इंद्रेश मैखुरी की कलम से
विगत कुछ दिन से सोशल मीडिया में उत्तराखंड के बिंदुखत्ता की एक घटना का वीडियो घूम रहा है। वीडियो में दिख रहा है कि एक महिला बौखलाई हुई है,मारपीट तक करने को तैयार है, गालियां तो दे ही रही है।
सिर्फ इस बात पर कि जहां उक्त महिला का घर है, उसके बगल की जो जमीन है, वो ऐसे लोगों ने खरीद ली है, जो उक्त महिला की परिभाषा के हिसाब से जातीय सोपान में निचले पायेदान पर हैं। इतने भर से उस महिला का जाति का नकली श्रेष्ठताबोध इस कदर आहत है कि वो फुफकार रही है। वह पत्थर उठा लेती है, फिर रिकॉर्डिंग होती देख, पत्थर छोड़ देती है।
(चूंकि इस वैचारिक कचरे के प्रसार का वाहक बनने का इरादा नहीं है, इसलिए पहले वाला वीडियो नहीं दिया जा रहा है।)
लेकिन उसकी फुफकार कम नहीं होती। जातीय श्रेष्ठता का नकली बोध उसके दिमाग में इस कदर हावी है कि उससे यह महसूस ही नहीं होता कि जो वह कर रही है, वो कानूनी रूप से अपराध है, बल्कि इसके उलट उसे तो लग रहा है कि अपराध तो जमीन खरीदने वालों ने किया है!
मामला पुलिस के पास पहुँचते ही एक और वीडियो सामने आया है, जिसमें उक्त महिला के सुर बदले हुए नज़र आ रहे हैं। वह कह रही है कि “गलती हो गयी, मुंह से निकल गया, मैं तुम्हारी माँ और बहन के समान हूँ। अब राजीनामा कर लो।”
इस मामले में जो भी हो, लेकिन क्या यह कोई अकेली या अलग-थलग घटना है? जी नहीं, बल्कि यह अन्य घटनाओं से सिर्फ इस मायने में भिन्न है कि इसका वीडियो सार्वजनिक हो गया। जातीय पदानुक्रम में जो तथाकथित तौर पर उच्च हैं, उन्हें भले ही यह महसूस न हो, लेकिन जिनको वे हेय समझते हैं, उनके तो निरंतर ही इसे भुगतना पड़ता है।
कुछ वर्ष पहले एक पहाड़ी नगर से लगे क्षेत्र में एक मित्र अपना मकान बेच रहे थे। उनके पड़ोसियों ने उनके ताकीद किया कि मकान दलितों और मुस्लिमों को न बेचें। कमरे किराये पर देने से पहले जाति बताने का आग्रह और जाति की वजह से कमरा किराये पर न मिलने की तो अंतहीन दास्ताने हैं।
आम तौर पर उत्तराखंड में कहा जाता है कि यहाँ तो जातीय भेदभाव नहीं है, पर यह कहता कौन है? यह वे कहते हैं, जिन्हें इस भेदभाव का कभी सामना नहीं करना पड़ता।
गौरतलब यह भी है कि ऐसा कहने वालों का अच्छा खासा हिस्सा शादी ही नहीं प्रेम करने से पहले जाति वाले कोण की जांच-परख ठीकठाक तरह से कर लेता है। वैसा उसका मासूम सा दृष्टिकोण यह भी होता है कि जाति अनुसार शादी करना, किसी तरह का भेदभाव थोड़े ही है!
दरअसल पहाड़ी गाँव में भी अन्य जगहों की तरह ही दलितों के घर, मुख्य गाँव से अलग ही होते थे। फिर पहाड़ी लोग शहरों को आए। शहरों ने उनको सुख-सुविधाओं वाली चमक दिखाई। वह चमक-दमक उन्होंने ग्रहण भी कर ली, लेकिन मानसिक आधुनिकता का उजाला, इस चमक-दमक में शामिल नहीं था। लिहाजा इस चमक-दमक के बीच जाति के अंधकार वाली जगह बदस्तूर कायम है। इसीलिए अपने को जातीय रूप से श्रेष्ठ होने का दंभ पालने वाले, जमीन शहरी हिसाब से खरीदने के बावजूद अड़ोस-पड़ोस और मुहल्ला गाँव के रीति से,जाति प्रथा के अनुसार बसाना चाहते हैं।उसी प्रथा के अनुसार जिसमें, जिन्हें वे जाति के पदानुक्रम में कमतर समझते थे, उनके घर गांव के बाहर होते थे। विडंबना यह है कि इस दिमागी कचरे को जातीय श्रेष्ठता के नकली दंभ से ग्रसित लोग यहां से अमेरिका तक ले गए।
जब-जब इस तरह की कोई घटना होती है, तब-तब 26 नवंबर 1949 को संविधान ग्रहण किए जाते वक्त, संविधान निर्माता डॉ. बी.आर. अंबेडकर के चेतावनी भरे शब्द याद आते हैं। उन्होंने कहा था “26 जनवरी 1950 को हम अंतरविरोधों के नए दौर में प्रवेश करेंगे, जहां राजनीति में एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य का सिद्धांत स्थापित हो जाएगा, लेकिन समाज में एक व्यक्ति एक मूल्य नहीं होगा।”
विडंबना यह है कि आज़ादी के 73 वर्षों के बाद भी समाज में “एक व्यक्ति, एक मूल्य” नहीं हो सका, बल्कि सदियों पुरानी रूढ़ियां और मनुष्य को जाति के आधार पर श्रेष्ठ या कमतर समझने की अमानुषिक सोच रह-रह कर उठ खड़ी हो रही है। इस सोच को दफन किए बिना यह देश कभी आगे नहीं बढ़ सकता। ऐसे विचार को आप ढोते फिरेंगे, जिसमें व्यक्ति को सिर्फ पैदा होने के आधार पर हेय समझा जाये और सोचेंगे कि देश आगे बढ़ेगा तो आप मुगालते के शिकार हैं। वैचारिक कचरे के दलदल में धंस कर आगे नहीं बढ़ा जाता, यह तो गर्त में ही डुबोता है!