देहरादून। महामारी से निपटने में हमारा हेल्थ सिस्टम अपने संसाधनों के बलबूते कितने दिन टिकता है पता नहीं, लेकिन मजदूर मुश्किल वक्त में परिवार सहित भूख-प्यासा सैकड़़ों किलोमीटर पैदल चलने की हिम्मत रखता है। आज सबको पता चल गया।
सरकार विदेशों में फंसे अपने नागरिकों को बचाने जा सकती है, किंतु प्रदेश सरकार दूसरे प्रदेशों में फंसे अपने लोगों को बचाने नहीं जा सकती।
यहां तक कि एक जिले का प्रशासन दूसरे जिले में भी नहीं। या फिर इन पैदल चलने वालों को नागरिक ही नहीं माना जाता।
जब हवाई अड्डे पर थर्मल स्क्रीनिंग के बाद विदेश से आए लोगों को देश में प्रवेश दिया जा सकता है तो देश के विभिन्न प्रान्तों में फंसे लोगों को उनके प्रदेशों में प्रवेश क्यों नहीं दिया जा सकता।
मजदूरों की इस मजबूरी पर तो कोरोना को भी तरस आ जाए, लेकिन सिस्टम को तरस नहीं आता। मजदूर तो केवल ऊंची इमारत, सड़क, हवाई अड्डे, अस्पताल बनाने के काम आते हैं। गिनती में तो वह केवल गरीबी नापने का पैमाना हैं।
देश को जब-जब नव निर्माण में जरूरत पड़ी मजदूरों ने अपना खून पसीना एक कर दिया। जब मजदूरों को जरूरत पड़ती है तब उनका साइकल रिक्शा ही काम आता है। जिस पर कभी-कभी वहा अपनों की लाश तक ढो लेते हैं।
माना कि लॉक डाउन है, जो जहां है वही रहे। हम तो रिक्शा में रहते हैं। फुटपाथों पर सोते हैं। रोज कमाते हैं रोज खाते हैं। आप कहते हैं घर से बाहर न निकले, आप अपने घर में ही सुरक्षित हैं। घर तो हमारा गांव में है सरकार और गांव यहां से बहुत दूर है सरकार।
कोई बात नहीं सरकार हम में से तो कई टीटी से छिपते-छिपाते, शौचालय के पास बैठ कर, लेटकर आए। ट्रेन के जनरल डिब्बे में लटकर आये। कोई हवाई जहाज से नहीं आया। लेकिन
साहब हम मजदूर काम की तलाश में देसभर में फैल जाते हैं।
एक मजदूर दूसरे मजदूर को बुलाता है अपने गांव से, गांव के आसपास से। शहरभर में काम करते हैं। फिर भी शहर हमारा न हुआ और हम शहर के न हुए। जैसा आज हुआ ऐसा होता रहा है हमारे साथ और फिर हम लौट पड़ते हैं अपने गांव। बिना कोई शिकायत दर्ज किए।
(साभार : सतेंद्र डंडरियाल)