पहाड़ की बेटी निशु पुनेठा ने ऐपण को दिलाई नई पहचान
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पिथौरागढ़ में रहने वाली निशा पुनेठा का बचपन और शिक्षा-दीक्षा भी पिथौरागढ़ में ही हुई। वे जीजीआईसी पिथौरागढ़ की छात्रा रहीं। पेंटिंग का शौक और इस क्षेत्र में ही करियर बनाने की गरज से निशा उच्च शिक्षा केलिए अल्मोड़ा पहुंच गयी। उनका इरादा एक आर्ट टीचर बनने का था और है। एसएसजे कैम्पस, अल्मोड़ा से उन्होंने बीए और फिर ड्राइंग और पेंटिग से एमए की पढाई की। पेटिंग का बीज बचपन में ही निशा के जेहन में पनपने लगा। 8 साल की उम्र में अपने पिता को विभिन्न मौकों पर ऐपण बनाते देख वे इस लोककला की ओर खिंचाव महसूस करने लगीं। वे अपने पिता के बनाये ऐपणों में लाइन दिया करतीं। उनके पिता स्व.जगदीश चन्द्र पुनेठा एक अच्छे ऐपण आर्टिस्ट थे और पर्व-त्यौहारों पर इन्हें बनाया करते थे।
हमारी संस्कृति में विभिन्न प्रकार की लोक कलाएं मौजूद है। उन्ही में से एक प्रमुख कला है ऐपण। उत्तराखंड की स्थानीय चित्रकला की शैली को ऐपण के रूप में जाना जाता है। मुख्यतया ऐपण उत्तराखंड में शुभ अवसरों पर बनायीं जाने वाली रंगोली है। ऐपण कई तरह के डिजायनों से पूर्ण किया जाता है। फुर्तीला उंगलियों और हथेलियों का प्रयोग करके अतीत की घटनाओं, शैलियों, अपने भाव विचारों और सौंदर्य मूल्यों पर विचार कर इन्हें संरक्षित किया जाता है। ऐपण लोक संस्कृति की परिचायक होती हैं। अतः उनका मूलाधार यथावत् बनाए रखना उचित होता है। अल्पनायें पुरातन पीढ़ियों से उतरती हुई नवागत पीढ़ियों को विरासत के रूप में प्राप्त
होती हैं।
वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में भी अल्पनाओं का महत्व बहुत कम नहीं हुआ है। हां इसके रूप में परिवर्तन अवश्य हुआ है, क्योंकि हस्त निर्मित अल्पनाओं का मुद्रित रूप प्राप्त होने लगा है। इस नवीन प्रवृत्ति के कारण अल्पना निर्माण में मनोयोग और अल्पनाओं में वैविध्य की शून्यता पनपने लगी है, चूँकि अल्पनायें केवल रेखा चित्र मात्र नहीं होती हैं, बल्कि उनमें लोक जन मानस से जुड़ी धार्मिक एवं सामाजिक आस्थाओं की अभिव्यक्ति समाहित है। अतः उनका सरंक्षण करना आवश्यक हो जाता है। भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है। अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न
आयामों को भी प्रदर्शित करती है। रंगोली को उत्तराखंड में ऐपण तो उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, राजस्थान में मांडना, बिहार में अरिपन, बंगाल में अल्पना, महाराष्ट्र में रंगोली, कर्नाटक में रंगवल्ली के नाम से जाना जाता है।
पूरे भारत में इसे अलग अलग नाम है लेकिन इन्हें त्यौहारों, शुभ कार्यों व्रत के दौरान ही बनाया जाता है। उत्तराखंड में ऐपण का अपना एक अहम स्थान है। लोक कलाओं को सहेजने में कुमाऊंवासी किसी से कम नहीं है। यही वजह है कि यहां के लोगों ने सदियों पुरानी लोक कलाओं को आज भी जिंदा रहा है। उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर और पारंपरिक कलाओं को न केवल एक नई पहचान मिल रही है, बल्कि भविष्य की पीढ़ियां भी इससे प्रेरित होकर जुड़ रही हैं। सोमवार का दिन उत्तराखंडवासियों के लिए गौरव का दिन था, जब अयोध्या में विराजमान भगवान श्रीरामलाल का दिव्य विग्रह देवभूमि की विश्वविख्यात ऐपण कला से सुसज्जित
शुभवस्त्रम में सुशोभित हुए। यह शुभवस्त्रम न केवल उत्तराखंड की पारंपरिक कला और समर्पण का प्रतीक था, बल्कि इसने राज्य की सांस्कृतिक समृद्धि को राष्ट्रीय पटल पर एक नया गौरवशाली अध्याय जोड़ा।इन शुभवस्त्रों को उत्तराखंड के कुशल शिल्पकारों ने मुख्यमंत्री की प्रेरणा से तैयार किया, और स्वयं मुख्यमंत्री ने इसे अयोध्या पहुंचाकर श्रीराम मंदिर में भेंट किया। यह शुभवस्त्रम् में न केवल प्रदेश की ऐपण कला नजर आती है बल्कि इसमें निहित भक्ति और श्रम साधकों की अद्वितीय शिल्पकला का अद्भुत समन्वय भी है, जिसने उत्तराखंड की सांस्कृतिक छवि को और अधिक प्रखर बना दिया। शुभवस्त्रम को पिथौरागढ़ की ऐपण आर्टिस्ट निशु पुनेठा ने तैयार किया है। निशु पुनेठा का कहना है कि मुख्यमंत्री धामी से मुलाकात में उन्होंने ऐपण कला की तारीफ की थी।
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मुख्यमंत्री ने सुझाव दिया था कि क्यों न एपण कला के जरिए श्रीम राम के अंगवस्त्रों के डिजाइन तैयार किए जाएं। वहीं से प्रेरण लेकर निशु पुनेठा इस काम में जुट गई। निशु कहती हैं कि भगवान राम का ऐपण वस्त्र से सुसज्जित होना पूरे उत्तराखंड के लिए गर्व की बात है। निशु कहती हैं कि इसके लिए कपड़ा सरकार की ओर से मुहैया करवाया गया था, जिस पर निशु ने एपण की कारीगरी की है। इस काम में एक हफ्ते का समय लगा है। इसके बाद इस कपड़े को दिल्ली में डिजाइनर मनीष त्रिपाठी को सौंपा गया जिन्होंने रामलला की ड्रेस तैयार की। मुख्यमंत्री के गतिशील नेतृत्व में प्रदेश की लोक कला, संगीत, नृत्य और शिल्पों के संवर्धन की दिशा में भी अनेक ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री धामी न केवल राज्य के स्थानीय हस्तशिल्प और कारीगरों को प्रोत्साहित कर रहे हैं, बल्कि राज्य के युवाओं को भी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने और इसे संजोने की प्रेरणा दे रहे हैं। सीएम धामी के प्रयासों का ही प्रतिफल है कि उत्तराखंड की पारंपरिक कला और संस्कृति की गूंज अब अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी सुनाई देने लगी है। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय आयोजनों में उत्तराखंड की लोक कलाओं को प्रमुखता से प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे राज्य को वैश्विक पहचान और सम्मान मिल रहा है।
धामी कामानना है कि प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहरों का संरक्षण और संवर्धन आधुनिक संसाधनों और तकनीकों के साथ होना चाहिए ताकि यह अमूल्य विरासत आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रहे। गणेश पूजन के लिए स्वास्ति चौकी, मातृ पूजा में अष्टदल कमल, षष्ठी कर्म, नामकरण में गोल चक्र में पांच बिंदु (पांच देवताओं के प्रतीक), देवी पूजा में कलश की चौकी, शादी विवाह में धूलि अर्घ्य चौकी, कन्या चौकी, यज्ञोपवीत में व्रतबंध की चौकी, शिवार्चन में शिव चौकी, देली पर द्वार देवी के प्रतीक ऐपण, दीपावली पर लक्ष्मी चौकी, लक्ष्मी के पाए आदि बनाई जाती हैं। पुराने दौरे में ऐपण बनाने में चावल और गेरू का इस्तेमाल किया जाता था। लेकिन बदलते वक्त के साथ आज इनकी जगह पेंट और ब्रूश ने ले लिया है। यही नहीं त्योहारों के मौसम में अब तो बाजारों में रेडीमेड ऐपण भी मिलने लगे हैं, जो समय तो बचाते ही हैं और साथ ही साथ खुबसूरत डिजाईन में होते है।
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ऐसा नहीं है कि यह कला सिर्फ उत्तराखंड तक ही सीमित है। देश के हर हिस्से में रहने वाले कुमाऊंनी के घर पर आपको ऐपण देखने को मिल जाएंगे। इसके साथ ही सात समुंदर पार रहने वाले कुमाऊंनी विदेशी धरती में रहते हुए भी इस कला और अपनी संस्कृति से जुड़े हुए है। (इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)
लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।