उत्तराखंड में समय से पहले खिले फ्योंली के फूल (Phyoli flowers)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के पहाड़ों में बसंत के आगमन का संदेश लाने वाले फ्यूंली/प्यूली के फूल अपनी खूबसूरती के लिए जाने जाते हैं। फ्यूंली की सुंदरता को लेकर आज भी पहाड़ों में खूब गीत गाए जाते हैं, लेकिन समय से पहले इस फूल का खिलना सभी के लिए चिंता का विषय भी बना हुआ है। पर्यावरणविद और विज्ञानियों का कहना है कि मौसम चक्र बिगड़ने के कारण कई फूल समय से पहले खिलने शुरू हो गए हैं, जो मानव जीवन के लिए अच्छा संकेत नहीं है। करीब 1800 मीटर की ऊंचाई तक पाए जाने वाले फ्यूंली के फूलों को वसंत पंचमी के मौके पर खासतौर पर उपयोग में लाया जाता है।
फ्यूंली के फूलों से ही वसंत पंचमी पर पूजन शुभ माना जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम रेनवासिया इंडिका है। यह फूल पीले रंग का होता है। जब यह फूल खिलता है तो इसकी खूबसूरती देखने लायक होती है और यह अलग से पहचान में आता है। छोटे से आकार वाले इस फूल में चार या पांच पंखुड़ियां होती हैं। इस फूल में किसी प्रकार की कोई खुशबू नहीं होती लेकिन इसके गाढ़े पीले रंग का उपयोग रंग बनाने में भी किया जाता है। पर्यावरण प्रेमियों की माने तो यह फूल प्राकृतिक सुंदरता के साथ ही कई औषधियों से भरपूर है। यह फूल कई बीमारियों में रामबाण का काम करता है। इसे बसंत ऋतु का प्रतीक माना जाता है। पहाड़ों में इस फूल को फूलदेई त्योहार में उपयोग किया जाता है। जिसमें बच्चे गांव के लोगों की देहली पर रहते हैं। हालांकि प्योली फूल को भगवान को नहीं चढ़ाया जाता है, क्योंकि इसकी ताजगी केवल कुछ समय के लिए होती है।
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ऋतुराज वसंत के आगमन के साथ ही पहाड़ के जंगलों की रौनक निखरने लगी है। ऋतुराज के आगमन का संदेश देते फ्योंली के पीले फूल खिलखिलाने लगे हैं। चट्टानों पर खिलने वाली फ्योंली हर परिस्थिति में मुस्कुराने का संदेश भी देती है। इसके साथ ही जंगलों में बुरांस के सुर्ख फूल भी आभा बिखेरने को आतुर हैं। कुछेक स्थानों पर ये खिलने भी लगे हैं। बुरांस उत्तराखंड का राज्य पुष्प भी है। आने वाले दिनों में बुरांस के फूल यहां के बणों (जंगल) में अपनी लालिमा से हर किसी को आल्हादित कर देंगे। न सिर्फ फ्योंली व बुरांस, बल्कि अन्य प्रजातियों के फूल भी पहाड़ के जंगलों की आभा में चार चांद लगाएंगे। यही कारण है कि वसंत में पहाड़ में खिलने वाले फूलों को साहित्यकारों व गीतकारों ने अपनी रचनाओं में भरपूर स्थान दिया है।
जरूरत इस बात की है कि जंगलों की इस आभा को अक्षुण्ण रखा जाए। समय से पहले फूलों का खिलना भी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अच्छा नहीं है।अगर फूल समय से पहले खिल रहे हैं, तो वह अपना समय काल पूरा नहीं करते हैं।वह आगे कहते हैं कि प्योली अक्सर ठंड की समाप्ति और गर्मी की शुरुआत में ही खिलता है।वसंत पंचमी से पहाड़ पर मौसम बदलने लगता है, ठीक उसी समय प्योली खिलता है लेकिन इस बार दिसंबर में तापमान बढ़ने से प्योली समय से पहले ही खिल गया। फ्योंली पहाड़ में प्रेम और त्याग की सबसे सुन्दर प्रतीक मानी जाती है।
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पौराणिक लोककथाओं के अनुसार फ्योंली एक गरीब परिवार की बहुत सुंदर कन्या थी। एक बार गढ़ नरेश राजकुमार को जंगल में शिकार खेलते खेलते देर हो गई। रात को राजकुमार ने एक गाँव में शरण ली। उस गाँव में राजकुमार ने बहुत ही खूबसूरत फ्योंली को देखा और उसकी सुंदरता में मंत्रमुग्ध हो गया।राजकुमार ने फ्योंली के माता पिता से फ्योंली के साथ शादी करने का प्रस्ताव रख दिया। फ्योंली के माता पिता ख़ुशी ख़ुशी राजा के इस प्रस्ताव को मान गए।शादी के बाद फ्योंली राजमहल में आ तो गई, लेकिन गाँव की रहने वाली फ्योंली को राजसी वैभव कारागृह लगने लगा था। हर घड़ी उसका मन अपने गाँव में लगा रहता था। राजमहल की चकाचौंध फ्योंली को असहज करने लगी। फ्योंली ने इस पर राजकुमार से अपने मायके जाने की इच्छा जताई। गाँव में फ्योंली पहुँच तो गई, लेकिन इससे पहले ही फ्योंली की तबियत बिगड़ने लगी और वह मरणासन्न स्थिति में पहुँच गई। बाद में राजकुमार ने गाँव आकर फ्योंली से उसकी अन्तिम इच्छा पूछी तो उसने कहा कि उसके मरने के बाद उसे गाँव की किसी मुंडेर की मिट्टी में ही दफना दिया जाए। इसके बाद फ्योंली को उसके मायके के पास दफना दिया गया। जिस स्थान पर उसे दफनाया गया था, वहीं कुछ दिनों बाद पीले रंग का एक सुंदर फूल खिला। इस फूल को फ्योंली नाम दे दिया गया।
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कुछ लोगों का मानना है कि उसकी याद में ही पहाड़ में फूलों का यह त्यौहार मनाया जाता है। शिक्षा और रोजगार के लिए पहाड़ों से दूर जाना
लोगों की मजबूरी बन चुकी है, जिसका नतीजा है कि अब पहाड़ धीरे-धीरे खाली होते जा रहे हैं। यहाँ के घर- गाँवो में सदियों से मनाए जाने वाले खुशियों और नव वर्ष के इस फुलारी/फूलदेई पर्व को भी पलायन ने अपनी चपेट में ले लिया है। पहाड़ के कई गाँवो में अब इस त्यौहार को मनाने के लिए बच्चे ही नहीं हैं क्योंकि इन गाँवो में केवल कुछ बुजुर्ग ही बाकी रह गए हैं, जो बस खंडहरों के प्रहरी की तरह अपने घरों की रखवाली करते नजर आते हैं। उम्मीद है कि यह सभ्यता सोशल मीडिया तक सिमटने से पहले एक बार फिर जरूर गुलज़ार होगी।
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बसंत का यह त्यौहार उत्साह और उम्मीद का प्रतीक है, शायद पहाड़ अपने बसंत के दूतों की चहचहाहट से फिर जरूर महकेगा। ग्लोबल वॉर्मिंग का असर समय-समय पर अलग-अलग चीजों पर दिखता रहता है। इस बार उत्तराखंड के एक फूल पर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर दिखा है। जनवरी के अंत और फरवरी की शुरुआत में खिलने वाली फ्योंली इस बार अभी से खिल गई है। वैज्ञानिकों ने कारण बताते हुए इस पर चिंता जताई है।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)