विकास की दौड़ में हाशिए पर आमजन
डा. राजेंद्र प्रसाद कुकसाल
राज्य बनने के बाद जब भी नई सरकार आई, आपको पिरुल से कोयला, पिरुल से ऊर्जा, सोलर एनर्जी, जैतून का तेल, लैमनग्रास का तेल, जिरेनियम का तेल, जैट्रोफा बायो डीजल, लैन्टाना कुटीर उद्योग, रामबांस रेशा विकास, भीमल रेशा, बांस विकास, भांग की खेती, चारा विकास, कुक्कुट पालन, ब्रायलर कुक्कुट उत्पादन, ईमू पालन, डेरी विकास, मत्स्य पालन, ट्राउट मछली पालन, अंगोरा विकास, मौन पालन, चाय बागान विकास, रेशम उत्पादन, मशरूम उत्पादन, फूलों की खेती, सेब मिशन योजना, जड़ी बूटी विकास, केसर की खेती, फूड प्रोसेसिंग यूनिटों की स्थापना, एग्रीबिजनैस ग्रोथ सेन्टर, चकबन्दी, जैविक खेती, पारम्परिक खेती, टिकाऊ विकास, निरंतर विकास, बायो डाइवर्सिटी, विविधीकरण, जीरो बजट खेती, संरक्षित खेती, हाइड्रो फोनिक (बिना मिट्टी के/पानी में खेती), टिशु कल्चर, बीज ग्राम, चारधाम यात्रा में जैविक प्रसाद वितरण योजना, अटल आदर्श ग्राम, चाल-खाल, रेनवाटर हार्वेस्टिंग, जल संरक्षण व जल संवर्धन, जैविक प्रदेश (बिना जैविक एक्ट के), आयुष प्रदेश, ऊर्जा प्रदेश, पर्यटन प्रदेश, आदि सुने-सुनाए शब्द सुनाई देंगे।
योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए ज्ञान प्राप्त करने हेतु-विदेश भ्रमण, प्रचार प्रसार-विज्ञापनों, पोस्टरों होर्डिंग व सड़कों के किनारे बने पिलरों पर लिख कर खूब प्रचार किया गया। लेमिनेटेड साहित्य भी खूब छपे। तीन व पांच सितारा होटलों में जागरूकता व विकास गोष्ठियों, क्रेता व विक्रेता मिलाप, प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण /लाभार्थियों का प्रशिक्षण, मेले व सम्मेलनों का आयोजन किया गया।
साथ ही योजनाओं के अनुसार विधिवत मशीनें व उपकरणों (जो बाद में सड़कों के किनारे या कमरों में जंक खाते हुए दिखाई देते हैं) तथा अन्य निवेशों की खरीद फरोख्त भी खूब हुई। योजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद भी गरीब आमजन, जिनके लिए योजनाएं बनाई गई हंै, अपने आप को विकास की दौड़ में वहीं खड़ा पाता है, जहां पहले था।
काल्पनिक/फर्जी आंकड़े दर्शा कर राज्य को कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय एवार्ड भी मिले हैं। साथ ही राज्य में अच्छे विकास कार्य करने पर फर्जी तरीके से कई गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) व उनका संचालन कर रहे महानुभावों को भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया है।
इन सबके बावजूद पहाड़ी क्षेत्रों में गांवों के विकास की स्थिति यह है कि सैकड़ों गांव उजड़ चुके हैं और कई उजडऩे के कगार पर हैं। बहुत से गांवों में गिनती के ही लोग रह रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन के कई कारण हैं, किंतु क्षेत्र के लोगों के आर्थिक विकास/पलायन रोकने के लिए बनी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार भी पलायन का एक मुख्य कारण है।
विभागों द्वारा विकास के नाम पर जिला योजना, राज्य सेक्टर की योजना, केंद्र पोषित योजना, वाह्य सहायतित योजनाओं में लाखों करोड़ों रुपए का बजट प्रति वर्ष विकास योजनाओं पर खर्च किया जा रहा है। आम जनता का विकास तो नहीं दिखाई देता। हां कर्मचारियों, अधिकारियों, सप्लायरों (दलालों) व गैर सरकारी संगठनों के संस्थापकों/संचालकों का खूब आर्थिक विकास हुआ।
जब तक योजनाओं में धनराशि आवंटित होती रहती है, तब तक योजनाओं का काफी शोरगुल दिखाई/सुनाई देता है, योजना बंद होते ही बाद में योजनाओं में क्रय की गई मशीनों के अवशेष व योजना के बोर्ड ही दिखाई देते हैं।
राज्य बनने पर आस जगी थी कि विकास योजनाएं राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार बनेंगी तथा ईमानदारी से इनका क्रियान्वयन होगा, किंतु दुर्भाग्य से राज्य को दक्ष व अनुभवी नेतृत्व न मिल पाने के कारण जिसका प्रशासकों ने पूरा लाभ उठाया, योजनाएं वैसे ही चल रही हैं, जैसे उत्तर प्रदेश के समय में चल रही थी। राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार योजनाओं में सुधार नहीं हुआ।
योजनाओं में कमी नहीं है, कमी है ईमानदारी से योजनाओं में सुधार कर क्रियान्वयन की। सरकारें नई आती है किंतु उत्तराखंड के बुद्धिजीवी सलाहकार पुराने ही होते हैं। कोई भी सरकार आए, बुद्धिजीवी अपनी जगह नई सरकार में बना ही लेते हैं तथा इन बुद्धिजीवियों की सोच यहीं तक है। ये बुद्धिजीवी अपने विषय को छोड़कर अन्य सभी विषयों की जानकारी सरकार को देते हैं। यदि इन बुद्धिजीवियों का पुराना इतिहास याने पढ़ाई-लिखाई टटोली जाए तो आप पाएंगे कि जिस विषय पर ये सरकार को सलाह देते हैं, वह इनका पढ़ाई-लिखाई का विषय था ही नहीं।
विभाग योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कार्य योजना तैयार करता है। कार्य योजना में उन्हीं मदों में अधिक धनराशि रखी जाती है, जिसमें आसानी से संगठित/संस्थागत भ्रष्टाचार किया जा सके या कहें डाका डाला जा सके।
यदि विभाग को/शासन को सीधे कोई सुझाव या शिकायत भेजी जाती है तो कोई जवाब नहीं मिलता। प्रधानमंत्री/ मुख्यमंत्री के समाधान पोर्टल पर सुझाव शिकायत अपलोड करने पर शिकायत शासन से संबंधित विभाग के निदेशक को जाती है।
वहां से जिला स्तरीय अधिकारियों को तथा बाद में फील्ड स्टाफ को। विभागों से जवाब मिलता है कि कहीं से कोई लिखित शिकायत कार्यालय में दर्ज नहीं है। सभी योजनाएं पारदर्शी ढंग से चल रही हैं।
उच्च स्तर पर योजनाओं का मूल्यांकन सिर्फ इस आधार पर होता है कि विभाग को कितना बजट आवंटित हुआ और अब तक कितना खर्च हुआ। राज्य में कोई ऐसा सक्षम और ईमानदार सिस्टम नहीं दिखाई देता, जो धरातल पर योजनाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन कर योजनाओं में सुधार ला सके।
योजनाओं में भ्रष्टाचार न पहले की सरकारों को दिखाई दिया और न ही भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस कहने वाली सरकार को। चल रही योजनाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन कर योजनाओं में राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार सुधार लाकर यदि पारदर्शी ढंग से क्रियान्वयन किया जाए तो आम जन तक योजनाओं का लाभ पहुंच सकता है, वरन विकास के लिए फिर से पांच साल बाद नई सरकार, इसी मृगतृष्णा में राज्यवासी जीते रहेंगे।