कभी दार्जिलिंग को टक्कर देती थी चौकोड़ी की चाय (Chaukodi's tea) - Mukhyadhara

कभी दार्जिलिंग को टक्कर देती थी चौकोड़ी की चाय (Chaukodi’s tea)

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कभी दार्जिलिंग को टक्कर देती थी चौकोड़ी की चाय (Chaukodi’s tea)

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

चौकोड़ी एक छोटा सा पहाड़ी नगर है, जो पिथौरागढ़ जिले की बेरीनाग तहसील में स्थित है। समुद्र तल से २०१० मीटर की ऊंचाई पर स्थित चौकोड़ी से नंदा देवी, नंदा कोट, और पंचचूली पर्वत श्रंखलाओं के सुन्दर दृश्य देखे जा सकते हैं उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के चौकोड़ी की चाय का स्वाद कभी सात समुंदर पार अंग्रेज भी लिया करते थे। अपनी अलग महक और स्वाद के कारण विदेशों में इसकी खासी मांग थी। यहां के चाय की खुश्बू दर्जीलिंग की चाय को भी टक्कर देती थी। लेकिन शासन-प्रशासन की उपेक्षा के चलते सारे चाय बागान उजड़ चुके हैं। चाय बागान कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो चुके हैं।

बेरीनाग और चौकोड़ी की जलवायु को देखते हुए अंग्रेजों ने 18वीं शताब्दी से यहां पर चाय के बागान विकसित करने के प्रयास किए। प्रथम चरण में अंग्रेजों ने चीन से चाय के पौधे मंगाकर संरक्षित किया। यहां की जलवायु के अनुसार चाय के पौधे विकसित होने लगे। इसकी महक तब लंदन तक पहुंची। वर्ष 1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसकी नीलामी की। हिल एक्टेंशन नामक एक अंग्रेज ने बेरीनाग स्थल को चाय उत्पादन के अनुरूप होने का प्रस्ताव ब्रिटिश सरकार के सम्मुख रखा और बेरीनाग की 200 एकड़ जमीन चाय बागान के लिए स्वीकृत हो गई।

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वर्ष 1964 में इस प्रस्ताव को अनुमोदित कर खितोली, सांगड़, बना, भट्टीगांव, ढनौली में भूमि चाय बागान के लिए आवंटित की गई। हिल एक्सटेंशन ने बेरीनाग और चौकोड़ी में चाय के बगान लगवाए। 20वीं सदी की शुरुआत में मेजर आर ब्लेयर ने बेरीनाग और चौकोड़ी टी स्टेट का चार्ज लिया। उस दौरान चाय का समुचित उत्पादन नहीं होने पर टी स्टेट जार्ज बिलियट ने खरीदा। बिलियम ने भी 1916 में इसे जिम कार्बेट को सौंप दिया। कार्बेट अपने घुमन्तू स्वभाव के चलते इसे अधिक समय तक नहीं चला सके और उन्होंने टी स्टेट मुरलीधर पंत को सौंप दी। पंत भी अधिक दिनों तक इसे नहीं चला सके। उन्होंने तत्कालीन कुमाऊं के सबसे बड़े उद्योगपति दान सिंह बिष्ट मालदार को बेच दी।

मालदार के हाथों में टी स्टेट आने के बाद यहां पर व्यापक उत्पादन होने लगा। बेरीनाग और चौकोड़ी में चाय के कारखाने लगे। यहां की चाय विदेशों में जाने लगी। मालदार परिवार के बाद के लोग इसका सही ढंग से रखरखाव नहीं कर सके। चाय बागान की भूमि बिकने लगी। चाय बागान उजड़ने लगे और चाय बागान कंक्रीट के जंगल में बदल गए और चाय फैक्टिरियां खंडहर में।उत्तराखंड सरकार प्रदेश में चाय उत्पादन की बात तो कहती है परंतु सरकार की चाय उत्पादन की सूची में बेरीनाग और चौकोड़ी नहीं है।

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अन्यत्र चाय बागान बनाने वाली सरकार यहां के चाय बागानों के संरक्षण के प्रति गंभीरता नहीं दिखा रही है। चौकोड़ी चाय का फ्लेवर विशेष था। यहां उत्पादित चाय इंग्लैंड जाती थी। दार्जिलिंग और आसाम की चाय से बेहतर स्वाद वाली यह चाय अंग्रेजों की मन पसंद चाय थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पीको फ्लावरी, विटोको स्पेशल, गोल्डन स्पेशल, पीको स्पेशल चाय के ब्रांड का उत्पादन यहां पर अंग्रेजों की पसंद के कारण किया जाने लगा। इसके लिए यहां पर मशीनें लगीं। क्षेत्र के लोगों को रोजगार मिला। कदाचित वह उत्तराखण्ड के प्रथम करोड़पति थे। दानसिंह मालदार कुमाऊँ के पहले महान व्यापारी कहे जा सकते हैं। मालदार परिवार के पास कोई डिग्री नहीं थी। पढ़ाई दर्जा चार पाँच तक भी नहीं थी पर ऐतिहासिक परिस्थितियों तथा अपना व्यापारिक बुद्धि से वे छा गए।

बेरीनाग ऐतिहासिक तौपर गंगोली क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। यहाँ तेरहवीं शताब्दी से पहले कत्यूरी राजवंश का शासन था। तेरहवीं शताब्दी के बाद यहाँ मनकोटी राजाओं का शासन स्थापित हो गया, जिनकी राजधानी मनकोट में थी। सोलहवीं शताब्दी में कुमाऊँ के राजा बालो कल्याण चन्द ने मनकोट पर आक्रमण कर गंगोली क्षेत्पर अधिकाकर लिया। इसके बाद यह क्षेत्र 1790 तक कुमाऊँ का हिस्सा रहा।1790 में गोरखाओं ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कब्ज़ा कर लिया, और फिर 1815 के गोरखा युद्ध में गोरखाओं की पराजय के बाद यहाँ अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया। अंग्रेजी शासन काल में यहाँ चाय के कई बागान स्थापित किये गए। लगभग दो सदियों तक, बेरीनाग और चौकोरी में कई हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बागान फैले हुए थे।

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1864 में, ये बागान थॉमस मैकिंस और एडवियरस स्लेनेगर स्टेपॉर्ड के थे, जो ब्रिटेन में पंजीकृत एक कंपनी थी। 1869 में ये ‘कुमाऊँ-अवध प्लांटेशन कंपनी’ के स्वामित्व में आये, और उसके बाद जेम्स जॉर्ज स्टीवेन्सन, ने एक पंजीकृत बिक्री पत्र द्वारा इन्हें खरीद लिया। 1919 में यह भूमि ठाकुर देव सिंह बिष्ट और चंचल सिंह बिष्ट ने खरीदी थी। 1964-65 में इस क्षेत्र में कुल 9.667  नाली 195.4 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बागान फैले हुए थे। 80-90 के दशकों में इन बागानों में चाय का उत्पादन समाप्त सा हो गया और फिर धीरे धीरे एक पूरे शहर ने यहां आकार ले लिया। मध्य हिमालय उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग मे अनेक उद्यान व बगान ऐतिहासिक धरोहर के रूप में सु-विख्यात रहे हैं।

अवलोकन कर ज्ञात होता है, उक्त उद्यान व बगानो की प्रायोगिक शुरुआत, अनुभव के आधार पर, ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा की गई थी।स्थापित उद्यान व बगानों ने, मध्य हिमालय उत्तराखंड की प्राकृतिक छटा को ही नही निखारा, उत्पादित फल, चाय इत्यादि के उत्पादन से ब्रिटिश हुक्मरानों ने अपनी इच्छित स्वाद पूर्ति के साथ-साथ, भरपूर धन लाभ अर्जित कर, ब्रिटिश साम्राज्य को आर्थिक समृद्धि भी प्रदान की थी। अस्तित्व की बाट जोह रहे, अन्य उद्यान व छोटे-मोटे बाग बगीचों की फेहरिस्त में देहरादून, रामनगर व हल्द्वानी स्थित लीची व आम के लजीज स्वाद के लिए मशहूर रही फल पट्टी भी भू व खनन माफियाओ की विनाशकारी नजरों से जुदा नही रहे हैं।

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बेरीनाग मे 300 एकड़ मे पहली चाय नर्सरी 1835 मे तथा देहरादून की बात करे तो, 1844 कौलागढ़ मे 400 एकड़ मे चाय बगान स्थापित किया गया था। असम के बाद वैश्विक फलक पर देहरादून के 1700 एकड़ मे उत्पादित चाय विख्यात थी। इनमे तीन लाख पौंड चाय उत्पादित होती थी। प्राप्त आंकड़ो के मुताबिक सन 1880 तक 10,937  एकड़ क्षेत्र मे कुल 63 चाय बागान, ब्रिटिश हुक्मरान मध्य हिमालय उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र मे स्थापित कर चुके थे। जिसमे 27 प्रमुख चाय बागान थे।

प्राप्त आंकडो के मुताबिक, सन 1897 मे मध्य हिमालय उत्तराखंड का चाय उत्पादन आंकड़ा 17,10,000 पाऊंड था। किसानों की आर्थिकी सुधारने और चाय बागानों को  पर्यटन से जोड़ने को टी-टूरिज्म को बढ़ावा देकर क्षेत्र में रोजगार के नए अवसर सृजित किए जाएंगे। लेखक उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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