जनिए “बेडू पाको बारमासा, ओ नरैणा, काफल पाको चैता, मेरी छैला…” गीत की मीनिंग

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जनिए “बेडू पाको बारमासा, ओ नरैणा, काफल पाको चैता, मेरी छैला…” गीत की मीनिंग

शीशपाल गुसाईं

“बेडू पाको बारमासा” एक प्रसिद्ध कुमाऊँनी लोकगीत है, जो उत्तराखंड की संस्कृति और प्रकृति की सुंदरता को दर्शाता है। यह गीत विशेष रूप से काफल (एक जंगली फल) और बेडू (एक पहाड़ी फल) के इर्द-गिर्द घूमता है, और इसमें प्रेम, प्रकृति, और जीवन की मिठास का भाव झलकता है। नीचे इस गीत के पूर्ण बोल दिए जा रहे हैं, जैसा कि इसे पारंपरिक रूप से गाया जाता है।

बेडू पाको बारमासा (पूर्ण गीत)

बेडू पाको बारमासा, ओ नरैणा,
काफल पाको चैता, मेरी छैला!
बेडू पाको बारमासा, ओ नरैणा,
काफल पाको चैता, मेरी छैला!

पहाड़ों की ऊँची चोटी, ओ नरैणा,
बैठी गाये कोयल, मेरी छैला!
पहाड़ों की ऊँची चोटी, ओ नरैणा,
बैठी गाये कोयल, मेरी छैला!

कोयल गाये मीठी बोली, ओ नरैणा,
सुनके मन ललचाये, मेरी छैला!
कोयल गाये मीठी बोली, ओ नरैणा,
सुनके मन ललचाये, मेरी छैला!

काफल पाको, बेडू पाको, ओ नरैणा,
मीठो लागे खाये, मेरी छैला!
काफल पाको, बेडू पाको, ओ नरैणा,
मीठो लागे खाये, मेरी छैला!

जंगल जाये काटूँ लकड़ी, ओ नरैणा,
संग लाये काफल, मेरी छैला!
जंगल जाये काटूँ लकड़ी, ओ नरैणा,
संग लाये काफल, मेरी छैला!

काफल खाये, मन रम जाये, ओ नरैणा,
प्यार तेरा याद आये, मेरी छैला!
काफल खाये, मन रम जाये, ओ नरैणा,
प्यार तेरा याद आये, मेरी छैला!

बेडू पाको बारमासा, ओ नरैणा,
काफल पाको चैता, मेरी छैला!
बेडू पाको बारमासा, ओ नरैणा,
काफल पाको चैता, मेरी छैला!

व्याख्या:

(बेडू पाको बारमासा: बेडू (पहाड़ी फल) साल भर पकता है, जो प्रकृति की निरंतरता को दर्शाता है। काफल पाको चैता: काफल चैत के महीने में पकता है, जो वसंत का प्रतीक है। ओ नरैणा, मेरी छैली : यह प्रेमी या प्रिय को संबोधित करने का एक प्यार भरा तरीका है, जो गीत को भावनात्मक बनाता है। गीत में पहाड़, कोयल की बोली, और जंगल का वर्णन उत्तराखंड के प्राकृतिक सौंदर्य को उजागर करता है। काफल और बेडू खाने की मिठास प्रेम और जीवन के आनंद से जोड़ी गई है। )

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उत्तराखंड का काफल: प्रकृति की मिठास, संस्कृति का गौरव

उत्तराखंड की हरी-भरी पहाड़ियों में, जहां बादल पेड़ों को चूमते हैं और ठंडी हवाएं गीत गुनगुनाती हैं, वहां काफल नाम का एक छोटा सा फल प्रकृति की गोद में खिलता है। काफल (Myrica esculenta) केवल एक फल नहीं, बल्कि उत्तराखंड की सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत का प्रतीक है। यह गर्मियों का मेहमान है, जो मई-जून में पककर लाल-बैंगनी रंग में चमकता है और पहाड़ी जीवन में खुशी की लहर ले आता है। काफल उत्तराखंड के लोगों के दिलों में बस्ता है। गर्मियों में जब जंगल काफल से लद जाते हैं, तो गांवों में उत्सव सा माहौल बन जाता है। बच्चे और महिलाएं गीत गाते हुए जंगलों में काफल तोड़ने निकलते हैं। यह सामुदायिक एकता का समय होता है, जहां कहानियां और हंसी-मजाक हवा में तैरते हैं। काफल से जुड़ा मशहूर कुमाऊंनी गीत “बेडू पाको बारो मासा, नरेण काफल पाको चैता” हर पहाड़ी की जुबान पर होता है। काफल की लोककथाएं भी दिल को छूती हैं। एक मार्मिक कहानी “काफल पाको मैं नि चाखो” में एक गरीब मां और बेटी की जिंदगी का दर्द बयां होता है, जो काफल बेचकर गुजारा करती थीं। यह कहानी न केवल भावनात्मक है, बल्कि पहाड़ी क्षेत्रों की आर्थिक और सामाजिक कठिनाइयों को भी दर्शाती है

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देहरादून में हरीश रावत की “काफल पाको चैता ” पार्टी: एक अनूठा उत्सव

उत्तराखंड की माटी से जुड़े, पहाड़ों की सांस्कृतिक धरोहर को अपने दिल में संजोए, पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने एक बार फिर अपनी सादगी और संस्कृति के प्रति प्रेम को दर्शाया। देहरादून में आयोजित “काफल पाको चैता “पार्टी न केवल एक उत्सव थी, बल्कि उत्तराखंड की पहचान, उसकी मिट्टी की महक और पहाड़ी जीवन की जीवंतता को जीवित रखने का एक अनूठा प्रयास था। यह आयोजन, जो ऑपरेशन सिंदूर की शानदार सफलता के उपलक्ष्य में रखा गया, न केवल एक सामाजिक समागम था, बल्कि एक भावनात्मक और सांस्कृतिक उत्साह का प्रतीक बन गया। इस पार्टी में सैकड़ों लोगों ने शिरकत की, काफल का स्वाद लिया, और हरीश रावत के नेतृत्व में उत्तराखंडी संस्कृति के प्रति अपने गर्व को व्यक्त किया। हरीश रावत का “काफल को बढ़ाओ” अभियान इस फल को केवल एक मौसमी स्वाद तक सीमित नहीं रखता, बल्कि इसे उत्तराखंड की आर्थिक और सांस्कृतिक समृद्धि का आधार बनाने की कोशिश करता है। यह तो एक ऐसा प्रयास है, जो स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का सपना देखता है। काफल के पेड़ों को बढ़ाना, इसके उत्पादन को प्रोत्साहित करना, और इसे बाजार तक पहुंचाना न केवल किसानों की आय बढ़ाएगा, बल्कि उत्तराखंड की पहचान को राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर ले जाएगा। देहरादून में आयोजित इस “काफल पाको चेता” पार्टी में काफल की इतनी प्रचुरता थी कि लोग इसे थैलों में भरकर अपने घर ले गए। यह दृश्य केवल एक उत्सव का हिस्सा नहीं था, बल्कि उस भावना को दर्शाता था जो हरीश रावत अपने अभियान के माध्यम से जगाना चाहते हैं—प्रकृति के उपहारों को अपनाना, स्थानीय संसाधनों का सम्मान करना, और समुदाय को एकजुट करना। काफल के रसीले दानों में छिपी थी वह मिठास, जो पहाड़ों की गोद में पलने वाले हर उत्तराखंडी के दिल को छूती है।

जय काफल! जय उत्तराखंड! जय हिंद!

संदर्भ :
ब्रजेंद्र लाल शाह की “मेरी लोकयात्रा”,मोहन उप्रेती के लोकगीत संकलन, मनोज इष्टवाल की “उत्तराखंड की लोक संस्कृति”, मथुरादत्त मठपाल की “कुमाऊँनी लोक साहित्य”, और बिक्रम सिंह भंडारी की “उत्तराखंड: संस्कृति और विरासत”

(“काफल पाको चैता” पार्टी की तस्वीर नीरजा ग्रीन्स की)

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