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लोगों की जिंदगी से खेल रहे नकली दवाओं (fake medicines) के सौदागर

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लोगों की जिंदगी से खेल रहे नकली दवाओं (fake medicines) के सौदागर

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड में नकली दवाओं के सौदागरों को नेटवर्क टूट नहीं रहा है। लगातार कार्रवाई के बाद भी ये लोग जनता की जान से खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे। तीन साल के दरम्यान 50 से ज्यादा लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज हुए हैं।मुनाफे के चक्कर में लोग किस तरह आमजन के जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं, फैक्ट्री मालिक आरोपित पहले पशुओं का चारा तैयार करता था। पशुओं के चारे में अधिक मुनाफा न होने के चलते उसने नकली दवाइयों की फैक्ट्री शुरू कर दी। उसका भाई दवाइयों की कंपनी में काम करता है, तब से अब तक वह करीब डेढ़ करोड़ से अधिक की नकली दवाइयां बनाकर सप्लाई कर चुका है।

पशुओं का चारा सप्लाई करते हुए उसके पंजाब व हरियाणा के सप्लायरों से अच्छी पहचान हो गई थी, इसलिए उसने सप्लायरों से एंटीबायोटिक दवाइयों के ऑर्डर लेने शुरू कर दिए और चार महीने में ही वह बड़ा सप्लायर बन गया। आरोपित एक महीने में करीब 40 लाख रुपये की दवाइयां सप्लाई करता था। आरोपित ने फैक्ट्री में दो मशीनें लगाई थीं। इनमें एक मशीन में दवाइयों के प्रिंट तैयार हो रहे थे, जबकि दूसरी में कच्चे माल से दवाइयां तैयार की जा रही थीं।

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एसटीएफ पिछले करीब एक साल हरिद्वार जिले में छह नकली दवाइयों की फैक्ट्री पकड़ चुकी है। एसटीएफ की ओर से लगातार चल रही इस कार्रवाई के बाद ड्रग इंस्पेक्टर की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं। सरकार व फार्मा लॉबी के तर्क से मिलावटी दवा वह होती है जिसमें कोई बाहरी ज़हरीला नुकसानदायक तत्व घुस आया हो, जैसे कफ सीरप में डाइ एथिलीन ग्लाईकोल जिससे बच्चों की मृत्यु हो सकती है। यह धारा 27(ए) के अंतर्गत आता है। इसी तरह बिना लाइसेंस दवा बनाने या दवा पर जो लेबल है उसके बजाय कुछ और होने को नकली दवा माना जाता है। सरकार ने सफाई दी है कि इन पर सज़ा फिलहाल जारी रहेगी। सज़ा से छूट सिर्फ गैर नुकसानदायक मामलों में दी गई है।

स्वास्थ्य संबंधी जोखिम का मामला होने की वजह से सरकार व फार्मा लॉबी के इस उपरोक्त तर्क की गहन जांच पड़ताल ज़रूरी है। आखिर ये
एनएस्क्यू दवाएं क्या होती हैं? किसी दवा में घोषित से कम मात्रा में सक्रिय फार्मा तत्व का होना एनएस्क्यू का एक उदाहरण है। उदाहरण के तौर पर कोई मरीज़ गंभीर आहार नाल संक्रमण या सांस की नली में संक्रमण की वजह से अस्पताल में भर्ती है, ऐसे मामलों में अक्सर
सिपरोफ्लोक्सासिन नामक एंटी बायोटिक दवा दी जाती है। अगर इस दवा में घोषित डोज़ के 50% से कम सक्रिय एंटी बायोटिक तत्व हो तो यह एनएस्क्यू दवा की श्रेणी में आएगा। अगर सक्रिय तत्व 15 या 25% हो तब भी यह मामला एनएस्क्यू श्रेणी में ही आएगा। किंतु हम इसके परिणाम की कल्पना कर सकते हैं।

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गंभीर मामलों में कुछ समय तक पर्याप्त सक्रिय तत्व की कमी वाली दवा से मरीज़ की मृत्य हो सकती है। उसकी बीमारी अधिक गंभीर होने से उसे लंबे महंगे इलाज की ज़रूरत पड़ सकती है। फिर एंटी बायोटिक दवा की डोज़ का अधूरा कोर्स उसमें एंटी बायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधक क्षमता बना सकता है जो भविष्य में कई बीमारियों में घातक सिद्ध हो सकता है। क्या सरकार व फार्मा लॉबी की बात सही है कि
एनएस्क्यू दवा से शारीरिक हानि नहीं होती?दवाइयों की दुकानों की जांच करने की जिम्मेदारी ड्रग इंस्पेक्टर की होती है, लेकिन क्षेत्र में नकली दवाइयों की फैक्ट्री संचालित होने की सूचना ड्रग इंस्पेक्टर तक क्यों नहीं पहुंचती है, यह भी बड़ा सवाल है।

कानून लागू करने वाली एजेंसियों में सख़्त कानून को लागू करने की क्षमता नहीं है। ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के प्रावधानों के तहत,
दवाओं के उत्पादन, बिक्री और वितरण का रेगुलेशन मुख्य रूप से राज्यों की ज़िम्मेदारी है। केंद्र में ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ़ इंडिया (डीसीजीआई) की ज़िम्मेदारी लाइसेंस जारी करना, दवाओं की क्वालिटी सुनिश्चित करना, नई दवाओं को मंजूरी देना और क्लिनिकल ट्रायल (दवा के प्रभावों की जांच) को नियंत्रित करता है। डीसीजीआई, ड्रग टेक्निकल एडवाइज़री बोर्ड (डीटीएबी) और द ड्रग कंसलटेटिव कमेटी
(डीसीसी) की सलाह पर और सेंट्रल ड्रग्स स्टेंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन (सीडीएससीओ) के तहत काम करता है।

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इस विषय पर हेल्‍थचेक ने अक्‍टूबर, 2019 में डीसीजीआई से एक इंटरव्यू का अनुरोध किया और ईमेल के ज़रिये सवाल भेजे थे। अभी तक उनकी ओर से हमें कोई जवाब नहीं मिला है।राज्यों की ड्रग रेगुलेटरी अथोरिटी (एसडीआरए) का काम ड्रग रेगुलेशन है और ये संबंधित राज्य के स्वास्थ्य विभाग के तहत काम करते हैं। इसमें सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी ड्रग इंस्पेक्टर की होती है। जिनका काम दवा बनाने वालों के लिए बने रेगुलेशन और नीतियों को अमल करवाना होता है।

इस संबंध में सीएसआईआर के पूर्व महानिदेशक की कमेटी ने ड्रग रेगुलेशन में सुधार के लिए सिफ़ारिशें की है। कमेटी ने दवा बनाने वाली हर 50 इकाइयों और 200 खुदरा विक्रेताओं पर एक ड्रग इंस्पेक्टर रखने का सुझाव दिया था।रिपोर्ट में पाया गया है कि अधिकतर राज्यों में ड्रग इंस्पेक्टरों की संख्या पर्याप्त नहीं थी। उदाहरण के लिए गुजरात में ड्रग इंस्पेक्टरों की संख्या, अनुशंसित संख्या की आधी थी, महाराष्ट्र और पंजाब में इनकी संख्या की गई सिफारिश से एक-तिहाई थी। पूर्ववर्ती जम्मू और कश्मीर में 84 स्‍वीकृत पदों में 15% यानि कि 13 पद खाली थे। हिमाचल प्रदेश में 22 में से छह (27%) पद खाली थे। कर्नाटक में 28 में से 15 (53%) और त्रिपुरा में 23 में से छह (26%) पद खाली पाए गए। उत्तराखंड गठन के वक्त राज्य में 1500 मेडिकल स्टोर थे, जिनकी संख्या अब 15000 पहुंच गई है।

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इसे देखते हुए प्रदेश में 80 ड्रग इंस्पेक्टरों की जरूरत है, जबकि वर्तमान में सिर्फ चार ही कार्यरत हैं। हरिद्वार और रुड़की क्षेत्र में नकली दवाइयों का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है। पहले भी यहां कई बार कार्रवाई भी हो चुकी है, लेकिन न तो पुलिस और न ही ड्रग्स विभाग इस पर अकुंश लगा पा रहे हैं। इससे पहले भी एसटीएफ यहां पांच-छह बार कार्रवाई कर चुकी है, लेकिन इसके बावजूद नकली दवाइयों का कारोबार धड़ल्ले से जारी है। ये तो सिर्फ पुलिस कार्रवाई के आंकड़े हैं। इसकी असल जिम्मेदारी ड्रग विभाग की होती है।

ड्रग विभाग इस तरह की दवाओं के कारोबार की निगरानी करता है। लेकिन, ड्रग विभाग के पास लंबे समय से इंस्पेक्टरों की कमी बनी हुई है। मौजूदा समय में ड्रग विभाग के पास 40 इंस्पेक्टर होने चाहिए। मगर, केवल नौ इंस्पेक्टरों से ही काम चलाया जा रहा है। अब विभाग की
यह इतनी सी फौज न तो निगरानी कर पा रही है और न ही कार्रवाई। नतीजा प्रदेश में नकली दवाओं का धंधा फल फूल रहा है।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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