आध्यात्मिक और शांति का केंद्र है नारायण आश्रम (Narayan Ashram)
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
नारायण आश्रम की स्थापना कर्नाटक हिमालय और देवभूमि दर्शन के लिए यहाँ आए नारायण स्वामी ने वर्ष 1936 में की थी। उत्तराखंड के कुमाऊं के सीमान्त जनपद मुख्यालय पिथौरागढ़ से लगभग 136 किलोमीटर उत्तर और तवाघाट से 14 किलोमीटर दूर स्थित है नारायण आश्रम यह आध्यात्मिक सह सामाजिक शैक्षिक केंद्र 2734 मीटर की ऊंचाई पर प्राकृतिक परिवेश के बीच स्थापित है। इसमें स्थानीय बच्चों के लिए एक स्कूल है और स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है। यहां एक पुस्तकालय, ध्यान कक्ष और समाधि स्थान भी है। बताया जाता है कि इस आश्रम को आध्यात्मिक-सहसामजिक शैक्षणिक केंद्र के रूप में विकसित किया गया।सर्दियों के मौसम में इस ऊपरी इलाके में बहुत ज्यादा हिमपात होता है। ऐसे में यह पूरी तरह बंद रहता है। मन सकते हैं कि ठीक बद्री केदार की तरह यहाँ भी भरी बर्फवारी होती है और आने जाने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। अमूमन बरसात के मौसम में भी रास्ते आमतौर पर बंद हो जाते हैं।
नारायण आश्रम धारचूला के कैलाश मानसरोवर यात्रा भारत-नेपाल सीमा के रस्ते में पड़ता है। नारायण आश्रम हिमालय की चोटी पर बना है इस प्राचीन आश्रम में योग ध्यान की कई गतिविधियों का संचालन किया जाता है। प्रकृति प्रेमियों और घूमने के शौकीनों और आध्यात्म से अनुराग रखने वालों के लिए इस उत्तराखंड के इस आश्रम में सब कुछ उपलब्ध है। हिमालयी राज्य उत्तराखंड में यूं तो कई पर्यटन स्थल हैं। पर पिथौरागढ़ का नारायण आश्रम विशेष आध्यात्मिक अनुभव देने वाला केंद्र मना जाता है। भले ही देश के दक्षिणी राज्य कर्नाटक से आए संत नारायण स्वामी ने नौ हजार फीट की ऊंचाई पर इस नारायण आश्रम की स्थापना की हो लेकिन वर्तमान में इस आश्रम का संचालन गुजरात का एक ट्रस्ट करता है, जिसमें स्थानीय लोग भी ट्रस्टी के रूप में शामिल हैं। इसका सञ्चालन गुजरात से ही होता है शायद यही वजह है कि नारायण आश्रम में गुजरात, महाराष्ट्र व कर्नाटक के सबसे अधिक पर्यटक आते हैं। पहले नारायण आश्रम तक पहुँचने के लिए कठिन रास्तों से गुजरना पड़ता था। अमूमन सड़क बंद ही रहती थी, लेकिन कोरोना काल में इस पर और अधिक बुरा असर पड़ा।
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लेकिन अब कुछ वक्त से इस इलाके को सुविधाजनक बनाने की दिशा में कुछ काम किये गए हैं। जिससे यहाँ कुछ हद तक सुगम हो गया है। अब प्रधान मंत्री मोदी के दौरे को देखते हुए कुछ सुविधाएं यहाँ युद्ध स्तर पर जुटाई गयी हैं, तो हालात में सुधार देखा जा रहा है। जिस तरह से राज्य शासन और प्रशसन यहाँ पहुँच कर प्रधानमंत्री के दौरे को देखते हुए मुस्तैदी दिखा रहा है, उससे इस क्षेत्र से लगे हुए ग्रामीण इलाकों में ख़ुशी का माहौल महसूस किया जा रहा है।ये मौसम नारायण आश्रम पहुँचने वाले यात्रियों और प्रकृति प्रेमियों, योग-ध्यान में रूचि रखने वालों के लिए बेहद मुफीद होता है अब कयास लगाए जा रहे हैं कि एक बार प्रधानमंत्री के आने के बाद इस इलाके में देश दुनिया से पहुँचने वाले यात्रियों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज हो सकती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में अपने मन की बात कार्यक्रम में धारचूला के रं समाज का जिक्र किया था।पीएम मोदी ने अपनी बोली और भाषा को बचाने के समाज के प्रयासों की भी जमकर तारीफ की थी। सन् 1935 में स्वामी जी श्री कैलाश-मानसरोवर की यात्रा से वापसी में गांग ग्राम में कुछ दिन रूके और ग्रामवासियों ने आपका स्वागत किया। ग्रामवासी आपके व्यक्तित्व और कीर्तन-भजन से बड़े प्रभावित हुए नित्य प्रति भक्तों की संख्या में वृद्धि होने लगी। स्व. मोहन नि सिंह गाल, स्व. नन्दराम गाल और स्व. कल्याण सिंह गाल आपके परम भक्तों में थे।तदुपरान्त आप गर्ब्यांग से चौदास पट्टी की ओर आए. पूज्य स्वामी जी के साथ पूजनीय रामानन्द और व्यास पट्टी के गर्ब्यांग की सन्यासिनी पूजनीया रूमा देवी भी थीं। इन दिनों सीमान्त क्षेत्र धारचूला-सिरखा में इसाई पादरी रहा करते थे और ईसू की जीवनी और उपदेश स्थानीय बोली रड़ में लिखकर, घर-घर प्रचार करते और धर्म परिवर्तन हेतु प्रेरित किया करते थे।
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ऐसी परिस्थिति में स्वामी जी सन्यासिनी रूमादेवी के साथ सोसा ग्राम के ह्यांकी महानुभावों से मिले और इस क्षेत्र के उत्थानार्थ एक आश्रम के स्थापना की बात कही। ग्रामवासी सहर्ष तैयार हो गए। उन दिनों क्षेत्रीय पटवारी स्व. खुशाल सिंह और स्व. विशाल सिंह ह्यांकी की अच्छी धाक थी। सोसा से लगभग ढाई किलोमीटर दूर, स्व. ईश्वरीदत्त पाण्डे, प्राइमरी शिक्षक के आग्रह पर, स्वामी जी लगभग 9000 फिट की ऊंचाई पर स्थित एक विशाल भूखण्ड (टीले) पर पहुंचते ही भाव-विभोर हो गए और उन्हें भाव-समाधि लग गई. यह विस्तृत टीला न जाने कब से अपने वक्षस्थल पर ऋषि-मुनियों की तपगाथा संजोये था। प्रकृति की अछूती सुषमा निहार कर पूज्य श्री का भाव-विभोर होना स्वाभाविक ही था।
आश्रम की स्थापना के मुख्य उद्देश्य थे – आध्यात्मिक, शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक उत्थान। भवन निर्माण का कार्य स्वामी जी स्वयं देखते थे और उन्हें इस कला की अच्छी जानकारी थी। मजदूरों का हिसाब-किताब और उनकी राशन व्यवस्था स्व. ईश्वरीदत्त पाण्डे करते थे जिन्होंने अपनी नौकरी छोड़कर आश्रम के निर्माण और व्यवस्था हेतु अपना जीवन अर्पित कर दिया। मंदिर भवन के निर्माण में लगभग साढ़े पांच वर्ष लगे। मंदिर कक्ष में लगभग दो-ढाई सौ लोग बैठ सकते हैं। फर्श में आकर्षक एवं मूल्यवान कश्मीरी कालीन बिछे हैं। अगस्त 1946 में, स्वामी जी द्वारा, उनकी परम भक्त स्व. शारदा बहन मुफतलाल द्वारा अर्पित नारायण भगवान की भव्य मूर्ति प्रतिष्ठित की गई।
प्रतिष्ठा समारोह में असंख्य जनों की भागीदारी रही। सभी के लिए ऐसा समारोह मनाये जाने का पहला अवसर था गुजरात और महाराष्ट्र से भी अनेक गण्यमान्य भक्त इस समारोह में उपस्थित हुए विधिवत पूजा सम्पन्न हुई। भजन-कीर्तन से मन्दिर कक्ष गुंजायमान हो उठा।भंडारे में सभी भक्तों ने प्रसाद ग्रहण कर आत्मा को तृप्त किया। मंदिर में विष्णु भगवान की मूर्ति के अतिरिक्त मां भगवती की मूर्ति, शालिग्राम, दक्षिणायन-शंख एवं मंगल-कलश भी स्थापित हैं। मनुभाई एम. संधबी के परिजनों द्वारा अर्पित रिफाइन्ड एल्युम्यूनियम की हनुमान, शंकर भगवान, मोदक प्रिय गणेश और लक्ष्मी की मूर्तियां भी मन्दिर-कक्ष में विराजमान हैं। एक अन्य भक्त द्वारा अर्पित जगन्नाथ, सुभद्राऔर बलभद्र की काष्ठ मूर्तियां भी सुशोभित हैं। रोहित चोपड़ा द्वारा अर्पित लड्डू-गोपाल (बाल-गोपाल) तथा मां महाकाली के बृहत चित्र भी यथा स्थान हैं। मंदिर भवन के पिछले भाग में स्थित पुस्तकालय में विभिन्न धार्मिक शास्त्रों की, कला और दर्शन- शास्त्र को तथा आंग्ल-साहित्य की अनेक पुस्तकें-ग्रन्थ हिन्दी और गुजराती में उपलब्ध हैं।
इस भवन के मध्य भाग में, धातु के मंदिर-नुमा मण्डप पर मां सरस्वती की मूर्ति स्थापित है। दिवालों पर ईसा मसीह, स्वामी रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानन्द जी की विशाल पेटिंग्स टंगी है। महात्मा गांधी की अस्थि भी एक शीशी में सुरक्षित है। पूज्य स्वामी जी तथा स्वामी तद्रूपानन्द के चित्र भी शोभायमान हैं। अन्नपूर्णालय के चौमंजिला भवन में स्वागतकक्ष, रसोई-घर और आगंतुकों के ठहरने की व्यवस्था की जाती है। स्वागत कक्ष में बड़े-बड़े कांचों का प्रयोग इस प्रकार किया गया है कि आप जाड़ों में वहां बैठकर धूप का आनन्द ले सकते हैं। इससे कुछ आगे चढ़कर च्च्शून्यता-कुटीरज्ज् है। वहां पहले एक पर्णकुटी थी और नारायण इसी में रहते थे। बिछाने के लिए पत्तियां और ओढ़ने के लिए मात्र एक सूती चादर। कुछ समय बाद इसी स्थान पर तख्तों की कुटी का निर्माण किया गया। इसकी ऊपरी मंजिल में ध्यान लगाने का एक छोटा कमरा है।
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1982 में इसी कुटी का जीर्णोद्धार किया गया च्च्स्मृति-कुटीर का निर्माण स्व. ईश्वरीदत्त पाण्डे जी की स्मृति में किया गया जो आश्रम के प्रथम व्यवस्थापक थे। सन् 1962 में चीनी आक्रमण से पूर्व आश्रम साधुसंतों से भरा रहता था। स्वामी जी बड़े ही भाव-मग्न होकर कीर्तन-भजन किया करते थे। दोनों हाथों में करताल ले, सुमधुर कंठ से लय- बद्ध भजन करते करते उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकलती और नारायण -नारायण पुकार उठते। कैलाश-मानसरोवर यात्रा तब खुली थी। स्वामी प्रत्येक साधु को कम्बल, गुड़ की भेली और एक सेर सत्तू दिया करते थे। लगभग प्रत्येक त्योहार में ग्रामीणजन आश्रम में आते और भजनकीर्तन कर अपने को धन्य करते थे। भंडारा होता और सब प्रसाद पाते थे।
स्वामी ने अपने भक्तों के साथ तेरह बार कैलाश-मानसरोवर यात्रा की थी। 1981 में इस यात्रा के पुनः खुलने पर सभी दलों के यात्रीगण आश्रम में पधारते हैं। मन्दिर में भजन कीर्तन होता है।यात्रियों को आश्रम के इतिहास, स्वामी जी के लाकोपहारी कार्यों, आश्रम की व्यवस्था एवं
गतिविधियों की जानकारी दी जाती है और आश्रम की ओर से उनका स्वागत किया जाता है। आश्रम द्वारा शंकर भगवान से यात्रियों की सफल यात्रा के लिए प्रार्थना की जाती है। यह परिपाटी चली आ रही है। अन्नपूर्णालय के प्रांगण में यात्रियों को चाय तथा हलवा, प्रसाद स्वरूप वितरित किया जाता है। पूज्य स्वामी जी ने शिक्षा के प्रचार प्रसार हेतु अनेक पाठशालायें खोली। अस्कोट और डीडीहाट के बीच कुछ ग्रामों को मिलाकर नारायण नगर की स्थापना की। आश्रम के एक विस्तृत क्षेत्र में सेब की विभिन्न प्रजातियों के वृक्षों का रोपड़ स्वामी जी द्वारा किया गया जो अब प्रचुर मात्रा में फल देते हैं। संतों की महिमा अपरम्पार है। उनके आशीर्वाद से लोग जन्म जन्मान्तर तक लाभान्वित होते हैं।
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स्वामी जी के समय में लगभग 70-80 अच्छे नस्ल की सिंधी गायें आश्रम में पलती थीं। स्वामी जी इन्हें बहुत प्यार करते थे। जो भी पूज्य श्री के सानिध्य में रहा, उसका आध्यात्मिक उत्थान ही हुआ। महाराज का कथन था कि दृढ़ संकल्प से ही कामनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इन्द्रियों को वश में कर ही मन पर काबू पाया जा सकता है. शुद्ध मन मित्र है और अशुद्ध मन शत्रु है। कर्म को पूजा मानकर किया करो फल प्रभु पर छोड़ दो और उनका सतत चिन्तः करो। कीर्तन-भजन को स्वामी जी प्रभु प्राप्ति का सरल एवं सहज साधन मानते थे। लक्ष्मीनारायण मन्दिर, पिथौरागढ़ के च्च्मौनीबाबाज्ज् कहा करते थे कि स्वामी जी को लक्ष्मी की सिद्धि प्राप्त थी।
9 नवम्बर 1956 को 44 वर्ष की आयु में पूज्य स्वामी जी चितरंजनदास अस्पताल, कलकत्ता में ब्रह्मलीन हो गए. स्वामी जी की अनुकम्पा से आश्रम के सभी कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न हो रहे हैं। आश्रम को पूजनीय तदरूपानन्द स्वामी जी का वरदान भी प्राप्त है। आश्रम की ओर से निर्धन विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है। रोगियों को औषधि दी जाती है। गो सेवा चालू है। कुछ पाठशालाओं में विद्यार्थियों को पाठ्य-पुस्तकें और कापियां निःशुल्क दी जाती हैं। मेहमानों के लिए आवास और भोजन की व्यवस्था की जाती है। भक्तजन स्वेच्छा से दान देकर स्वयं
को उपकृत करते हैं। उत्तराखंड में यूं तो कई पर्यटन स्थल हैं। पर पिथौरागढ़ का नारायण आश्रम उच्चकोटि का आध्यात्मिक अनुभव देने वाला केंद्र है।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )