चिंता: जलवायु परिवर्तन (Climate change) कर रहा प्रहार - Mukhyadhara

चिंता: जलवायु परिवर्तन (Climate change) कर रहा प्रहार

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चिंता: जलवायु परिवर्तन (Climate change) कर रहा प्रहार

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारतवासी फिलहाल गर्मी के तीव्रतम मौसम का सामना कर रहा है। देश की राजधानी समेत कई क्षेत्रों में तापमान लगातार 50 डिग्री के आसपास पहुंच रहा है। इस बीच अधिकारियों ने संभावित पानी की कमी और बिजली कटौती की भी चेतावनी दी है। धरती का तापमान बढ़ना आज विश्व के समक्ष सबसे बड़ा संकट है, जिसका तात्कालिक समाधान नहीं किया गया, तो मानव समेत तमाम के कारण अतिवृष्टि, सूखा, बाढ़, बेमौसम व औचक बरसात, चक्रवात, आंधी, वनों में आग, भू-स्खलन, ग्लेशियरों में बर्फ पिघलना,समुद्र का तापमान बढ़ना और समुद्री जलस्तर में बढ़ोतरी आदि जैसी समस्याएं सघन हो रही हैं। विश्व पर्यावरण दिवस,जो जीवों का अस्तित्व निश्चित ही खतरे में पड़ जायेगा। इस संकट के प्रभाव के गंभीर परिणाम हमारे सामने आने लगे हैं।

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जलवायु परिवर्तन हर साल पांच जून को मनाया जाता है, के अवसर पर इस वर्ष का मुख्य विषय ‘भूमि बहाली,मरुस्थलीकरण और सूखा निरोध’ है। पर्यावरण का समुचित संरक्षण नहीं होने तथा भूमि की उर्वरा को बनाये रखने के प्रति समुचित संवेदनशीलता की कमी से भारत समेत कई देश भूमि क्षरण की समस्या का सामना कर रहे हैं। बड़े पैमाने पर वृक्षों की कटाई, भूजल के अत्यधिक दोहन तथा रासायनिक खेती के कारण भूमि क्षरित हो रही है। इससे मरुस्थलीकरण भी बढ़ रहा है। अपने संदेश में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने रेखांकित किया है कि मानवता भूमि पर निर्भर है, फिर भी समूचे विश्व में प्रदूषण, जलवायु अव्यवस्था और जैव-विविधता के ह्रास से स्वस्थ भूमि मरुभूमि में तथा जीवंत पारिस्थितिकी मृत क्षेत्र में परिवर्तित हो रही हैं। पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न प्रयासों के साथ-साथ इस ओर समुचित ध्यान देने की आवश्यकता है।

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दुनियाभर में तीन अरब से अधिक लोग भूमि क्षरण से प्रभावित हैं। साथ ही, पीने योग्य पानी का तंत्र भी तबाह हो रहा है। भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश को स्वस्थ भूमि और जैव-विविधता की आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक है।इस संबंध में भारत सरकार की ओर से प्रयास किये जा रहे हैं, पर इस प्रक्रिया में हम सभी की भागीदारी आवश्यक है। कम पानी एवं खाद की आवश्यकता वाले तथा अधिक पौष्टिक मोटे अनाजों को बढ़ावा देना बहुत जरूरी पहल है। स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में अनेक देश आगे बढ़ रहे हैं, जिनमें भारत भी शामिल है। प्रधानमंत्री ने ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में यह संकल्प रखा था कि हमारा देश 2070 तक कार्बन और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन शून्य के स्तर पर लाने के लिए प्रतिबद्ध है। स्वच्छ ऊर्जा के अधिक उत्पादन से जीवाश्म ईंधनों पर निर्भरता भी घटेगी, जिनके खनन, वितरण,ऊर्जा उत्पादन और उपभोग से पारिस्थितिकी को भारी नुकसान होता है। जिस प्रकार हम प्रकृति से स्वच्छ ऊर्जा हासिल कर रहे हैं, उसी तरह हमें वर्षा जल के संरक्षण पर भी ध्यान देना चाहिए।

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पर्यावरण बचाने के लिए व्यक्तिगत और स्थानीय से लेकर वैश्विक स्तर तक साझा प्रयासों की आवश्यकता है। भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश को स्वस्थ भूमि और जैव-विविधता की आवश्यकता अपेक्षाकृत अधिक है। मानसून की बारिश, गर्मी से राहत दिलाने के साथ-साथ भयंकर बारिश भी ला सकती है, खेतों में बाढ़ आ सकती है और फसलें बह सकती हैं।ओला गिरने की घटनाएं अधिक होती जा रही हैं, जैसा कि कश्मीर में देखा गया, जहां 2007 में केवल दो की तुलना में 2022 में 27 ओला गिरने की घटनाएं हुईं।हाल ही में, रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट में भी इस बात पर जोर डाला गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बार-बार होने वाले मौसम के झटके मॉनेटरी पॉलिसियों के लिए चुनौतियों के साथ-साथ आर्थिक विकास के लिए नकारात्मक जोखिम भी पैदा करते हैं। किसी भी जलवायु नीतियों के अभाव में, 2050 तक दीर्घकालिक उत्पादन लगभग 9 प्रतिशत कम हो जाएगा, जबकि जलवायु परिवर्तन के भौतिक जोखिम अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से प्रभावित करेंगे। कम उत्पादकता से ब्याज की दर में गिरावट हो सकती है। हालांकि, इंफ्लेशन के लगातार झटके के कारण कम ब्याज दर के साथ भी सख्त मौद्रिक
नीति की आवश्यकता होगी।”

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रिपोर्ट में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बार-बार मौसम संबंधी गड़बड़ी से आधारभूत विकास पर निगेटिव असर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्तमान में जहां एक ओर उच्च हिमालयी क्षेत्र में बर्फबारी के स्थान पर वर्षा होने लगी है, वहीं बढ़ते तापमान के कारण हिमनदों के गलने की दर में वृद्धि हुई है। इससे हिमनद पीछे होते जा रहे हैं। यही नहीं, ग्लेशियरों द्वारा खाली किए गए स्थानों पर हिमनदों द्वारा लाए गए मलबे के बांध (मोरेन) के कारण बनी कुछ झीलों का आकार वर्षा और हिमनदों के गलने से तेजी से बढ़ रहा है। एक सीमा के बाद पानी का दबाव मलबे के बांध को तोड़कर निचले क्षेत्रों में तबाही का कारण बन सकता है। इन घटनाओं को व्यवस्थित रूप से अध्ययन के साथ सरकार के द्वारा सही नियोजन का भाग नहीं बनाया गया तो आने वाले समय में गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार
रहना होगा क्षेत्रों में यहां की जलवायु और यहां की भौगोलिक क्षेत्रों के आधार पर ही यहां के विकास की योजनाएं बनाई जानी चाहिए हिमालय क्षेत्रों में अति संवेदन शिलता के साथ विकास को नया स्वरूप दिया जाना चाहिए प्रकृति का बैलेंस है यदि उसको नजरअंदाज किया तो इसका खामियाजा मानव को लंबे समय तक भोगना पड़ेगा।हिमालय भारत के पारिस्थितिकी संरक्षण की रीढ़ है, यह बात जितनी जल्दी समझें उतना ही अच्छा।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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