वनाग्नि से निकल रहे कार्बन कणों से ग्लेशियरों (Glaciers) को खतरा
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के वाइल्ड लाइफ क्षेत्र में कुल 17 घटनाएं हुईं, जिसमें 20.9 हेक्टेयर जंगल जले और 28,838 का नुकसान हुआ। आंकड़ों पर गौर करें तो बीते चार महीने में प्रदेश के जंगलों में आग लगने की 723 घटनाएं हुईं, जिसमें 917 हेक्टेयर जंगल जले और 8,950 पेड़ों में आग लगी। इस दौरान 30 लाख 18 हजार 798 रुपए का नुकसान हुआ। वनों में लग रही आग जीव-जंतुओं के साथ ही हिमालयी पर्यावरण के लिए भी खतरा बन रही है। अप्रैल माह में ही उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के जंगल धधक उठे हैं। आग की वजह से उठ रहे कार्बन कण दूर तक उड़कर ग्लेशियर तक पहुंच रहे हैं। इससे ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज हो जाती है। गर्मी बढ़ने के साथ ही उत्तराखंड में वनाग्नि की घटनाएं भी तेजी से बढ़ने लगी है।
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वन विभाग के अनुसार अब तक करीब 436 हेक्टेयर वन आग से प्रभावित हो चुके हैं। प्रदेश भर में अभी तक वनाग्नि की 373 घटनाएं हो चुकी हैं। हिमालयी वैज्ञानिकों के अनुसार इस बार अप्रैल माह की शुरुआत से ही वनाग्नि की घटनाएं हो रही हैं।हाल-फिलहाल बारिश होने की कोई संभावना नहीं है। अलनीनो वर्ष होने की वजह से पहाड़ों में भी तापमान में उछाल आ रहा है। आने वाले दिनों में वनाग्नि की घटनाएं और अधिक बढ़ सकती हैं। वनाग्नि की वजह से बड़ी संख्या में कार्बन कणों का उत्सर्जन होता है। कार्बन कणों का व्यास 0.5 माइक्रोन तक होता है। यह हवा के साथ उड़कर हिमालय में ग्लेशियरों पर जाकर बैठ जाते हैं। कार्बन कणों का रंग काला होता है। इनके ग्लेशियरों पर पहुंचने से ग्लेशियर गर्मी को और तेजी के साथ सोखने लगते हैं। जिससे ग्लेशियरों का पिघलना और भी तेजी के साथ बढ़ जाता है।
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प्रदूषण और वनाग्नि की वजह से हिमालयी क्षेत्र का तापमान तेजी के साथ बढ़ता है। जिस वजह से गर्म हवाओं का उत्सर्जन जरूरत से अधिक होता है। इस तरह का मौसम बादल फटने की घटनाओं के लिए भी जिम्मेदार होता है। हिमालयी क्षेत्रों में विगत कुछ वर्षों में बादल फटने की बढ़ रही घटनाओं का यही कारण है। गंगा के मैदानी इलाके ब्लैक कार्बन का सबसे बड़ा योगदानकर्ता बन जाएंगे, जिसमें लगभग 20 प्रतिशत जैव-ईंधन से, 40 प्रतिशत से और लगभग 40 प्रतिशत जैव-द्रव्यमान जलने से होगा। काली सामग्री अधिक प्रकाश को अवशोषित जीवाश्म ईंधन करती है और इन्फ्रा- रेड विकिरण उत्सर्जित करती है जिससे तापमान बढ़ जाता है। इसलिए, जब उच्च हिमालय में ब्लैक कार्बन में वृद्धि होगी, तो यह हिमालय के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने में योगदान देगा।
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लंबे समय में, उच्च हिमालय की वायुमंडलीय संरचना में परिवर्तन बारिश और बर्फबारी के पैटर्न को प्रभावित करेगा। तदनुसार, हिमालयी
समुदायों के प्राकृतिक संसाधन और सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ भी प्रभावित होंगी। ब्लैक कार्बन बढ़ने के कारण धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। ब्लैक कार्बन बढ़ने से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। पर्यावरण में ब्लैक कार्बन बढ़ने का मुख्य कारण जंगलों की आग, धुआं, खुले में कूड़ा जलाना, गाड़ियों से निकलने वाला दूषित धुआं है। उत्तराखंड में लगातार मौसम में बदलाव और साल दर साल तापमान में वृद्धि किसी खतरे का संकेत दे रही है।
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उत्तराखंड में बीते कई सालों में लगातार कार्बन डाइऑक्साइड गैस तेजी से बढ़ा है।जिसका असर यहां के पारिस्थितिकी तंत्र पर देखने को मिल रहा है। वैज्ञानिक भी मौसम में बदलाव और रिसर्च के नतीजों के बाद बेहद चिंतित हैं। उनका मानना है कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में बहुत बुरे परिणाम देखने को मिल सकते हैं। उत्तराखंड एक आंकड़े के मुताबिक, 23 ग्लेशियर हैं। जिनमें गंगोत्री, भागीरथी, खतलिंग, चौराबाड़ी, बंदरपूंछ, काली नामिक हीरामणि, पिनौरा, रालम, पोटिंग, सुंदरढुंगी, सुखराम, कफनी, मैकतोली, यमुनोत्री, डोरियानी केदारनाथ, पिंडारी, मिलम, सतोपंथ, दूनागिरी, बदरीनाथ इन ग्लेशियरों से ही गंगा, यमुना, अलकनंदा, पिंडारी समेत अन्य नदियां निकल कर आधी आबादी की प्यास बुझाती है। उधर, ग्लेशियरों के पिघलने से जीवदायनी नदियों का पानी आने वाले समय में कम हो जाएगा। जिसका नतीजा ये होगा कि भविष्य में संकट पैदा हो जाएगा। खेती से लेकर बिजली उत्पादन में कमी आएगी। ऐसा नहीं है कि वैश्विक स्तर इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, इस पर प्रयास तो किए जाए रहे हैं, लेकिन वो नाकाफी साबित हो रहा है।
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पेरिस में हुए समझौते में जब ग्लेशियरों के पिघलने पर बात हुई तो जानकारी आई की दुनिया के ग्लेशियर साल 2100 तक काफी हद तक पिघल जाएंगे।हालांकि, दुनियाभर के देश इस प्रयास में है की ग्लोबल वार्मिंग को डेढ़ डिग्री तक कम किया जाए और इसके लिए प्रयास लगातार जारी है, लेकिन सभी को जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से लेना होगा।पृथ्वी के तापमान को स्थिर रखने और कार्बन उत्सर्जन के प्रभाव को कम करने के लिए कंक्रीट के जंगल का विस्तार और अंधाधुंध पर्यावरण दोहन पर लगाम कसना होगा। जंगल और वृक्षों का दायरा बढ़ाना होगा। पेड़ और हरियाली ही धरती पर जीवन के मूलाधार हैं।वनों को धरती का फेफड़ा कहा जाता है। धरती पर प्राणवायु ऑक्सीजन से लेकर जरुरी भोजन मुहैया कराने के लिए यही वृद्ध जिम्मेदार हैं। वृक्षों और जंगलों का विस्तार होने से धरती के तापमान में कमी आएगी। लेकिन
विडंबना है कि वृक्षों और जंगलों का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। ब्लैक कार्बन अपने नीचे गर्मी पैदा करते हैं। जिसके कारण ग्लेशियर के ऊपर हर मौसम में पड़ी बर्फ पिघल जाती है और इसके बाद इसका प्रत्यक्ष असर ग्लेशियर की सैकड़ों सालों की जमी बर्फ पर पड़ता है। जिससे ग्लेश्यिर सिकुडऩे लगते हैं।
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अगर वायू प्रदूषण ऐसे ही हिमालय की ओर बढ़ता रहा तो हिमालयी ग्लेशियरों के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाएगा। ब्लैक कार्बन के कारण तापमान में वृद्धि होती है, क्योंकि यह प्रकाश को अवशोषित करने और निकटवर्ती वातावरण की ऊष्मा की वृद्धि में अत्यधिक प्रभावी होता है। यह बादल निर्माण के साथ-साथ क्षेत्रीय परिसंचरण और वर्षा को भी प्रभावित करता है। बर्फ तथा हिम पर चिपक जाने पर, ब्लैक कार्बन और सह-उत्सर्जित कण एल्बिडो प्रभाव को कम करते हैं, जिसकी वजह से सतह के तापमान में वृद्धि होती हैं। इसके परिणामस्वरूप आर्कटिक और हिमालय जैसे ग्लेशियर क्षेत्रों में बर्फ पिघलने लगती है।शोध और पर्यावरण के जानकार ऐसे के खिलाफ चेतावनी देते रहे हैं। इतना ही नहीं, जंगलों के जलने के कारण जलवायु परिवर्तन भी होता है। जंगल जितने ज्यादा जलेंगे, जलवायु परिवर्तन की रफ्तार तेज होने का जोखिम भी उतना ही बढ़ेगा। यह एक कुचक्र है। जंगलों की आग हिमालय की पर्वतमालाओं की बर्फ और ग्लेशियर पर सीधा असर डालेगी। बढ़ते तापमान की वजह से बरसों से जमी बर्फ तेजी से पिघलेगी, जिसके आने वाले भविष्य में कई दुष्परिणाम हो सकते हैं।
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आंकड़ों पर गौर किया जाये तो ये काफी डराने वाले हैं। केवल वन विभाग आग लगने की घटनाओं को नहीं रोक सकता। पेड़ों और जंगलों की रक्षा के लिए जब से नियम बनने लगे तब से पेड़ों की रक्षा पर उलटा असर पड़ा है। जंगलों को संरक्षित करने के लिए जो नियम बने उनमें ये कहीं नहीं बताया गया कि जंगल को बचाने की जिम्मेदारी किसकी है, जंगल बचाने हैं तो लोगों को उससे जोड़ना होगा। जंगल बचाने के लिए स्थानीय लोगों को नीतियों में शामिल करना जरूरी है। इसके अलावा जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने के वैज्ञानिक तरीके इजाद करने
होंगे। ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भीषण आग जलवायु परिवर्तन का निर्मम उदाहरण है। साथ ही यह पूरी दुनिया के लिए भी सबक है कि पर्यावरण से मुंह मोड़ना का अंजाम किस कदर डरावना होता है?
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)