“एका” किसान आन्दोलन और आजादी की लड़ाई में वर्ग हितों की टकराहट का दस्तावेज - Mukhyadhara

“एका” किसान आन्दोलन और आजादी की लड़ाई में वर्ग हितों की टकराहट का दस्तावेज

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पुरुषोत्तम शर्मा

1920 से 1928 के बीच अवध के दो महान किसान नेताओं बाबा रामचंद्र और मदारी पासी के नेतृत्व में चले किसान संघर्षों के बारे में एक किताब को देखना और पढना मेरे जैसे कार्यकर्ताओं के लिए एक सुखद अनुभूति है. मैंने खुद अवध क्षेत्र के लखीमपुर खीरी में 1997 से 2001 तक किसानों के बीच और किसान संघर्षों में काम किया है. मैं आज खेती-किसानी, जमीन और किसान आंदोलन के बारे में जितना भी जानता हूँ, उसकी शुरुआत अवध की इसी माटी में काम करने के दौरान हुई. उस दौरान मैं जब उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के इतिहास को तलाश रहा था, तो अवध में बाबा रामचंद्र और मदारी पासी के संघर्ष और व्यक्तित्व मुझे प्रभावित करते थे. अब नवारुण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और राजीव कुमार पाल द्वारा लिखित “एका” नाम की पुस्तक हमें किसान आन्दोलन के उस इतिहास और उन बीर नायकों से परिचित करा रही है.

एका की कहानी उस दौर की है जब दूसरे विश्व युद्ध के बाद देश की आजादी की लड़ाई के साथ ही नीचे से मजदूरों, किसानों, ग्रामीण गरीबों, आदिवासियों के प्रतिरोध संघर्ष हर जगह खड़े हो रहे थे. आजादी की लड़ाई का नेतृत्व जहां राष्ट्रीय स्तर पर गांधी, नेहरू आदि के नेतृत्व में कांग्रेस कर रही थी, वहीं जमीनी स्तर पर उभर रहे मजदूर–किसानों के इस प्रतिरोध संघर्ष का नेतृत्व करने वाला न कोई राष्ट्रीय चेहरा दिख रहा था और न ही राष्ट्रीय स्तर पर कोई संगठन. पर देश भर में यह दोनों ही धारा लड़ाई के मैदान में दिख रही थी. दरअसल देश के लोगों के लिए आजादी के मतलब भी अलग–अलग थे. जहां कांग्रेस के नेतृत्व में इस देश के नए उभरते पूंजीपतियों, जोतदारों, जमींदारों और राजे रजवाड़ों का एक बड़ा हिस्सा विदेशी गुलामी से मुक्ति चाहता था और खुद देश का मालिक बनने का सपना देख रहा था, वहीं देश के करोड़ों मजदूरों, किसानों, भूमिहीनों और आदिवासियों के लिए आजादी का मतलब सिर्फ अंग्रेजों से ही आजादी नहीं, बल्कि इन जमींदारों, तअल्लुकदारों, राजे-रजवाड़ों के शोषण से भी मुक्ति था. देश की आजादी की पूरी लड़ाई में वर्ग हितों की यह टकराहट हमें हर जगह मिलती है.

लेखक ने एका की इस कहानी में भी आजादी की लड़ाई और उत्पीड़ित किसानों के प्रतिरोध संघर्ष के बीच की इस टकराहट को बखूबी चित्रित किया है. लड़ाई के इस दौर में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद, मोतीलाल नेहरू, मदन मोहन मालवीय, शौकत अली जैसे तमाम कद्दावर कांग्रेसी नेता आजादी की लड़ाई की आड़ में अवध के इस किसान आन्दोलन से किनारा काटते और जमींदारों का पक्ष लेते दिखते हैं. पुस्तक में 29 नवम्बर 1920 का जिक्र ख़ास कर है जब गांधी प्रतापगढ़ आए. पर उन्होंने न तो अपने भाषण में किसानों के आन्दोलन और मांगों का जिक्र किया और न ही किसान आन्दोलन के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं से मिले. जबकि तअल्लुकदारों-जमींदारों ने उस दौर में जमीनों से किसानों की बड़ी पैमाने पर बेदखली की थी. तअल्लुकदार द्वारा बेदखली से अपनी जमीन बचाने के लिए एक गरीब किसान गयाद्दीन दुबे द्वारा 500 रुपए में अपनी 13 साल की बेटी को एक पचपन साल के व्यक्ति को बेचने का मार्मिक जिक्र शोषण की इंतिहा को दरसाने के लिए काफी है.

दूसरी तरफ इस पुस्तक में गणेश शंकर विद्यार्थी, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राम प्रसाद बिस्मिल, शिव वर्मा, जयदेव कपूर जैसे क्रांतिकारी आंदोलनों के प्रतिनिधि भी हैं. वे जमीनी स्तर पर चल रहे इन प्रतिरोध संघर्षों को राष्ट्रीय स्तर पर क्रांतिकारी आन्दोलन की धारा के रूप में समन्वित करने के सचेत प्रयासों की शुरुआत करते दिखाई देते हैं. कामरेड शिव वर्मा और जयदेव कपूर का “आर्य क्रांति दल बनाना” और इस आन्दोलन के दूसरे नायक मदारी पासी से जीवंत संपर्क व उन्हें हथियार पहुंचाना इसके प्रमाण हैं. 1928 में “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” के गठन की चर्चा का उस आन्दोलन के लोगों के बीच होना और देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन पर  मदारी पासी की दिलचस्पी रखने का जिक्र भी पुस्तक में है.

इस पुस्तक में कलेक्टर मेहता साहब जैसे गरीब किसानों और आन्दोलनकारियों से सहानुभूति रखने वाले नौकरशाह हैं. तो किसान आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले अधिकारियों को हटाकर क्रूर अंग्रेज अधिकारियों की तैनाती की मांग करने वाले सिधौली के राजा रामपाल सिंह भी हैं. इस मांग के लिए जिन्होंने गवर्नर संयुक्त प्रान्त के यहाँ लखनऊ में धरना दिया. सिधौली के राजा रामपाल सिंह ब्रिटिश समर्थक जमींदारों-तअल्लुकदारों की “ब्रिटिश इंडिया एशोसियेशन” के अध्यक्ष थे.

किसानों के आन्दोलन से जमींदार-तअल्लुकदार कितने आतंकित रहते रहते थे पुस्तक में इसका जिक्र 1917 की एक घटना से मिलता है.  1917 में झींगुर सिंह और सहदेव सिंह ने “अवध किसान सभा” का गठन किया. यह बीरकोट रियासत की तअल्लुकदार ठकुराइन को नागवार लगा और उनके विश्वस्त कामता सिंह ने बीरकोट के किसानों के घरों में यह सोच कर आग लगवा दी ताकि फिर कोई किसान डर कर किसान सभा में न जाए. इसके बावजूद किसान सभा गाँव-गाँव में बढ़ती गई. 9 सितम्बर 1920 में बाबा रामचंद्र और उनके सहयोगियों की गिरफ्तारी के विरोध में हजारों किसानों ने प्रतापगढ़ जिला मुख्यालय को घेर दिया. किसान तीन दिन बाद अपने गिरफ्तार नेताओं को जेल से छुड़ाकर ही धरना ख़त्म किए. 1920 में ही किसान सभा की अयोध्या रैली हुई जिसमें एक लाख तक किसानों की भागीदारी और सभी मंदिर-मस्जिदों का बिना भेद-भाव के किसानों के लिए खुल जाना किसान आन्दोलन के व्यापक असर को दिखाता है.

पुस्तक बताती है कि अवध की धरती पर एक दशक तक किसानों के इस एका आन्दोलन के अगुआ रहे बाबा रामचंद्र खुद अवध के नहीं थे. वे मूल रूप से कभी सिंधिया परिवार की ग्वालियर स्टेट के अधीन रहे और फिर अंग्रेजों की रेजीडेंसी बने नीमच के पास जीरन गाँव के रहने वाले थे. वे ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे, पर सौतेली मां के अत्याचारों के कारण बचपन से ही मजदूरी करने लगे थे. उस समय फिजी के लिए अंग्रेज गिरमिटिया मजदूर के रूप में भारत से मजदूर भेज रहे थे. पर अंग्रेज ब्राह्मणों को गिरमिटिया मजदूर नहीं बनाते थे. गिरमिटिया मजदूर बनने के लिए ब्राह्मण श्रीधर बलवंत जोधपुरकर ने अपना नाम बदल कर रामचंद्र कर दिया और गिरमिटिया मजदूर बनकर फिजी में चले गए. फिजी में भारत की तरह जात-पात नहीं थी पर गिरमिटिया मजदूरों का भारी शोषण होता था. उन पर अत्याचार भी किए जाते थे. फिजी की सुआ की शुगर फैक्ट्री में 1326 मजदूर काम करते थे. उन पर 1600 अपराधिक मुकदमे दर्ज किए गए थे. कोई भी अंग्रेज वकील इन गिरमिटिया मजदूरों को कानूनी सहायता नहीं देता था. बाद में गांधी जी ने एड. मनीलाल और एड. एंड्रू को उन गिरमिटिया मजदूरों का केश लड़ने के लिए फिजी भेजा. मजदूर मुकदमों से बरी हुए और महात्मा गांधी की जय करते भारत लौटे. 1916 में रामचंद्र भी भारत लौटे इन्हीं गिरमिटिया मजदूरों से भरे एक जहाज में वतन लौटे और अवध में आकर बाबा रामचंद्र के नाम से लोकप्रिय हो गए.

वहीं इस आन्दोलन के दूसरे जुझारू नायक मदारी पासी अवध क्षेत्र के हरदोई जिले के इटोंजा मजरे के अन्तर्गत आने वाले मोहन खेड़ा गाँव के थे. वे दलित और गरीब पासी जाति से आते थे और अनपढ़ थे. पर मदारी पासी 20-30 भैसों के अलावा सूअर भी पालते थे. जिसके कारण इन्हें आर्थिक दिक्कतें कम ही थी. वे एक अच्छे पहलवान और अच्छे तीरंदाज थे. इस कारण दूर-दूर तक न सिर्फ अपनी जाति में बल्कि अन्य जातियों में भी उनकी चर्चा थी. अवध में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में किसान सभा के आन्दोलन  और तअल्लुकदारों-जमींदारों के शोषण के खिलाफ किसान सभा के संघर्ष की जानकारी मिलने के बाद मदारी पासी भी किसान सभा से जुड़ गए और गाँव-गाँव में किसानों की एका करने लगे.  मदारी पासी की संगठन क्षमता और लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी.

एका के लिए मदारी गाँव में कथा रखवाते थे और फिर किसानों से यह प्रतिज्ञा करवाते थे- जब भी बेदखल किए जाएंगे अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे. लगान रवि और खरीफ मौसम में ही देंगे. बिना रसीद लगान नहीं देंगे. तय लगान ही देंगे. बिना पैसा लिए कोई बेगार नहीं करेंगे. भूसा, हारी और कोई अहबाव मुफ्त में नहीं देंग, बिना पैसे दिए तालाब का पानी सिंचाई के लिए लेंगे, जंगल और परती जमीन पर अपने जानवर चरेंगे. जमींदार या कारिंदों के हाथ कोई ज्यादती या बेइजती नहीं सहेंगे. जमींदारों के जुल्म का विरोध करेंगे. किसी भी अपराधी को गाँव में कोई सहायता नहीं करेंगे. एका का प्रचार करेंगे. इसका व्यापक असर हुआ. तअल्लुकदारों-जमींदारों से टकराहट बढ़ती गई और अंततः मदारी के घर को नेस्तनाबूत कर अंग्रेज अधिकारी उनकी गिरफ्तारी के लिए पूरी ताकत लगा दिए. पर मदारी भूमिगत हो कर जंगल चले गए और किसानों के आन्दोलन को बढाते रहे.

पुस्तक में अवध के इन दोनों किसान नेताओं की किसान आन्दोलन को संगठित करने में एतिहासिक और प्रेरणा दायक भूमिका का चित्रण किया गया है. पर एक ही दौर में एक साथ और एक ही संगठन में काम कर रहे इन दोनों नेताओं की वर्गीय पृष्ठिभूमि इन दोनों की सोच में अंतर को भी दरशा देती है. बाबा रामचंद्र गांधी के भक्त हैं आन्दोलन को ताकत दिलाने के लिए और आन्दोलन को मान्यता देने के लिए कांग्रेस के नेताओं से उम्मीदें बाधे रहते हैं. वे अपनी गिरफ्तारी के बाद अपनी पैरवी के लिए भी कांग्रेस नेताओं से उम्मीद बांधे रहते हैं और ऐसा न होने पर बार-बार निराश दिखते हैं. वहीं मदारी पासी उत्पीड़ित किसानों की संगठित ताकत पर भरोषा करते हुए वर्षों तक भूमिगत रहते हैं और एका के प्रयासों को जारी रखते हैं. यही नहीं वे शिव वर्मा और जयदेव कपूर के माध्यम से क्रांतिकारी आन्दोलन के संपर्क में भी रहते हैं. अंत में पुस्तक की एक और महत्वपूर्ण महिला पात्र जग्गी का जिक्र जरूर करना चाहूँगा जिन्होंने “किसानिन सभा” के गठन के साथ किसान महिलाओं को संगठित करने का देश में शायद पहला प्रयास किया.

एका पुस्तक जहां अवध के किसान संघर्षों के इतिहास में एक ख़ास दौर को समेटने में सफल रही है, वहीं इतिहास को उपन्यास की शक्ल में पेश कर लेखक ने इसे आम पाठक के लिए भी रुचिकर बना दिया है. आपको पुस्तक के पात्र अवधी में बात करते भी मिलेंगे, पर पूरी कहानी में हिन्दी के साथ अवधी के इस मिश्रण को समझना हिन्दी पाठकों के लिए कहीं भी कठिन नहीं है. हमें भविष्य में अवध के किसान आंदोलन की आगे जारी कड़ियों से भी लोगों को परिचित कराना होगा. नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह से प्रभावित होकर लखीमपुर खीरी में कामरेड विश्वनाथ त्रिपाठी के नेतृत्व में चले जुझारू किसान आंदोलन के प्रभाव ने मदारी पासी की क्रांतिकारी परंपरा के कई बीर नायकों को जिले में पैदा किया. इनमें कामरेड बेचूराम, कामरेड सीताराम, कामरेड दसरथ महतिया कामरेड जीउत जैसे कई किसान योद्धा भी थे. इनमें से कामरेड बेचू को छोड़ बाकी तीनों अभी जीवित हैं. आज जब हमारा देश अब तक के सबसे बड़े कृषि संकट के दौर से गुजर रहा है, पहली बार देश के किसान संगठनों के बीच सँघर्ष के लिए “एका” कायम हुआ हुआ है. तब बाबा रामचंद्र और मदारी पासी के नेतृत्व में चले किसान संघर्षों की यह गाथा नए संघर्षो में किसान कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेंगी.

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