राजनीति में रहने न रहने के निर्णय के साथ, उत्तराखण्ड के लोगों से दिल खोलकर कुछ कहने का समय भी आ गया है। मैंने अपने पूर्ववर्तीय लेखों में बहुत सारे विषयों पर काफी खुलकर लिखा है। मेरे लेखों पर लोग मुझसे सहमत हों, आवश्यक नहीं है। परन्तु मेरी तथ्यात्मक बातों व सोच पर कुछ कहने या लिखने से पहले, सभी को कुछ न कुछ सोचना अवश्य पड़ेगा। कई विषयों, जिन्हें मैंने आगे बढ़ाया है, उन पर सार्वजनिक बहस भी होनी चाहिये।
सार्वजनिक जीवन के अवसान पर आप अपने अनुभवों, कटुअनुभवों व तथ्य सम्मत घटनाक्रमों की जानकारियों को अपने हृदय में लेकर विदा नहीं हो सकते हैं। सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति का दायित्व है, वह उपयोगी जानकारी को लोगों के संज्ञान में लायें। इसी को ध्यान में रखकर आगे आने वाले समय के विषय में, मैं अपने कार्यकाल में लिये गये निर्णयों के साथ, घटित राजनैतिक घटनाक्रमों पर भी कुछ कहूंगा।
मेरे मुख्यमंत्री का दायित्व सभालने के कुछ ही समय बाद केन्द्र सरकार के राजनैतिक स्वरूप में भारी बदलाव आ गया था। यू.पी.ए. के स्थान पर एन.डी.ए. की सरकार ने देश की बागडोर सभाल ली। वस्तुतः एक भाजपानित सरकार। यदि मैं कहूं कि, मुख्यमंत्री के तौर आंख खोलने के साथ, मेरा भाजपा सरकार से साक्षात्कार हुआ, तो यह अन्यिोक्ति नहीं है। इस तथ्य से साक्षात्कार होते ही मुझे, अपनी कार्यनीति में बड़ा परिवर्तन लाना पड़ा। यू.पी.ए. का समय मेरे लिये बहुत सहज था। केन्द्रीय मंत्री के रूप में दायित्व का, मुख्यमंत्री पद, सहज विस्तारीकरण था। मैं दोनों छोरों पर सहजता से बैटिंग कर सकता था। केन्द्रीय सत्ता में परिवर्तन आते ही, मुझे अपने खेल के तरीके को बदलना पड़ा। चव्वे-छक्के नहीं, बल्कि एक-दो कर, विकास के रन चुराने पड़ते थे। मैं कभी किसी क्षण भी रन जोड़ने से चूका नहीं। हमेशा सजग व सतर्क बना रहा।
यहां तक की गम्भीर चोट के हालात में भी, मैंने विकास रूपी रन बनाने के अवसर को नहीं गंवाया। कभी-2 तो गले में बधा पट्टा भी रन जुटाने में मदद करता था। मेरे लेखों का एक उद्वेश्य और भी है, यह है लोग पूर्व व वर्तमान मुख्यमंत्रियों के कार्यों व कार्यप्रणाली की तुलना करें। यूं भी समय को सबकी समीक्षा व मूल्यांकन करना चाहिये। वर्तमान सरकार व मुख्यमंत्री महोदय मेरे बराबर कार्यकाल पूरा कर चुके हैं।
वर्तमान सरकार के क्रियाकलापों, योजनाओं की विवरिणिका प्रदेश के लोगों के सम्मुख है। मैं भी अपने लेखों के माध्यम से, अपनी योजनाओं को भी लोगों को स्मरण करा रहा हॅू। स्वभाविक है, मैं भी प्रत्येक भूतपूर्व मुख्यमंत्री की तरह आउट आॅफ साईट-आउट आॅफ माइन्ड ‘‘स्निोड्रम’’ से प्रभावित हॅू। मेरे कार्यकाल की एक तुलनात्मक विवरिणिका न केवल जनता के लिये, बल्कि वर्तमान सरकार के लिये भी उपयोगी है। वर्तमान सरकार अपने निर्णयों व योजनाओं के मूल्यांकन के आधार पर उभर कर आ रही कमियों व कमजोरियों को दूर कर सकती है। उनके पास अभी दो वर्ष का समय है। मेरे कार्यकाल में सड़क निर्माण, राज्य का एक उज्जवल पक्ष रहा है। लगभग 14 सौ के करीब ऐसी नई सड़कें, मेरे कार्यकाल में बनी और लगभग इतनी सड़कें भविष्ण में निर्माण हेतु स्वीकृत हुई हैं। प्रधानमंत्री सड़क योजना को मैंने वरदान के रूप में लपका। पद सभालते ही मैंने, डी.पी.आर. तैयार करने के कार्य को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में रखा। उसी का परिणाम था कि, मैं इस योजना के तहत सर्वाधिक सड़कों की स्वीकृती पाने वाले राज्यों में एक रहा। मेरे पद निवृति के समय भी भारत सरकार के सम्मुख हमारे राज्य की पांच सौ सड़कों की डी.पी.आर. लम्बित थी। मैं डी.पी.आर. निर्माण के साथ ही समरेखन को कार्य हेतु, प्रत्येक सड़क के लिये टोकन धनराशि स्वीकृत करता था।
इसके परिणाम स्वरूप भारत सरकार की स्वीकृति प्राप्त होने के 6माह के अन्दर वन एवं पर्यावरणीय स्वीकृतियां प्राप्त हो जाती थी तथा सड़क निर्माण का कार्य प्रारम्भ हो जाता था। मैं पर्यावरणीय अनुमति के प्रसंगों का त्रिस्तरीय फोलोअप सुनिश्चित करता था। आपको आश्चर्य होगा कि, पद से हटने के 3 वर्ष बाद भी मुझे ऐसे कुछ अधिकारियांे व संबन्धित लोगों के नाम याद हैं, जिनका संबन्ध वन संबन्धी अनुमोदनों से था।
सड़कें विकास रूपी शरीर की नाड़ीतंत्र हैं, यह सत्य मुझे हमेशा ध्यान में रहा। मुख्यमंत्री बनने के साथ ही मैंने निर्माणाधीन सड़कों की समीक्षा बैठक रखी। मुझे यह जानकर बड़ा धक्का लगा, नब्बे के दशक की सड़कें भी निर्माणाधीन हैं? या अधूरी पड़ी हैं। पी.एम.जी.एस.वाई. में वर्ष 2003-04 की सड़कें भी अधूरी पड़ी थी। इन सड़कों को पूरा करने में लगभग 2 सौ करोड़ का दायित्व आ रहा था, जिसे मेरे पूर्ववर्तीय टालते आ रहे थे।
हर मुख्यमंत्री पुरानी मोहर से काम चलाने के बजाय, अपनी मोहर के साथ नई सड़क स्वीकृत करना अधिक अच्छा समझ रहा था। पी.एम.जी.एस.वाई. की कुछ सड़कें तो मात्र पुल व पुलिया न बनने के कारण अधूरी पड़ी थी। मैंने तत्काल ऐसी सड़कों को पूर्ण करने के आदेश दिये। राज्य को पहले वर्ष में ही 56 ऐसी सड़कें यातायात हेतु उपलब्ध हो गई। मुझे खुशी है, राजनैतिक धु्रवीय भिन्नता के बावजूद, मैं पी.एम.जी.एस.वाई. के अलावा, नेशनल हाईवेज व नेशनल रोड फण्ड के सेक्टर में भी लगभग एक दर्जन सड़कों को लाने में समर्थ रहा। यदि इन सड़कों में मेरे पद निवृत होने से कुछ समय पहले सैद्धान्तिक स्वीकृति प्राप्त नेशनल हाईवेज को जोड़ दिया जाय तो, मुझे मुख्यमंत्री के रूप में अपनी उपलब्धियों पर गर्व करना चाहिये। इन सड़कों में कई सड़कें अतिउपयोगी व महत्वपूर्ण हैं। इन स्वीकृत 23 सड़कों में रामनगर-कोटद्वार-कण्डी रोड व कोटद्वार-चिल्लरखाल भी सम्मिलित हैं।
वर्तमान सरकार को इस स्थिति को लपकना चाहिये था। श्रेय के चक्कर में राज्य सरकार पिछले तीन वर्षों से, अपेक्षित डिटेल प्रस्ताव वित्तीय स्वीकृति हेतु केन्द्र सरकार को नहीं भेज रही है। इन सड़कों में मोहान-भतरौजखान-अल्मोड़ा, मेदावन-नयार-भराड़ीसैंण, मरचूला-भिकियासैंण-गैरसैंण जैसे मार्ग सम्मिलित हैं। मैं सीमान्त क्षेत्रों में सड़क निर्माण की भारत सरकार के गृह मंत्रालय की योजना के तहत भी, 4 सड़कें लाने में सफल रहा। ऐसी एक सड़क अभी तक पूर्ण हो जानी चाहिये थी, परन्तु बदले की भावना से अधूरी पड़ी है। यह सड़क है, टनकपुर-झूलाघाट-जौलजीवी- -मदकोट-मुनस्यारी मोटर मार्ग। आप इस सड़क के कार्य के बन्द होने से अनुमान लगा सकते हैं कि, वर्तमान समय में सड़क निर्माण को लेकर, सत्ता की सोच किस प्रकार की है।
मैंने, सड़कों को लेकर कभी वन विभाग से झगड़ा नहीं किया। मुझे उन्हें ही निर्माण एजेन्सी मानने में कभी परेशानी नहीं हुई। मैंने ब्लैक टोप को लेकर वन विभाग की कठिनाई को समझा और उनको वनों के अन्दर सड़क निर्माण हेतु निर्धारित टैक्निक के अनुसार सड़क बनाने के आदेश दिये।
कोटद्वार-चिल्लरखाल-लालढांग ऐसा ही मोटर मार्ग है, जिसे अब श्रेय व अहं के झगड़े ने उलझाकर रख दिया है। सीमान्त सड़क संगठन (डी.जी.बी.आर.) के साथ हमारे सहयोगात्मक व सहायतावर्द्धक रूख का परिणाम है कि, शिमली-नारायण बगड़-ग्वालदम सड़क पूर्ण हो पायी। रूद्रप्रयाग-तिलवाड़ा-फाटा सड़क भी बनी और तवाघाट-बूंदी-गुंजी सड़क बन रही है। केन्द्र सरकार का सहयोग हासिल करने के मामले में चारधाम यात्रा मार्ग सुधार कार्यक्रम सबसे बड़ा उदाहरण है। शिवभक्त केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री, श्री नितिन गडकरी जी के साथ एक बैठक में, मैंने इन सभी मागों के चैड़ीकरण, टनलिंग व वाईपासेज का प्रस्ताव रखा। उन्होंने सहमति जताते हुये हमें शीघ्र डी.पी.आर. प्रस्तुत करने को कहा। खैर कई बैठकों के बाद जिनमें मैं भी बैठा, डी.पी.आर. फाईनल हुई। इस प्रोजेक्ट में टनकपुर-पिथौरागढ़ की सड़क को भी अन्तिम समय में जोड़ा गया। श्री गडकरी जी कुछ ऐतिहासिक करना चाहते थे, मैंने उनके आगे ऐतिहासिक प्रस्ताव रखा और उनकी मोहर लग गई। कोई इस प्रोजेक्ट को किसी की भी देन बताये, मगर यह श्री गडकरी जी के व्यक्तिगत रूची का परिणाम है, जिसे राजनीति ने आॅल वेदर रोड का नाम दे दिया है। ज्ञात रहे प्रधानमंत्री जी द्वारा शिलान्यारित इस परियोजना के शिलान्यास समारोह की अध्यक्षता मुख्यमंत्री, उत्तराखण्ड के रूप में मैंने की थी और यह परियोजना चारधाम सड़क सुधार प्रोजेक्ट के रूप में स्वीकृत हुई है।
मेरा लक्ष्य वर्ष 2020 तक उत्तराखण्ड को पूर्णतः सड़कों से अच्छादित करना था। इस लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा छोटी-2 सड़कों की मांग थी। सड़क छोटी हो या बड़ी, प्रक्रिया उतनी ही लम्बी व विलम्बपूर्ण होती है। मैंने छोटी सड़कों के निर्माण को पी.डब्ल्यू.डी. से हटाकर आर.ई.एस. व जिला पंचायतों को सौंप दिया। इस योजना का नाम ही ‘‘मेरा गाॅव-मेरी सड़क’’ कर दिया गया। 2 वर्ष में लगभग 300 सड़कें इस योजना में बनी। सौ, सवासौ सड़कें मैचिंग कन्ट्रिब्यूसन फाॅर्मूले के तहत बनाई गई। यदि मैं छोटी-2 ऐसी सड़कों में एम.डी.डी.ए., एच.आर.डी.ए. व सिडकुल द्वारा निर्मित सड़कों को भी जोडूं, ऐसी सड़कें दो सौ से अधिक होंगी। उद्वेश्य सड़क कैनिक्टविटी को बढ़ाना था। आज जब यह प्रक्रिया बन्द हो गई है, मुझे विश्वास है आने वाले समय में ‘‘मेरा गाॅव-मेरी सड़क’’ योजना, लोगों को बहुत याद आयेगी। सफलताओं के इस सुन्दर झुरमुट में नारसन-हरिद्वार-देहरादून नेशनल हाईवे की कटीली झाड़ी भी है। मैं इस सड़क को वर्ष 2016 तक पूर्ण करवाने में फेल हो गया। वर्ष 2014-15 में इस सड़क के गड्डांे को भरवाने के लिये, मैंने राज्य का 36 करोड़ रूपया भी खर्च किया था। ऐसी ही एक सड़क एन.एच. 74 भी रही है।
इसके निर्माण में अनावश्यक विलम्ब आज भी हो रहा है। मुझे इस लेख को लिखते वक्त खुशी से गुदगुदी सी हो रही है। इस गुदगुदी का कारण सड़कों की क्वालिटी है। 2013 में आपदा से जर्जर सड़क तंत्र में, वर्ष 2015 तक आया सुधार अकल्पनीय है। मैंने मुख्यमंत्री का कार्यभार सभालते ही एक आउट आॅफ बोक्स निर्णय लिया। छोटी-2 सड़कों व आपदा से प्रभावित कार्यों के स्वीकृति का अधिकार एस.डी.एम. की अध्यक्षता में बनी निर्माण कार्यों से जुड़े विभागों के इंजीनियर्स की कमेटी को सौंप दिया। पांच करोड़ रूपये तक के कार्यों की स्वीकृति के अधिकार जिलाधिकारी व आयुक्त स्तर पर दे दिये गये।
तीन वर्ष की सड़कीय उपेक्षा के बावजूद, मेरे कार्यकाल में निर्मित अधिकांश सड़कें, अभी भी अपनी राईडिंग क्वालिटी को संरक्षित किये हुये हैं। इस हेतु स्टेट की पी.डब्ल्यू.डी. बधाई की पात्र है। मैंने भी पी.डब्ल्यू.डी. को खूब दिया, अच्छे सचिव व अधिकारी दिये। विभागीय ढांचे में सुधार किया, जे.ई., ए.ई. के पद शीघ्रता से भरे पदोन्नतियों को गतिमान किया। सबसे महत्वपूर्ण है, मुख्यमंत्री ने पी.डब्ल्यू.डी. को अपना विश्वास दिया।
अपनी संस्थाओं व अपने परखे हुये लोगों पर भरोसे का परिणाम, मैं आपदा पुर्नवास के दौरान देख चुका था। कई लोगों की सोच में वर्ष 2014 में चारधाम यात्रा विशेषतः केदारनाथ यात्रा का संचालन का निर्णय मूर्खतापूर्ण था। मैंने प्रारम्भिक कुछ बैठकों के बाद चार लोगों को बुलाया, तत्कालिक जिलाधिकारी रूद्रप्रयाग, एक चमकदार नौजवान श्री राघव लांगर, तत्कालिक डी.आई.जी. श्री मर्तोलिया, एक अति व्यवहार कुशल पुलिस अधिकारी उत्तरकाशी के माउन्टेनरिंग स्कूल के प्रधानाचार्य कर्नल अजय कोठियाल तथा पी.डब्ल्यू.डी. के अधिशासी अभियन्ता श्री नेगी। मैंने चारों से कुछ सवाल किये, फिर अलग-2 बात की, विशेषतः जिलाधिकारी रूद्रप्रयाग से। मैंने इन लोगांे के आत्म विश्वास पर भरोसा किया। मैंने उनसे केवल एक वाक्य कहा, ‘‘आपको काम करना है, कुछ भी गलत होगा, तो उसका दायित्व मेरा रहेगा’’। मैंने यही वाक्य, दो बार विधानसभा के पटल पर भी दोहराया। परिणाम चमत्कारिक रहा। चुनाव हारने के चार घंटे के अन्दर मैंने, जिलाधिकारी श्री राघव लांगर जी को टेलीफोन कर कहा, ‘‘मैं आपको दिये अपने वचन को हमेशा याद रखूंगा। कभी भी आवश्यकता पड़ेगी, मैं आपके आगे खड़ा रहूंगा’’।
मैंने यही विश्वास, पी.डब्ल्यू.डी. की क्षमता पर भी दिखाया। देहरादून के फ्लाईओवरों के निर्माण के लिये चयनित तथाकथित विशेषज्ञ एजेन्सियां तो माल खाकर गोल हो गई। पी.डब्ल्यू.डी. आगे आयी, मैंने भरोसा दिया उन्होंने उसे पूरा किया। टिहरी झील में डोबरा चांटी का पुल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इसी से प्रेरित होकर मैंने उत्तर प्रदेश राजकीय निर्माण निगम के बजाय राज्य अवस्थापना निगम को नया एम.डी. देकर खड़ा किया तथा गैरसैंण अवस्थापना सड़क एवं टनल निर्माण निगम का गठन किया। मैंने पी.डब्ल्यू.डी. से कहा कि, वह अपनी संरचना में रोपवे व टनल निर्माण की एक्सपर्टटाईज को सम्मिलित करें।
खैर आज की सरकार दैवी शक्ति से संचालित है। सब बना-बनाया मिल रहा है, मात्र उद्घाटन भर करना है। मगर संस्थाओं का विकास तो करना ही पड़ेगा। राज्य के राजनेताओं को भी, उत्तर प्रदेश निर्माण निगम आदि जैसे अपने गोद लिये पुत्रों के स्थान पर, राज्य के ओरस पुत्रों पर भरोसा करना पड़ेगा। हम यदि अपने प्रिमियर इंजिनियरिंग विंग पी.डब्ल्यू.डी., सिंचाई विभाग, जल निगम पर भरोसा करें और उन्हें अपनी चुनौतियों के हिसाब से खड़ा (बिल्ड) होने देवें तो, हमारे पास तीन कमाऊ पूत संस्थायें हो सकती हैं। इन संस्थाओं में क्षमता है, यह फ्लाईओवर, अन्डरपास निर्माण, लिफ्ट पेयजल योजनाएं व सिंचाई विभाग द्वारा मेरे कार्यकाल में बड़े पैमाने पर बंदे, फ्लैड प्रोटैक्शन वर्क व कुछ जलाशय इनकी क्षमता के उदाहरण हैं।
राज्य में मेरे कार्यकाल के दौरान लगभग एक दर्जन लिफ्ट पेयजल योजनाएं निर्मित हुई। तुलनात्मक रूप से देखिये तो रिकार्ड समय में सुव्यवस्थित ढंग से निर्मित हुई। यह सब राज्य जल निगम ने सम्पादित किया।
उत्तर भारत में छोटे राज्यों के पास अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु आवश्यक इंजिनियरिंग ढांचा नहीं है। हमने उत्तर प्रदेश से यह ढांचा पाया है।
यदि हम इस ढांचे की आवश्यकतानुसार स्ट्रैंगन्थन करें तो, कालान्तर में ये संस्थायें उत्तर प्रदेश ब्रीज काॅरपोरेशन आदि की तर्ज पर पहाड़ी राज्यों के लिये सर्विस प्रोभाईडर हो सकती हैं। जिस कालखण्ड में, मैं इन संस्थाओं को खड़ा करने का प्रयास कर रहा था, कालचक्र मेरे विरूद्ध घुमने लगा था। ये संस्थायें आज अस्तित्व में हैं, अपनी आन्तरिक क्षमता सिद्ध कर चुकी है। मेरा सुझाव है, इन संस्थाओं के विकास पर कालचक्र का दुष्प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये।
मुझे सिंचाई विभाग की चिन्ता है, कार्य के अभाव में यह संस्था फिर उपेक्षित चल रही है। शायद मेरा कार्यकाल ही इस संस्था के विकास की दृष्टि से सर्वाधिक अच्छा रहा। भारत सरकार में जल संसाधन मंत्रालय के ढांचे व प्रधानमंत्री सिंचाई योजना के स्वरूप को देखते हुये राज्य को सिंचाई व लघुसिंचाई विभाग का एकीकरण करने पर विचार करना चाहिये। इन विभागों की स्वस्थ्य ग्रोथ के लिये पहली आवश्यकता है, इनकी आन्तरिक संरचना को मजबूत करने तथा इन्हें आन्तरिक क्रियाकलापों में स्वायतत्ता देना। क्या हम ऐसा कर रहे हैं? मुख्यमंत्री जी के सम्मुख यह मेरा यक्ष प्रश्न है।
क्रमशः
(हरीश रावत)