अनुसूया प्रसाद घायल
उत्तराखंड राज्य बनने का सर्वाधिक खामियाजा यहाँ के मूल निवासी शिल्पकार अनुसूचित समाज को हुआ। वे घर के रहे न घाट के। पलायन से हर रोज गाँव खाली हो रहे हैं। अब मजबूरी मे सामान्य वर्ग का आंशिक हिस्सा और गरीब बेरोजगार शिल्पकार परिवार ही गाँवों को जिन्दा रखे हुए हैं। और तथाकथित अपनी राज्य सरकार हर रोज इनके हितों पर प्रहार कर रही है।
पर्वतीय शिल्पकारों को जो अनुसूचित जाति का आरक्षण मिलता था, उस पर भी इसी वर्ग का सरसब्ज खेमा कुंडली मारे हुए हैं। गाँव का गरीब शिल्पकार तो पेट पालने के लिए मजबूरी मे ढ़ोल बजाने आदि शिल्पकर्म कर रहा है तो वहीं सुरक्षित सीटों से जीते शिल्पकार प्रतिनिधि जो अपनी पार्टी सरकार के खैकर मात्र हैं। अपने आकाओं के यशोगान मे ढ़ोल पीट रहे हैं। एक शिल्पकार जन होने के नाते मुझे इस उपेक्षित समाज की पीड़ा को शब्द देने मे कोई डर और गुरेज नही है हमने अलग पर्वतीय राज्य मांगा था मै भी उस पृथक राज्य आंदोलन का हिस्सा था। लेकिन कुछ सत्ताभोगी चतुर सियासदान सियारों ने एक सोची समझी चाल के तहत कुछ अनुसूचित बहुल मैदानी नगर शहर जिलों को इस उत्तराखंड में इसलिए शामिल करवा दिया था कि पहाडी होते हुए भी उन्हें पहाड़ मे रहना पसंद नही था तो मैदान मे संसद विधान सभा मे जाने का चुनाव मैदान भी तो चाहिए था। और वे आज अपने मंसूबों मे सफल भी रहे।
यूँ तो सरकारी नौकरियाँ अब हैं नही हर जगह निजीकरण निगमीकरण हैं वहां आरक्षण का सवाल ही नही जो गिनी चुनी नौकरियाँ बची भी हैं। उन पर गाँव पहाड़ मे आज भी रह रहे साधारण शिक्षा पाये असल दलित पद दलित दमित गरीब दावेदार पिछड जाता है। राज्य बनने के बाद हुई सरकारी भर्तियों के आंकडे साफ बता रहे हैं गाँव पहाड़ मे आज भी निवास कर रहे शिल्पकार अनुसूचितों का चयन % बहुत कम हैं। आगे भी यही स्थिति रहेगी और कोढ़ पर खाज यह कि पैग पैगम्बर पंडा जी ने अनुसूचित जातियों को मिलने वाले आरक्षण मे अपने विशेष वोट बैंक को शामिल करने की पैरवी देश की संसद मे कर असल हिमालयवासी शिल्पकार गरीबों के लिए जीते जी नयी खायी खोद दी है ताकि वे उसमे दफन हो जायें।
मेरी केन्द्र और राज्य सरकार से करवद्ध याचना है कि के मूलनिवासी शिल्पकारों की सुध लें। उनकी जो गाँव पहाड़ मे रह रहें हैं। या तो पर्वतीय जिलों के केवल पहाडी हलके को कुछ दशकों के लिए लद्दाख की तरह केन्द्र सरकार के अधीन किया जाये।