उत्तराखंड के पहले विक्टोरिया क्रॉस विजेता, जिन्होंने देखा था कर्णप्रयाग तक रेल पहुंचाने का सपना - Mukhyadhara

उत्तराखंड के पहले विक्टोरिया क्रॉस विजेता, जिन्होंने देखा था कर्णप्रयाग तक रेल पहुंचाने का सपना

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उत्तराखंड के पहले विक्टोरिया क्रॉस विजेता, जिन्होंने देखा था कर्णप्रयाग तक रेल पहुंचाने का सपना

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखण्ड पहला राज्य है जिसकी गढ़वाल राइफल्स और कुमाऊं रेजिमेंट भारत की थल सेना की ताकत बढ़ाती हैं। विशुद्ध गढ़वालियों की ‘गढ़वाल राइफल्स’ की 22 रेगुलर बटालियनों के अलावा 2 इको टास्क फोर्स, 1 गढ़वाल स्काउट, और तीन राष्ट्रीय राइफल्स की बटालियनें हैं। इसी तरह 1947 में कबायली हमले को नाकाम कर जम्मू-कश्मीर को बचाने वाली कुमाऊं रेजिमेंट की भी 21 बटालियनें, 2 टेरिटोरियल आर्मी,
1 कुमाऊं स्काउट और 3 अन्य विशेष बटालियनें हैं। नगा रेजिमेंट का मुख्यालय भी रानीखेत में ही है जिसमें बड़ी संख्या में गढ़वाली, कुमाऊनी और भारतीय गोरखा सैनिक शामिल हैं।

सेना के तीनों अंगों में उत्तराखण्ड के सैनिक हैं और देश की असम राइफल्स समेत सेना की ऐसी कोई पैरा मिलिट्री फोर्स नहीं जिसमें उत्तराखण्ड के सैनिक बहुतायत में न हों। अब तक उत्तराखण्ड देश को 2 थल सेनाध्यक्ष और एक नौसेनाध्यक्ष दे चुका है। तीनों सेनाओं में दूसरी और तीसरी पंक्ति के सैन्य नेतृत्व में भी उत्तराखण्ड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान आर पंजाब के जाबाजों की बहुतायत है। इसलिये इन राज्यों में सैन्य जज्बा जगाने के बजाय गुजरात में सेना के प्रति आकर्षण पैदा किये जाने की जरूरत है ताकि राष्ट्रीय सुरक्षा में हर क्षेत्र का योगदान सुनिश्चित करने के साथ ही देश की सुरक्षा और मजबूत की जा सके। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में गुजरात के नगण्य योगदान के बारे में रक्षा विश्लेषक आकार पटेल ने आउटलुक पत्रिका के 13 मई 2017 के अंक में लिखा है कि देश की सेना में गुजरात से अधिक विदेशी नेपाल का अधिक योगदान है। पटेल के अनुसार वर्ष 2009 में विशेष जनजागरण अभियान के बाद गुजरात के सर्वाधिक 719 युवा तीनों सेनाओं में सैनिक के तौर पर भर्ती हुये जो कि देश के 10बड़े राज्यों में लगभग नगण्य है।

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गुजरातियों में भी सेना में भर्ती होने वालों में जडेजा और सोलंकी जैसी मार्शल क्षत्रिय जातियों के युवा शामिल हैं।व्यावसायिक संस्कारों के कारण गुजरात में बड़े-बड़े व्यवसायी एवं उद्योगपति हुये।आन, बान और शान के लिये मर मिटने की परम्परा न होने के कारण रक्षा के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में गुजरातियों का उल्लेखनीय योगदान रहा। यहीं मोहन दास कर्मचन्द गांधी, सरदार पटेल, मोहम्मद जिन्ना और नरेन्द्र मोदी जैसे असाधारण राजनेता भी हुये मगर गुजरात ने उत्तराखण्ड, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों की तरह पराक्रमी जनरल या परमवीर सैनिक नहीं दिये। लोकसभा में 21 मार्च 2018 को रक्षा राज्यमंत्री सुभाष भामरे द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार तीनों सशस्त्र सेनाओं में 52,000 सैनिकों की कमी है। भामरे के अनुसार थल सेना में 21,383 नौसेना में 16,384और वायु सेना में 15,010 सैनिकों की कमी है। थल सेना में उस तिथि तक 7,680 अधिकारियों की कमी है। यह कमी केवल जुबानी सेवा से पूरी नहीं हो सकती। सैनिकों और सैन्य साजोसामान की कमी से देश सशक्त नहीं हो सकता।जनरल बीसी खण्डूड़ी की अध्यक्षता वाली रक्षा सम्बन्धी संसदीय समिति ने इस कमी को उजागर किया तो खण्डूड़ी को अध्यक्ष पद से हाथ धोना पड़ा। अगर लोग इसी तरह सेना से दूरी बनाये रखेंगे तो घुस कर मारने और आतंकियों को चुन-चुन कर मारने की बात बेमानी है।

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हैरानी का विषय यह है कि पिछले पांच सालों में उत्तराखण्ड के युवाओं में भी सेना के प्रति आकर्षण कम हो रहा है। वर्ष 2014 तक जहां भारतीय सैन्य अकादमी से उत्तराखण्ड के 69 तक युवा हर 6 महीने में पास आउट होते थे और हरियाणा तथा उत्तराखण्ड में सैन्य अधिकारी देने की प्रतिस्पर्धा लगी रहती थी वहीं अब यह संख्या गिर कर 25 से 30 के बीच आ गयी है। देश को मजबूत बनाने के लिये “लिप सर्विस”  से काम नहीं चलेगा। इसलिये जरूरी है कि सेना में हर वर्ग की और हर प्रदेश की भागीदारी सुनिश्चित करने के साथ ही आवश्यक सैन्य सेवा का प्रावधान करने पर भी विचार किया जाय।उत्तराखण्ड की कुमाऊं रेजिमेंट ने तो स्वतंत्र भारत का पहला परम वीरचक्र तथा गढ़वाल राइफल्स के
दरबान सिंह नेगी और गबर सिंह नेगी ने प्रथम विश्व युद्ध में 1914 और 1915 में दो विक्टोरिया क्रास जीते थे। उनमें से दरबान सिंह नेगी पहले भारतीय थे जिन्हें ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा बहादुरी का पुरस्कार विक्टोरिया क्रास मिला था। हालांकि उस समय दूसरे विजेता खुदाबन्द खान भी भारतीय थे जो बाद में पाकिस्तानी नागरिक बने।

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देश की रक्षा के लिये गुजरात से किसी सैनिक की कभी शहादत हुयी हो, ऐसा भी सुनने को नहीं मिला है, जबकि कारगिल युद्ध के दौरान सर्वोच्च बलिदान देने वाले 527 शहीदों में से 75 शहीद उत्तराखण्ड के थे। उस समय उत्तराखण्ड की जनसंख्या मात्र 84 लाख से भी कम थी।ब्रिटेन के सबसे बड़े सैनिक सम्मान विक्टोरिया क्रॉस विजेता दरबान सिंह नेगी का जन्म 4 मार्च 1881 को हुआ था और वे उन पहले भारतीयों में से थे जिन्हें ब्रिटिश राज का सबसे बड़ा युद्ध पुरस्कार मिला था। वे करीब 33 साल के थे जब 39वीं गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन में नायक के पद पर तैनात थे। उन्हें 4 दिसम्बर 1914को विक्टोरिया क्रॉस पुरस्कार प्रदान किया गया। दरबान सिंह और उनकी टुकड़ी को ब्रिटिश सरकार की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस के फेसटुबर्ट शहर में भेजा गया था जहां उन्होंने अपना युद्ध कौशल दिखाया था।

प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस के फेस्टबर्ट शहर में उनकी टुकड़ी ने दुश्मनों पर धावा बोला था। युद्ध में दोनों तरफ से भयंकर गोलीबारी हुई इनकी टुकड़ी के कई साथी घायल और शहीद हो गये। इन्होंने खुद कमान अपने हाथ में लेते हुए दुश्मनों पर धावा बोल दिया। दरबान सिंह के सर में दो जगह घाव हुए और कन्धे पर भी चोट आई, परन्तु घावों की परवाह न करते हुए अदम्य साहस का परिचय देते हुए आमने-सामने की नजदीकी लड़ाई में गोलियों और बमों की परवाह ना करते हुए दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए। दरबान सिंह नेगी सूबेदार के पद से सेवा निवृत्त हुए थे। विक्टोरिया क्रॉस ग्रहण करने के समय इनसे अपने लिए कुछ मांगने को कहा गया था तो इन्होंने कर्णप्रयाग तक रेलवे लाइन बनाने की मांग की थी। दरबान सिंह नेगी की मांग को मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने 1924 में ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन का सर्वे कार्य पूरा करा लिया था।

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उत्तराखंड में इन दिनों केन्द्र सरकार द्वारा महत्वकांशी रेलवे परियोजना का काम चल रहा है, जिसके तहत अब पहाड़ों में भी रेल दोड़ते हुए दिखेगी, ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक बनाई जा रही इस रेलवे परियोजना का काम बड़ी ही तीव्र गति से हो रहा है। लेकिन क्या आपको पता है कर्णप्रयाग तक रेल लाईन पहुॅचाने की सोच आज की नहीं बल्कि आज से 109 साल पुरानी है जब ब्रिटेन का सबसे बढ़ा सैनिक सम्मान विक्टोरिया क्रास पाने वाले पहले भारतीय में से एक उत्तराखंड के दरबान सिंह नेगी ने ब्रिटिष सरकार से कर्णप्रयाग तक रेल लाईन पहुंचाने की मांग की थी। आखिर कौन थे दरबान सिंह नेगी और क्यूं उन्होनें कर्णप्रयाग तक रेल लाईन पहुंचाने की मांग की थी चमोली जिले के रहने वाले दरबान सिंह नेगी 39 गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन में नायक के पद पर तैनात थे।

दरबान सिंह और उनकी टुकड़ी को ब्रिटिश सरकार की तरफ से प्रथम विश्व युद्ध में फ्रांस के फेसटुबर्ट शहर में भेजा गया। यहां उनकी टुकड़ी ने दुश्मनों पर धावा बोल दियायुद्ध में खूब गोली बारी हुई और दरबान सिंह नेगी की टुकड़ी के कई साथी घायल और शहीद हो गए। फिर भी उन्होनें खुद कमान अपने हाथ में लेते हुए दुश्मनों पर धावा बोल दिया। उनके सर में दो जगह घाव हुए और कन्धे पर भी चोट आई। परन्तु घावो की परवाह न करते हुए अदम्य साहस का परिचय देते हुए आमने सामने की नजदीकी लड़ाई में गोलियों और बमों की परवाह ना करते हुए दुश्मनों के छके छुड़ा दिए।

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( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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