर भारत की प्रमुख नदियों के एक तरह के रिजर्व बैंक हैं और जलवायु के प्रति बहुत संवेदनशील है।जलवायु परिवर्तन का उन पर व्यापक असर होता है। दुनिया के अन्य ग्लेशियरों की तुलना में हिमालय के ग्लेशियरों के बारे में बहुत कम जानकारी और आंकड़े हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि ये ग्लेशियर बहुत ही दुर्गम स्थानों पर हैं।इस अल्प अवधि में संस्थान ने दर्जनों ग्लेशियरों पर अध्ययन किया और ऐसे आंकड़े एकत्रित किए, जो किसी संस्थान के पास नहीं हैं। उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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