वन महकमे में कागजी वनीकरण करना नहीं होगा मुमकिन
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रदेश में वन विभाग हर साल लाखों, करोड़ पौधों को प्लांटेशन के रूप में रोपित करता है और इसके लिए हर साल एक बड़ी मुहिम भी चलाई जाती है। लेकिन इस दौरान सबसे बड़ी चिंता इन पौधों के जीवित रहने को लेकर होती है। दरअसल पौधरोपण के दौरान बड़ी संख्या में पौधे वृक्ष का रूप नहीं ले पाते और यह कुछ समय में ही मृत हो जाते हैं। विभाग में ये स्थिति हमेशा ही चिंता का समय बनी रही है और ऐसे में विभाग ने इस पर मॉनिटरिंग की व्यवस्था तैयार करने का फैसला लिया था। इस मामले में उत्तराखंड वन विभाग के मंत्री ने कहा कि प्लांटेशन पॉलिसी के जरिए विभाग ने पौधरोपण को लेकर पारदर्शिता लाने का प्रयास किया है और अब न केवल सेटेलाइट के जरिए पौधरोपण को लेकर नजर रखी जाती है, बल्कि जीपीएस के माध्यम से भी पौधरोपण करने के दौरान दिए गए प्रोटोकॉल को फॉलो करना होता है।
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इस नई व्यवस्था के बाद पौधरोपण करने के दौरान लगाए गए पौधे का जीपीएस के माध्यम से लोकेशन भी साझा करना होता है। जिससे केवल कागजी या फर्जी वाले की संभावना खत्म हो गई है। ऐसे में भविष्य में वनीकरण की मुहिम को ज्यादा बेहतर तरीके से आगे बढ़ाया जा पाएगा। हालांकि वन विभाग के मंत्री यह भी साफ करते हैं कि
प्रदेश में लगातार वन क्षेत्र बढ़ रहा है और यह इस बात का संकेत है कि वनीकरण को लेकर हो रही प्रयास कुछ हद तक सफल हो रहे हैं। ऐसे में वनीकरण पर चल रही मुहिम या सरकार के प्रयासों को सफल माना जाना चाहिए, क्योंकि रिकॉर्ड यह बताते हैं कि राज्य में वन क्षेत्र बढ़ रहा है और उसके पीछे वन विभाग केवही प्रयास वजह है जो वनीकरण के रूप में राज्य के फॉरेस्ट एरिया को बढ़ा रहे हैं।
वैसे उत्तराखंड में हमेशा से ही वनीकरण की मुहिम पर सवाल उठाते रहे हैं।लेकिन अब जिस तरह से तकनीक का उपयोग करते हुए वनीकरण की मॉनिटरिंग का सिस्टम तैयार किया गया है।उसके बाद अब केवल कागजी वनीकरण की व्यवस्था को रोकने में कामयाबी मिली है।हालांकि इस पर अभी कुछ और प्रयास होने बाकी हैं, ताकि राज्य में वनीकरण की खराब परफॉर्मेंस में सुधार किया जा सके।वनों में ऐसी कई चुनौतियां है। जिसका हर दिन
वनकर्मी सामना करते हैं। फिलहाल जंगलों के लिए वनाग्नि सबसे बड़ी समस्या है। जिसपर हर बार कुछ नया करने की कोशिश तो होती है लेकिन आग लगने की घटनाएं बढ़ने के कारण महकमा सभी के निशाने पर आ जाता है।ऐसे में ये जानना भी बेहद जरूरी है कि आखिरकार वन क्षेत्र में वनकर्मी क्या काम कर रहे हैं और क्या वाकई उनके प्रयासों में कोई कमी है। जिसके कारण विभाग अकसर तमाम वजहों से चर्चाओं में रहता है।
उत्तराखंड वन अनुसंधान केंद्र जैव विविधता के संरक्षण और संवर्धन के लिए जाना जाता है। यहां पर कई तरह के विलुप्त हो रहे पेड़-पौधों के संरक्षण और संवर्धन का काम किया जा रहा है। ऐसे में अनुसंधान केंद्र ने लालकुआं अनुसंधान केंद्र में उत्तर भारत का पहला गोंद प्रजाति के पेड़ पौधों का नर्सरी तैयार किया है। जिससे उत्तराखंड के काश्तकार इन पेड़ पौधों से गोंद संबंधित प्रजातियों की जानकारी हासिल कर गोंद की खेती कर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत कर सके।
मुख्य वन संरक्षक ने बताया कि लालकुआं वन अनुसंधान केंद्र में वर्ष 2018 में विलुप्त हो रहे गोंद प्रजातियों के 861 प्राकृतिक गोंद उत्पादन करने वाले पौधों का रोपण किया गया था। जो पेड़ अब लगभग तैयार हो चुके हैं। ऐसे में अब इन पेड़ों से गोंद उत्पादन का काम किया जाएगा। साथ ही इन पेड़ों के संरक्षण का काम भी किया जा रहा है। जिससे कि इन पेड़ों द्वारा उत्पादित बीजों को अन्य नर्सरी और जंगलों में लगाकर अधिक से अधिक गोंद उत्पादित करने
वाले पेड़ों को लगाया जा सके। उन्होंने बताया कि वन अनुसंधान का मकसद है कि शोधार्थी और किसान इन पौधों के संबंध में जानकारी हासिल कर इसकी खेती कर आत्मनिर्भर बन सकता है। ऐसे में भविष्य में वनीकरण की मुहिम को ज्यादा बेहतर तरीके से आगे बढ़ाया जा पाएगा। हालांकि वन विभाग के मंत्री यह भी साफ करते हैं कि प्रदेश में लगातार वन क्षेत्र बढ़ रहा है और यह इस बात का संकेत है कि वनीकरण को लेकर हो रही प्रयास कुछ हद तक सफल हो रहे हैं।
ऐसे में वनीकरण पर चल रही मुहिम या सरकार के प्रयासों को सफल माना जाना चाहिए, क्योंकि रिकॉर्ड यह बताते हैं कि राज्य में वन क्षेत्र बढ़ रहा है और उसके पीछे वन विभाग के वही प्रयास वजह है जो वनीकरण के रूप में राज्य के फॉरेस्ट एरिया को बढ़ा रहे हैं। वैसे उत्तराखंड में हमेशा से ही वनीकरण की मुहिम पर सवाल उठाते रहे हैं।लेकिन अब जिस तरह से तकनीक का उपयोग करते हुए वनीकरण की मॉनिटरिंग का सिस्टम तैयार किया गया है। उसके बाद अब केवल कागजी वनीकरण की व्यवस्था को रोकने में कामयाबी मिली है। हालांकि इस पर अभी कुछ और
प्रयास होने बाकी हैं, ताकि राज्य में वनीकरण की खराब परफॉर्मेंस में सुधार किया जा सके।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।