जंगलों में लगी आग (forest fire) से महकमे की कार्यप्रणाली पर सवाल - Mukhyadhara

जंगलों में लगी आग (forest fire) से महकमे की कार्यप्रणाली पर सवाल

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जंगलों में लगी आग (forest fire) से महकमे की कार्यप्रणाली पर सवाल

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

भारतीय वन सर्वेक्षण से राज्य के जंगलों में आग की घटनाओं के दृष्टिगत मिलने वाले फायर अलर्ट में इस साल अधिक वृद्धि हुई है। इन अलर्ट के आधार पर वन विभाग अग्नि नियंत्रण में जुटता है।विभागीय आंकड़ों को देखें तो इस बार एक नवंबर 2023 से 23 अप्रैल 2024 तक भारतीय वन सर्वेक्षण से 11193 अलर्ट मिले। इससे पहले वर्ष 2023 में इसी अवधि में 3921 और वर्ष 2022 में 8333 फायर अलर्ट मिले थे। उत्तराखंड में हर साल बड़े पैमाने पर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं। इस बार भी सर्दियों के सीजन में कम बारिश और बर्फबारी होने के कारण जंगलों में पहले पर्याप्त नमी की कमी महसूस की जा रही थी और अब गर्मियों के सीजन में बढ़ता तापमान तो आग में घी का काम कर रहा है। चारों ओर जंगल धूं धूं करके जल रहे हैं।

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वन विभाग रोड हेड से लगे जंगलों में तो आग पर जैसे तैंसे काबू कर पा रहा है, लेकिन बाकि जंगल की आग उसके काबू से बाहर है। पूरे उत्तराखंड में अभी तक 544 फायर इंसीडेंट में 656 हेक्टेयर एरिया में जंगल आग की चपेट में आ चुके हैं। हालांकि, सरकारी रिपोर्ट को छोड़ दिया जाए, तो ये आंकडा दोगुने से भी ज्यादा बैठता है। अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वन विभाग गढ़वाल रीजन में जहां आग लगने की 211 घटनाएं बता रहा है, उसी रिपोर्ट में ये बात भी कह रहा है कि गढ़वाल में आग से एक भी पेड़ प्रभावित नहीं हुआ। दूसरी ओर कुमाऊं रीजन जंगलों की आग के हिसाब से एपिक सेंटर बना हुआ है। यहां अभी तक गढ़वाल की अपेक्षा कहीं ज्यादा 287 घटनाएं हो चुकी हैं। वन विभाग पूरे कुमाऊं रीजन में आग से महज एक पेड़ का नुकसान होना बता रहा है। नाम न छापने की शर्त पर फॉरेस्ट के रिटायर्ड अफसर कहते हैं ये बेहद आश्चर्यजनक है। उनका कहना था कि 544 फायर इंसीडेंट में कई हेक्टेयर जंगल चपेट में आ चुके होंगे। 656 हेक्टेयर जंगल प्रभावित होने की बात भी गले नहीं उतरती। ये आंकडा हजारों हेक्टेयर में जाएगा।

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बहरहाल, जंगल की आग से अभी तक एक वनकर्मी समेत दो लोग झुलस चुके है।उत्तराखंड में जंगल की आग से हर साल मानव क्षति भी होती रही है। 2014 से 2023 के बीच जंगल की आग के कारण 17 लोगों अपनी जान गंवा चुके हैं। जबकि इस दौरान 74 लोग घायल हुए। सबसे भीषण आग 2016 में लगी थी। तब आग लगने की 2074 घटनाओं में हजारों हेक्टेयर एरिया में जंगल आग की चपेट में आ गए थे। इस दौरान छह लोगों की मौत हुई तो 31 लोग घायल हो गए। यह वास्तव में हैरानी का विषय है कि फरवरी में वनों को आग से बचाने की तैयारी के बावजूद अप्रैल माह में तमाम जंगल धू-धू कर जल रहे हैं। जंगलों में लगी आग ने न महकमे की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि दो माह पूर्व ही महकमे द्वारा जंगलों को आग से बचाने के लिए फायर लाइन कटान के नाम पर लाखों रुपये पानी की तरह बहाने पर भी सवाल उठाए हैं। दो माह के भीतर ही फायर लाइन कटान कार्यों की पोल खुल गई। जंगलों में लगी आग दिन-प्रतिदिन विकराल हो रही है।

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वन कर्मी भी लगातार बढ़ रही आग की घटनाओं के आगे बेबस नजर आ रहे हैं। सभी की नजरें आसमान पर टिकी हैं। लेकिन, इंद्रदेव भी मेहरबान होते नजर नहीं आ रहे। दिन-प्रतिदिन आग की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में विकराल होती जंगलों की आग ने सरकार की चिंता और चुनौती, दोनों बढ़ा दी हैं। प्रदेश में इस वर्ष अभी तक वनों में आग की 477 घटनाएं हो चुकी हैं, जिसमें 570 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र झुलस चुका है। गत वर्ष इसी अवधि में वनों में आग की 278 घटनाओं में 357 हेक्टेयर जंगल
जला था। आंकड़ों से साफ है कि इस बार आग की घटनाएं अधिक हो रही हैं। आने वाले दिनों में जब तापमान और बढ़ेगा तो इनमें अधिक वृद्धि की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इस सबको देखते हुए सरकार ने भी जंगल की आग की रोकथाम पर ध्यान केंद्रित किया है।

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प्रमुख सचिव वन ने वन विभाग को इस दृष्टि से दूसरे राज्यों का अध्ययन करने को कहा है। प्रमुख सचिव के अनुसार देश के विभिन्न राज्यों में वनों को आग से बचाने को क्या रणनीति अपनाई गई है, कौन सी पहल बेहतर रही है, कहां समुदाय को इससे जोड़ा गया है, रेंजर से लेकर डीएफओ स्तर तक दायित्व का निर्वहन किस तरह का है, ऐसे तमाम बिंदुओं का अध्ययन करानेको कहा गया है।इसके आधार पर राज्य में जंगल की आग पर नियंत्रण के लिए दीर्घकालिक रणनीति तैयार कर इसे धरातल पर उतारा जाएगा। यही नहीं, विभाग को निर्देश दिए गए हैं कि कहीं भी जंगल में आग की सूचना मिलते ही इस पर नियंत्रण के लिए तत्काल कार्रवाई सुनिश्चित की जाए। इसमें कोताही सहन नहीं की जाएगी।
अग्नि नियंत्रण के लिए तात्कालिक कदम उठाने के साथ ही अन्य राज्यों की पहल का भी अध्ययन करा लिया जाए।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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