"दीमक" बना पलायन (migration), 2026 तक और कम हो जाएंगी पहाड़ों पर विधानसभाओं की संख्या! - Mukhyadhara

“दीमक” बना पलायन (migration), 2026 तक और कम हो जाएंगी पहाड़ों पर विधानसभाओं की संख्या!

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“दीमक” बना पलायन (migration), 2026 तक और कम हो जाएंगी पहाड़ों पर विधानसभाओं की संख्या!

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखण्ड राज्य अपने प्राकृतिक सौंदर्य व वन्यजीवों के कारण विख्यात है। यहां के वन, अनेक पशु-पक्षी व जंगली जानवर इस राज्य को खूबसूरत, आकर्षण व प्रसिद्ध बनाते हैं। उत्तराखण्ड में कुल क्षेत्रफल (53,483 वर्ग किलोमीटर) का 71.05% (38,000वर्ग किलोमीटर ) भाग वन आरक्षित है। महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। उनका मंतव्य यही था कि गांवों के विकास को प्रमुखता प्रदान करते हुए उससे देश की उन्नति निर्धारित की जाए। इस दृष्टिकोण से देखें तो पलायन का दंश झेल रहे सीमांत प्रदेश उत्तराखंड के गांवों में कुछ कदम अवश्य बढ़ाए गए, लेकिन वहां की आत्मा यानी लोग थमे रहें, इसके लिए अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है।

उत्तराखंड सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है।पलायन के चलते कई जिले प्रतिनिधित्व के खतरे तक पहुंच गए हैं। राज्य में साल 2007 में परिसीमन आयोग की सिफारिश पर 6 विधानसभाएं पहाड़ी जिलों से कम हो गई थीं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अगर ऐसे ही पलायन चलता रहा तो साल 2026 तक पहाड़ की कई विधानसभा सीटें कम हो सकती हैं। पहले पहाड़ों तक विकास न पहुंचना पलायन की वजह बना और अब पलायन की वजह से विकास पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रहा है।

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पहाड़ों पर लगातार कम हो रही जनसंख्या के कारण सरकारी योजनाएं पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रही हैं,जिस कारण पहाड़ों पर विधानसभाओं की संख्या भी कम हो रही है, जिससे यहां बजट का कम होना भी लाजमी है। साल 2007 से पहले प्रदेश में पहाड़ी विधानसभाओं का प्रतिनिधित्व विधानसभा सदन में 40 था, लेकिन साल 2007 के बाद विधानसभा में पहाड़ से आने वाले विधायकों की संख्या घटकर 36 रह गई। परिसीमन आयोग ने पहाड़ पर कम हो रही जनसंख्या के आधार पर सीटों को कम करने की सिफारिश की थी, जिसकी उत्तराखंड के
विधायकों ने विरोध करने की हिम्मत तक नहीं जुटाई।

उत्तराखंड में पलायन के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार यहांकी सरकारें और राजनेता रहे हैं, परिसीमन के दौरान जहां नागालैंड असम अरुणाचल मणिपुर और झारखंड में इसका विरोध कर परिसीमन को नहीं होने दिया गया वहीं उत्तराखंड में राजनेता मौन रहे और इसका नतीजा यह हुआ कि पहाड़ी जिलों में परिसीमन के बाद सीटें कम हो गई। शर्मनाक बात यह है कि पौड़ी जैसे जिले में भी 2 सीटों का परिसीमन के कारण कम कर दिया गया यह वह जिला है जहां से अधिकतर मुख्यमंत्री हुए हैं यही नहीं मौजूदा मुख्यमंत्री समेत देश के कई शीर्ष पदों पर इसी जिले के लोग मौजूद हैं।

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पहाड़ी जिलों के लिए मुश्किल इस बात की है कि विधानसभा में कम होने से पहाड़ों का बजट भी कम हो रहा है और प्रतिनिधित्व भी कम हुआ है।जबकि पहाड़ों में विकास के लिए मैदानी जिलों के मुकाबले काफी ज्यादा बजट की जरूरत होती है। पलायन आयोग की रिपोर्ट से यह साफ है कि अभी पौड़ी और अल्मोड़ा जिले में बेहद तेजी से पलायन हो रहा है यही स्थिति राज्य के दूसरे जिलों की भी बनी हुई है ऐसे में यह तय है कि 2026 में यदि परिसीमन होता है तो पहाड़ की कई दूसरी सीटें भी कम हो जाएंगी। राज्य आंदोलनकारी बताते हैं कि यदि पहाड़ों की सीटें कम होती है तो अलग राज्य की अवधारणा ही खत्म हो जाएगी। पहाड़ों में पलायन की वजह से आबादी इसी तरह घटती रही तो 2026 के परिसीमन में और सीटें पहाड़ से कटकर मैदान में चली जाएंगी।

ऐसे में स्वाभाविक है कि राज्य विधानसभा में पहाड़ों का प्रतिनिधित्व ही कम रह जाएगा और इसका सीधा असर पहाड़ी क्षेत्रों, खासकर ग्रामीण इलाकों के विकास पर पर पड़ेगा। राज्य के कुछ अफसरों ने अपना नाम उजागर न किये जाने की शर्त पर बताया कि हरेक अफसर अपनी तैनाती देहरादून या मैदानी क्षेत्र में ही चाहता है। पौड़ी में अपनी सेवायें दे चुके एक सरकारी अफसर ने कहा, “चाहे वह सिविल में हो या पुलिस में। सबकी ख्वाहिश मैदानी क्षेत्र में ही रहकर काम करने की होती है ताकि उनके बच्चों को शिक्षा की बेहतर सुविधा मिल सके।” उत्तराखंड के लिए पलायन शब्द नया नहीं है, लेकिन राजनीतिक दल इस शब्द को हर 5 साल में नए रूप और नई कार्ययोजना के साथ जनता के सामने पेश जरूर कर देते हैं।

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साल 2017 में सरकार ने भी पलायन पर कुछ ऐसे ही वादे अपने दृष्टिपत्र में किए थे, जिससे सरकार फिलहाल कोसों दूर नजर आती है पहाड़ और मैदान की विभिन्न स्थितियों में तुलना करते हैं तो पहाड़ों में जहां मकान बनाने की लागत बारह सो रुपए प्रति फुट आती है। वही पहाड़ी क्षेत्र
में तीन हजार से चार हजार रुपये प्रति फुट आती हैं। मैदानी क्षेत्रों में 1 घंटे में 50 किलोमीटर दूरी तय होती है और पहाड़ में 20से25 किलोमीटर ही तय होती है। इको सेंसेटिव जोन केंद्रीय वन व जंतु संरक्षण कानूनों का मैदानी क्षेत्रों में वनों के अभाव में अधिकार असर नहीं है, जबकि पहाड़ों से बनाच्छादित होने के कारण सभी विकास योजनाएं प्रभावित हुई है। सबसे डरावनी स्थिति सन 2026 के परिसीमन की है जिस समय उत्तराखण्ड की 10 पर्वती जिलों की संख्या 56,21,796 तथा तीन मैदानी जिलों की जनसंख्या लगभग 97,00,000 लाख होने का अनुमान है।इं० रावत कहां कि कुछ राष्ट्रीय राजनीतिक दल वर्ष 2011 जिस प्रकार से गाहे-बगाहे उत्तराखंड से बिजनौर मुरादाबाद रामपुर सहारनपुर नजीमाबाद के क्षेत्रों को उत्तराखंड में मिलाने की वकालत करते रहे हैं, यदि यह षड्यंत्र सफल हुआ तो मैदानी आबादी में पचास लाखः की बृधि होगी और पहाड़ की जनसंख्या आधी रह जाएगी।

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सन 2008 में हुए विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन में मैदानी क्षेत्र से 34 व पर्वती क्षेत्र से 36 विधायक हैं।20 सालों के राज्य के संसाधनों के बंटवारे में राज्यों की असफलता नेतृत्व पर प्रसनचिन्ह है। 2017 में उत्तर प्रदेश की मंत्री ने परिसंपत्तियों के बंटवारे मे हेड और टेल दोनों अपने पास ही बताई थी। मूलभूत सुविधाओं रोजगार / स्वरोजगार शिक्षा चिकित्सा लघु /कुटीर उद्योग, क्षेत्र में पहाड़ों के साथ हुआ बहुत बड़ा अन्याय हुआ। राज्य परिकल्पनाओं का पलीता लगाता दिख रहा है। सन 2026 के परिसीमन से पहले दिन का क्षेत्रफल के फार्मूले को  लागू नहीं करवा सके तो यह राज्य परिकल्पनाओ और शहीदों के सपनों की कब्र का राज्य साबित होगा ,और पहाड़ सबसे पहले बर्वाद हो जायेगा और आम पहाड़ी अपना सब कुछ गवा बैठेगा।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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