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पं. नैन (Nain) विक्टोरिया स्वर्ण पदक से विभूषित होने वाले प्रथम भारतीय

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पं. नैन (Nain) विक्टोरिया स्वर्ण पदक से विभूषित होने वाले प्रथम भारतीय

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

नैन सिंह का जन्म 21अक्टूबर 1830 को हुआ था भटकुरा नाम के एक गांव में, जो भारत नेपाल सीमा से लगे उत्तराखंडके जिले पिथौरागढ़ की जोहार घाटी में पड़ता है। हालांकि उनका पैतृक गांव मिलम था, लेकिन उनके पिता ने दो शादियां की थी जिसके चलते उनके गांव वालों ने उन्हें निकाल दिया था। इस कारण उन्हें 27 साल का वनवास झेलना पड़ा और 1847 में वो अपने गांव लौट पाए। ये नैन सिंह की अच्छी किस्मत थी कि उनके पिता उन्हें मिलम ले आए क्योंकि मिलम उन दिनों कुमाऊं के सबसे बड़े गांवों में से एक था। इसके अलावा ये पश्चिमी तिब्बत को जाने वाले रास्ते पर पड़ता था। इसी कारण यहां एक बड़ा बाजार भी था। इस इलाके के लोग तिब्बत से ट्रेड करते थे। पहले ये इलाका गोरखाओं के
अधिपत्य में था। बाद में अंग्रेज़ों ने इस पर कब्ज़ा कर कर लिया। हालांकि अंग्रेज़ यहां के तौर तरीकों में ज्यादा दखल देने से बचते थे। इसलिए इस इलाके के लोगों से उनका अच्छा रिश्ता था।

19 वीं सदी की शुरुआत में जब अंग्रेज़ों ने भारत पर पकड़ मजबूत करनी शुरू की तो उन्होंने साथ साथ यहां का सर्वे भी शुरू किया। 1767 में सर्वे ऑफ़ इंडिया की स्थापना हुई। और 1802 में ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे की शुरआत हुई। जिसके तहत ब्रिटिशर्स ने माउंट एवेरेस्ट K2 कंचनजंगा की ऊंचाई नापी और पूरे भारत का एक स्केल्ड नक्शा बनाया। तिब्बत तब सिल्क रुट के रास्ते पर पड़ता था। और इस इलाके पर वर्चस्व को लेकर रूस और ब्रिटेन के बीच ग्रेट गेम की शुरुआत हो चुकी थी। 1850 के आसपास अंग्रेज़ों ने तिब्बत का सर्वे करने की ठानी  लेकिन यहां एक मुश्किल थी। तिब्बती लोग यूरोपियन लोगों को आने नहीं देते थे। यानी इस इलाके में कोई सर्वे होना नामुमकिन था। अंग्रेजों को लगा कि तिब्बत की जगह पर नक्शे में खाली जगह छोड़नी पड़ेगी।

सर्वे की जिम्मेदारी तत्कालीन सर्वेयर जनरल कैप्टन माउंटगुमरी के हाथ में थी। उन्होंने इस समस्या का एक हल निकाला। उन्होंने तिब्बत की सीमा से लगे क्षेत्रों में ऐसे लोगों की खोज करना शुरू किया जो दिखने में तिब्बती लोगों की तरह थे और वहां की भाषा बोल सकते थे। ऐसे में उन्होंने जोहार घाटी के लोगों को ट्रेनिंग के लिए रिक्रूट करना शुरू किया। 1864 में जब नैन सिंह को इस ट्रेनिंग का पता चला तब वो एक स्कूल में पढ़ाते थे। इससे पहले भी वो बतौर कुली जर्मन सर्वेयर्स के साथ रोहतांग पास की यात्रा कर चुके थे। इस यात्रा में नैन सिंह ने कम्पास, बैरोमीटर जैसे यंत्रों को चलाना सीख लिया था। और जर्मन सर्वेयर्स उनसे इतने प्रभावित हुए थे कि उन्हें लन्दन आने का निमंत्रण दिया था। हालांकि तब समंदर की यात्रा पार करना बुरा माना जाता था, इसी दर से उन्होंने लन्दन जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया। इसके बाद अल्मोड़ा के एक अंग्रेज़ अफसर ने उन्हें एक स्कूल में नौकरी दिलाई और वो वहीं पढ़ाने लगे। 1863 में उसी अंग्रेज़ अफसर ने उन्हें देहरादून जाकर सर्वे ऑफ इंडिया में दाखिला लेने का सुझाव दिया। यहां ट्रेनिंग लेने के बाद उन्हें तिब्बत के सर्वे की जिम्मेदारी दी गई।

1865 में नैन सिंह और उनके भाई मानी सिंह ने काठमांडू से अपनी यात्रा शुरू की और तिब्बत में दाखिल हुए। हालांकि तब तिब्बत में जाना खतरे से खाली नहीं था। इसलिए नैन सिंह एक लामा का भेष धरकर चलते थे। उन्हें तिब्बती भाषा आती थी। जिस माला का जिक्र हमने किया था वो भी इसी वेशभूषा का हिस्सा थी। उन दिनों तिब्बत यूरोपियन जासूसों को लेकर चौकन्ना रहता था इसलिए सर्वे के यंत्रो को नैन सिंह अपने कपड़ों में छुपाकर रखते थे। उनके साथ चाय पीने का एक कप रहता था। जिसमें असल में वो मर्करी को छुपाकर चलते थे। इसके अलावा उनकी डंडी में एक थर्मोमीटर बंधा रहता था। ऊंचाई का अंदाजा लगाने के लिए इस डंडी और पारे को बैरोमीटर की तरह इस्तेमाल में लिया जाता था। किसी को पता न चले, इसके लिए नैन सिंह अपनी छड़ी उबलते हुए पानी में डालते, और इस तरह उन्हें टेम्प्रेचर और प्रेशर का अंदाजा लग जाता। इसके अलावा उनके साथ एक गधा भी चलता था, जिसका अनाधिकारिक नाम ‘3 था। क्योंकि उसकी खाल के नीचे वो पैसा छुपाकर चलते थे।

इसके अलावा वो अपने साथ एक प्रार्थना चक्र लेकर घुमते थे। जिसमें ॐ मणि पद्मे हुम लिखा होता था। इस चक्र को बौद्ध भिक्षु अपने साथ लेकर चलते हैं और मानते हैं कि हर बार चक्र को घुमाने पर प्रार्थना निकलती है। इसी प्रार्थना चक्र के अंदर वो अपने सभी रीडिंग्स और रुट सर्वे का डेटा रखते थे। अपने जीवन काल में नैन सिंह ने 6 यात्राएं की. जिनकी कुल लम्बाई 42 हजार किलोमीटर थी। इन यात्राओं में उन्होंने लद्दाख से ल्हासा का नक्शा बनाया ल्हासा की ऊंचाई नापने वाले वो पहले व्यक्ति थे। इसके अलावा तारों की स्थिति देखकर उन्होंने ल्हासा के लैटीट्यूड और लोंगिट्यूड की भी गणना की। जो आज की आधुनिक मशीनों से की गई गणना के बहुत करीब है। सांगपो नदी के किनारे 800 किलोमीटर चलते हुए उन्होंने पता लगाया कि सांगपो और ब्रहमपुत्र एक ही हैं। नैन सिंह ने सतलज और सिन्धु के उद्गम भी खोजे। उनके आगे सर्वेयर्स की एक लम्बी परम्परा शुरू हुई जिसमें आगे जाकर उनके भाई किशन सिंह और कल्याण सिंह ने तिब्बत जाने के अलग-अलग रास्तों का पता लगाया।

अपनी दूसरी तिब्बत यात्रा के दौरान उन्होंने पश्चिमी तिब्बत में सोने की खदानों का पता लगाया। हालांकि उन्हें पता चला कि ये खुशखबरी नहीं महज खुशफहमी थी। अपने यात्रा वृतांतों में वो लिखते हैं कि इन खदानों में सोना चट्टान में गड़ा रहता था। और उसे निकालने के बाद धोने के लिए खूब सारे पानी की जरुरत पड़ती थी। पानी मिलता था एक मील दूर पानी की एक धारा से जहां से गधों में लादकर पानी लाना पड़ता था। जिसके चलते वहां के गधों के मालिक सोना निकालने वालों से ज्यादा अमीर हो गए थे। जोहार सर्वे में जाने वाले लोगों को तब अंग्रेज़ पंडित कहकर बुलाया करते थे। और नैन सिंह की कठिनतम यात्राओं के बाद उनका नाम पंडितों का पंडित रख दिया गया था। उनका एक नाम ओरिजिनल पंडित भी था।

सर्वे में उनके योगदान के चलते अंग्रेज़ तिब्बत का नक्शा बना पाए थे। इस एवज में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कम्पैनियन ऑफ आर्डर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर के टाइटल से नवाजा। रायल ज्योग्रेफिकल सोसाइटी द्वारा दिए जाने वाला पेट्रोन गोल्ड मैडल सर्वेक्षण के क्षेत्र में दिया जाने वाला सबसे ऊंचा सम्मान है. ये पाने वाले नैन सिंह इकलौते भारतीय हैं। साल 2004 में भारत सरकार ने उनके नाम से एक डाक टिकट जारी किया और 2017 में गूगल ने उनके जन्मदिन पर अपना डूडल उनको समर्पित किया था। मुनस्यारी में पर्वतारोहण संस्थान भी उनके नाम पर है। पं. नैन सिंह रावत के कृतित्व को भारत रत्न के हक़दार’है?

( लेखक  वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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