टिहरी/घनसाली। बीस वर्ष के उत्तराखंड में आज तक पहाड़ी क्षेत्रों के काश्तकारों को सरकारें बाजार उपलब्ध नहीं करा पाई हैं। लेकिन कुछ स्वयं सेवी व सामाजिक सरकारों से जुड़े लोग लगातार काश्तकारों के हितों की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं पलायन रोकने को लेकर भी धरातल पर काम कर रहे हैं। ऐसा ही एक नाम है प्रकृति के पास। जिसका गठन वर्ष 2010 में किया गया, लेकिन इससे जुड़े लोग वर्ष 2005 से ही पहाड़वासियों के हक-हकूकों की लड़ाई लड़ रहे हैं। साथ ही उनकी आर्थिकी को संवारने का बीड़ा भी उठाया है। आइए उनसे आपको भी रूबरू करवाते हैं:-
प्रकृति के पास एनजीओ के अध्यक्ष बद्री प्रसाद अंथवाल बताते हैं कि प्रकृति के पास नामक एनजीओ का गठन वर्ष 2010 में किया गया था। जिसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों का सर्वांगीण विकास करना एकमात्र लक्ष्य रखा गया। वह लगातार पलायन रोकने के लिए 2005 प्रयास कर रहे हैं।
श्री अंथवाल कहते हैं कि पहाड़ से पलायन रोकने के लिए हम लोग वर्ष 2005 से लगातार प्रयास कर रहे हैं। इसी क्रम में मंज्याड़ी ग्राम में उपरोक्त विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियां एवं अन्य फसलों पर काम किया गया, जो कि ग्राम वासियों को रोजगार दिलाने में सहायक हो, उन विषयों पर ध्यान केंद्रित किया गया। पिछले 15 सालों में काफी मेहनत और कठिनाई के दौर से गुजरना पड़ा, जिसमें से कुछ लोगों ने तो उत्साहवर्धन किया और कुछ लोगों ने इसकी जगहंसाई किया और हमें हतोत्साहित भी किया।
जगहंसाई करने में कुछ भी आसान नहीं होता है। हर इंसान को पता है कि यह बड़ा कठिन है पर कुछ लोग ही कोशिश जारी रख पाते हैं। हमारा उद्देश्य स्पष्ट था कि हमें अपने लोगों को पलायन से बचाने के लिए उनको रोजगार का साधन उपलब्ध कराना होगा, तभी पलायन रुक सकता है।
हमारे नवनिर्मित प्रदेश जो कि अब 20 साल का हो गया है, में अभी तक दोनों ही राष्ट्रीय दलों की सरकारें बारी-बारी से राज करती आ रही हैं, पर इस ज्वलंत मुद्दे पर अभी भी बहुत काम बाकी है। जो भी काम हुआ, वह सिर्फ कागजों पर ही हुआ है, धरातल पर बहुत कुछ करना अभी भी बाकी है।
इन 15 सालों में हमने पाया कि हमारा ग्रामीण क्षेत्र का किसान मेहनत तो करता है, पर उसकी मेहनत को सबसे ज्यादा नुकसान जंगली जानवरों के द्वारा पहुंचाया जाता है और कुछ मौसम की बेरुखी भी किसानों को बर्बाद करने में कसर नहीं छोड़ती। मौसम तो प्रकृति की देन है, किंतु ग्रामीणों की फसल को जंगली जानवरों से बचाने की बहुत ही ज्यादा आवश्यकता है।
ऐसे हल होगी किसानों को बाजार दिलाने की समस्या
हमारे काश्तकारों को दूसरी बड़ी दिक्कत आती है, जब वे खेती करके अच्छी पैदावार तो कर लेते हैं, पर उनको उसका बाजार नहीं मिल पाता है। जिसके कारण उनको अपनी फसल बहुत ही कम दामों पर बेचने पड़ जाती है। इसके लिए हम राज्य सरकार से अनुरोध करते हैं कि सारी सुविधाएं देना भी सरकार समर्थ नहीं है और सारी सुविधाएं देना किसी निजी क्षेत्र के बस में भी नहीं है, क्यों न हम इस बार पीपीपी मोड में सरकार के साथ मिलकर काम करें। हमें इस काम को बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम लोगों को उत्साहित करना पड़ेगा कि वे लोग फसलों के उत्पादन करें और बिक्री की चिंता छोड़ दें। इस काम के लिए हमें पूरे प्रदेश में विकासखंड स्तर पर कलेक्शन सेंटर की व्यवस्था करनी पड़ेगी।
सुनैना अंथवाल बताती हैं कि हमारे कई किसान भाई, जो कि जो अत्यंत गरीब हैं और तंगहाली में अपने परिवारों का भरण पोषण कर रहे हैं। वे लोग बीज का इंतजाम नहीं कर सकते हैं, तो हम ऐसे लोगों को भी बीज उपलब्ध कराएंगे बाय बैक सिस्टम के अंतर्गत। अर्थात बीज का खर्च हम देंगे और जब उनकी फसल होगी, उस समय जब उनके आसपास जो भी उस फसल की बाजार कीमत होगी, उस पर हम उनसे खरीद लेंगे।
सुनैना अंथवाल कहती हैं कि सभी विकासखंडों से फसल को एकत्र कर उसका बाजार व मार्केटिंग हम अपने स्तर पर करेंगे। मेरे विचार से इस प्रकार की पहल से प्रदेश के काश्तकारों को रोजगार देने में मदद की जा सकती है, जिससे पलायन तो रुकेगा ही, हम प्रवासी भाई बहनों को वापस पहाड़ पर रिवर्स माइग्रेशन के लिए भी प्रेरित कर सकते हैं।
पहाड़ के काश्तकारों की आर्थिकी संवारने को लेकर ‘प्रकृति के पास’ ने उठाया है बीड़ा
ग्राम मंज्याड़ी, पट्टी नैलचामी, विकासखंड भिलंगना, टिहरी गढ़वाल मे किये गए कृषि कार्यो पर एक नजर
1. आकांक्षा हर्बल डेवलोपमेन्ट प्रा० लि० की स्थापना सन 2005 में की गई जिसमें शुरूआती दौर में बद्री प्रसाद अंथवाल तथा श्रीमति सुनैना अंथवाल निर्देशक के तौर पर नियुक्त किये गए।
2. सन 2005 से लेकर 2007 तक विभिन्न स्थानों पर हर्बल जड़ी बूटियों का अध्ययन किया गया एवं जानकारी प्राप्त की गई। जिसमें भेषज संघ मुनिकीरेती में तत्कालीन जिला भेषज संघ जिला टिहरी गढ़वाल के संयोजक श्री वर्मा जी एवं श्री शुक्ला जी ने काफी जानकारी उपलब्ध कराई एवं विभिन्न सुविधाओं के बारे में जानकारी उपलब्ध कराई गई एवं इसी बीच में HRDI सेलाकुई के तत्कालीन निर्देशक CEO सुन्द्रियाल और HRDI के मुख्य वैज्ञानिक नृपेंद्र चौहान जी से समय-समय पर संपर्क किया गया और उन लोगों नें भी हमारा मार्ग दर्शन किया।
इसी तरह 3 – 4 साल के (R&D) शोध एवं अनुसंधान के पश्चात इस नतीजे पर पहुंचे कि हमारे खाली होते हुए पहाड़ों में किस तरह से पलायन रोकने के लिए किन-किन फसलों का उत्पादन किया जा सकता है और फिर हम लोग इस नतीजे पर पहुंचे कि पहाड़ों पर जंगली जानवरों मुख्यतः बन्दर /लंगूर एवं जंगली सुअरों से नुक्सान पहुंचाने वाली फसलों के अलावा निम्न फसलों की खेती करने का विचार आया। जो कि आर्थिक रूप से रोजगार के सृजन में सहायक हो सकती हैं जो कि निम्न प्रकार से है –
1. लैमनग्रास, 2 . जिरेनियम, 3. पामारोसा, 4. आर्टिमिसिया, 5. हरड़ 6. पुदीना, 7. जापानी पुदीना, 8. गेंदा, 9. आर्टिमिसिया, 10. गुलाब, 11. तेजपत्ता, 12. तुलसी, 13. रोज मैरी, 14. बड़ी इलाइची, 15.अदरक, 16. हल्दी ।
3 . इसी क्रम में जब फसलों का चयन हो गया तो उनसे अवासायन तेल निकालने के लिए हर्बल डिस्टिलेशन प्लांट लगाने की व्यवस्था की गई जिसके लिए सड़क के नजदीक जमीन की जरुरत थी और उनके लिए शुरू में 6 नाली जमीन बाद में 6 . 50 नाली जमीन को क्रय किया गया। वहां पर डिस्टिलेशन प्लांट स्थापित किया गया जिसके द्वारा विभिन्न प्रकार के तेल निकालने की व्यवस्था की गई।
अप्रैल 2010 में जड़ी बूटियों की प्रजातियों के अलावा कुछ पारंपरिगत जंगली पेड़ की प्रजातियों का सिविल लैंड पर वृक्षारोपण किया गया जो कि प्राकृतिक तौर पर पानी को संचित करने के काम में आते हैं उनकी व्यवस्था की गई ताकि वृक्षारोपण का काम जून – जुलाई 2010 में किया जाए। जिसमें निम्न प्रजातियों के वृक्षों का वृक्षारोपण किया गया जिनको हमारी एक सहयोगी NGO “Trees For Himalayas” के सौजन्य से उपलब्ध कराया गया जो कि इस प्रकार से है –
1. बाँझ 2. काफल 3. कचनार गुरियाल 4. बहेड़ा 5. आंवला 6. सीसम 7. तेजपत्ता 8 . बांस 9. रिंगाल 10. तोण 11. रीठा 12. अखरोट 13. देवदार 14. अंगा
उपरोक्त प्रजातियों में से कुछ प्रजातियां ही बच पायीं बाकी किन्हीं कारणों से नहीं हो पायी।
बची हुई वाली प्रजातियां मुख्य रूप से – 1. तेजपत्ता, 2. बाँझ, 3 . बांस, 4 . आँवला, 5. रिंगाल, 6. रीठा हैं जो कि थोड़ा बहुत पनपने में सफल रहे और आज भी इनमें से कुछ प्रजातियां सही रूप से विकसित हो रही हैं।
इसी बीच में कंपनी को दो अनुभवी निर्देशक के रूप में मान्धाता सिंह, जिनका चाय बागान में 40 वर्षों का अनुभव था और विक्रम सिंह रजावत का साथ मिला जिनका कि वनस्पति विज्ञान में अनुभव था।
पहाड़ों में बैलों की कमी के कारण खेती के लिए (Hand Tiller) हाथ का ट्रैकर ख़रीदा गया।
इस प्रकार जून 2010 में मंज्याड़ी ग्राम एवं सांकरी सुरांश ग्राम की बंजर पड़ी खेती पर लैमन ग्रास एवं गुलाब लगाने का निर्णय लिया गया।
इसी क्रम में लैमनग्रास की व्यवस्था टिहरी जिला भेषज संघ के तत्कालीन सचिव श्री एस. के. वर्मा जी द्वारा उपलब्ध कराई गई।
गुलाब की दो प्रजातियां (हिमरोज एवं ज्वाला) को केंद्र सरकार के संस्थान Institute of Himalayan Bioresource Technology (हिमालयन जैव सम्पदा प्रौद्योगिकी संस्थान, पालमपुर, हिमाचल प्रदेश से 10 /- रु. प्रति पौध के हिसाब से 10,000 पौधों को क्रय किया और उत्तराखंड लाया गया।
इस प्रकार से समय-समय पर विभिन्न प्रयोगात्मक कार्यवाही चलती रही और निम्न प्रकार के औषधीय तेल का उत्पादन किया गया-
1. लैमनग्रास का तेल 2. गेंदा का तेल 3. पुदीना का तेल 4. तेज पत्ता का तेल।
इसके अलावा दो जंगली प्रजातियों लैंटाना एवं काला बांसा जो की मुख्य रूप से खेती वाली जमीन को सबसे ज्यादा नुक्सान पहुँचाने वाली प्रजाति हैं। इनका भी समय-समय पर तेल निकाला गया और HRDI (जो कि अब CAP) सेलाकुई को बेचा गया।
लेकिन वर्तमान में इन प्रजातियों के पौध मे से कुछ की तेल की मांग न रहने पर इनका उत्पादन बंद कर दिया गया। आज के समय में मुख्य रुप से लैमनग्रास तेल का उत्पादन किया जा रहा है जो कि इस समय 200 नाली में किया जा रहा है।
गुलाब के 10,000 पौधों का रोपण भी जून 2010 से अगस्त 2010 के बीच में किया गया, और हर साल इस से नर्सरी से छोटे पौधों को उत्पादित किया गया जो कि आज कुल 33,000 पौधों के रूप में हमारी फसल के तौर पर हैं , जिसमें से अब हम हर साल मांग के अनुसार 10,000 से 15,000 नई पौध का उत्पादन कर रहे हैं और उत्तराखंड के किसानों एवं CAP को समय-समय पर उपलब्ध करवा रहे हैं इस साल CAP द्वारा 5400 पौधे एक बार एवं 3500 पौधे दूसरी बार क्रय किये गए जो कि उत्तराखंड में विभिन्न जगहों पर रोपण हेतु भेजे गए।
1. लैमन ग्रास एवं गुलाब के अलावा पिछले कुछ वर्षों से हमने निम्न प्रजाति के कुछ और फसलों का उत्पादन शुरू किया है जो कि निम्न रूप से हैं-
1. पुदीना (Natural Mint) पहाड़ी पुदीना को जो कि कुदरती तौर पर नदी के किनारों में पाया जाता है उसको नर्सरी में विकसित किया गया और तत्पश्चात खेतों में फैलाया गया जो कि लगभग 25 – 30 नाली में हर साल लगाया जाता है।
2 . बड़ी इलायची (Big Cardamom)
बड़ी इलायची के पौधे 2010 में लाये गए थे और इनका साल दर साल विकसित करके नर्सरी के रूप में पहले 250 पौधे तैयार किये गए और आज लगभग 1000 पौधे विकसित कर दिए गए हैं।
3. तेजपत्ता – (Bay Leaf)
तेजपत्ता शुरू में तो वन विभाग Forest Dept. की विभिन्न नर्सरियों से खरीदा गया फिर अपनी नर्सरी में बीज द्वारा इनका उत्पादन किया जिसके फलस्वरूप आज हमारे पास 1500 से अधिक तेज पत्ते के पेड़ तैयार हैं।
4. कैमोमाईल (Chamomile)
कैमोमाईल का प्रयोग विभिन्न चीज़ों में किया जाता है। और इसका बीज CAP द्वारा उपलब्ध कराया गया जिसे हम हर साल 5 -10 नाली में उगा रहे हैं।
5. कण्डाली (Nettle)
कण्डाली मुख्यतः पहाड़ों में wild weed यानी जंगली प्रजातियों की होती है लेकिन इसके अंदर रोगों से लड़ने की अत्यधिक क्षमता है जिसका उपयोग विभिन्न तरह के रोगों के उन्मूलन के लिए किया जाता है इसका उपयोग भी ग्रीन टी के साथ किया जा रहा है।
6. तुलसी (Basil)
तुलसी का औषदिक उपयोग तो सभी लोगों को थोड़ा बहुत पता है और इसका उत्पादन भी हम 10 -15 नाली में करने जा रहे हैं।
विपणन (Marketing):- विपणन क्षेत्र में हम 5 – 6 साल से प्रयासरत है जिसके फलस्वरूप हमने दिल्ली और उसके आस पास इसकी मार्केटिंग विकसित की गयी। इस प्रकार से आज दिल्ली और उसके आस पास उपरोक्त उत्पादों का उत्तराखंड की ग्रीन टी के साथ अलग अलग मिश्रण प्रक्रिया द्वारा लगभग 30 उत्पादों का उत्पादन करके बिक्री हेतु उपलब्ध कराया जा रहा है जिसकी अच्छी मार्केटिंग है।
उपरोक्त कार्यों के विस्तार एवं रोजगार सृजन के लिए हमारे द्वारा किये गए कार्यों को एक सीमा तक ही किया जा सकता है।
बद्री प्रसाद अंथवाल और उनकी पूरी टीम ने उत्तराखंड सरकार से अनुरोध किया है कि पहाड़ों पर पलायन रोकने के लिए वहाँ सर्वप्रथम आय के सृजन की व्यवस्था हेतु आवश्यक कदम उठाये जाएँ। जिसमें हम सरकार के साथ PPP Model पर कार्य करने के लिए तैयार हैं।