लोक पर्व सातूं-आठूं (Satu-Athu)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
गौरा-महेश की पूजा का लोक पर्व सातूं-आठूं करीब है। भाद्रपद यानी भादो मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी व अष्टमी को इसे मनाया जाता है। इस बार 29 अगस्त को सातूं व 30 अगस्त को आठू पर्व मनाया जाएगा। कहा जाता है कि सप्तमी को मां गौरा ससुराल से रूठकर अपने मायके आ जाती हैं, उन्हें लेने के लिए अष्टमी को भगवान महेश यानी शिव आते हैं। सातूं-आठूं में सप्तमी के दिन मां गौरा व अष्टमी को भगवान शिव की मूर्ति बनाई जाती है। मूर्ति बनाने के लिए मक्का, तिल, बाजार आदि के पौधे का प्रयोग होता है। जिन्हें सुंदर वस्त्र पहनाए जाते हैं। विधि अनुसार पूजन किया जाता है। झोड़ा-चाचरी गाते हुए गौरा-महेश के प्रतीकों को खूब नचाया जाता है। महिलाएं दोनों दिन उपवास रखती हैं। अष्टमी की सुबह गौरा-महेश को बिरुड़ चढ़ाए जाते हैं। प्रसाद स्वरूप इसे सभी में बांटा जाता है और गीत गाते हुए मां गौरा को ससुराल के लिए बिना किया जाता है। मूर्तियों को स्थानीय मंदिर या नौले (प्राकृतिक जल स्रोत) के पास विसर्जित किया जाता है। कुछ जगहों पर दो से तीन दिन बाद भी इसे विसर्जित किया जाता है।
लोक पर्व सातूं-आठूं की शुरुआत दो दिन पहले हो जाती है। भौदो मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को बिरुड़ पंचमी कहा जाता है। इस दिन घरों में तांबे के बर्तन में पांच या सात अनाजों को पानी में भिगो दिया जाता है। इसमें दाडि़म, हल्दी, सरसों, दूर्बा के साथ एक सिक्के की पोटली रखी जाती है। संस्कृतज्ञ खीम कहते हैं कि सातूं-आठूं का पर्व वैज्ञानिक महत्व भी रखता है। सातूं-आठूं में अंकुरित अनाजों को प्रसाद स्वरूप खाया जाता है। सातूं के दिन महिलाएं बांह में डोर धारण करती हैं। जबकि आठू के दिन गले में दुबड़ा (लाल धागा) धारण करती हैं। इस पर्व को लेकर
पौराणिक कथा प्रचलित है।बिरूड़ाष्टमी के दिन महिलाएं गले में दुबड़ा (लाल धागा) धारण करती हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार पुरातन काल में एक ब्राहमण था जिसका नाम बिणभाट था। उसके सात पुत्र व सात बहुएं भी थीं लेकिन इनमें से सारी बहुएं निसंतान थी। इस कारण वह बहुत दुखी था। एक बार वह भाद्रपद सप्तमी को अपने यजमानों के यहां से आ रहा था। रास्ते में एक नदी पड़ती थी। नदी पार करते हुए उसकी नजर नदी में बहते हुए दाल के छिलकों पर पड़ी। उसने ऊपर से आने वाले पानी की ओर देखा तब उसकी नजर एक महिला पर पड़ी जो नदी के किनारे कुछ धो रही थी। वह उस स्त्री के पास जाकर देखा तो वह स्त्री कोई और नहीं बल्कि खुद देवी पार्वती थी, और कुछ दालों के दानों को धो रही थीं। बिणभाट ने बड़ी सहजता से इसका कारण पूछा तब उन्होंने बताया कि वह अगले दिन आ रही बिरूड़ाष्टमी पूजा के विरूड़ों को धो रही हैं।
भारत से लगे सीमावर्ती गाँवों के मध्य रोजी व बेटी के सम्बन्ध होने से अन्य रीति-रिवाजों की तरह इस पर्व का भी पदार्पण कुमाऊँ की ओर हुआ। वर्तमान में कुमाऊँ में यह पर्व मुख्य रुप से पिथौरागढ़ जनपद के सोर, गंगोलीहाट, बेरीनाग इलाके, बागेश्वर जनपद के दुग, कमस्यार, नाकुरी तथा चम्पावत जनपद के मडलक व गुमदेश इलाकों में अटूट श्रद्धा व आस्था के साथ मनाया जाता है। पहाड़ों में वर्षाकालीन खेती का काम जब समाप्ति की ओर होता है उन्हीं दिनों सातूं-आठूं का पर्व भी आता है। भादों माह की बिरुड़ पंचमी से प्रारम्भ होकर यह पर्व दस-बारह दिनों तक मनाया जाता है। सप्तमी और अष्टमी की तिथि को मुख्य आयोजन होता है।
मुख्यत: यह महिलाओं का ही पर्व है। पंचमी, सप्तमी व अष्टमी के दिन विवाहित महिलाएं अखंड सौभाग्य व परिवार की सुख-समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं। पंचमी के दिन गौरा- महेश्वर के निमित्त एक पात्र में पंच धान्य यथा- गेहूं, मास, चना, लोबिया, मटर आदि को सफेद कपड़े की
पोटली में दूब सहित रखकर तांबे के पात्र में भिगोया जाता है। बाद में ये धान्य अंकुरित हो जाते हैं, जिन्हें बिरूड़ कहा जाता है। सप्तमी के दिन धान के सूखे पौंधों व कुछ अन्य घास प्रजाति के पौंधों से गौरा की आकृति बनायी जाती है। वस्त्राभूषणों से सज्जित गौरा को गाँव के सामूहिक स्थान पर रखकर पूजा जाता है। सुहागिन महिलाएं हाथ व गले में लाल-पीले रंग का धागा डोर तथा डुबड़ा धारण करती हैं।
अष्टमी के दिन गौरा की तरह महेश्वर की भी आकृति बनायी जाती है और उन्हें भी वस्त्रों आदि से सजाया जाता है। शाम को सार्वजनिक स्थान
पर गाँव की महिलाएं परंपरागत परिधानों में सजधज कर एकत्रित होती हैं। गौरा-महेश्वर की आकृतियों को डलिया में स्थापित करने के बाद बिरूड़, धतूरे, व स्थानीय फल-फूलों से उनकी पूजा की जाती है। इसके बाद डलिया में स्थापित इन प्रतिमाओं को गोल घेरे के बीच रखकर महिलाएं लोक गीत गाती हैंवर्तमान में पंचधान्य में शामिल कल्यूं (छोटी-मटर) क्षेत्र में न के बराबर उत्पादित हो रही है। इसे लोग नेपाल से मंगवाकर गांव में बांट रहे हैं। इसमें अन्य अनाज मिलाकर बिरुड़े भिगोए जा रहे हैं।
75 वर्षीय तुलसी देवी बताती हैं कि पहले काफी मात्रा में कल्यूं की फसल होती थी जो वर्ष भर दाल के काम आती थी। कुछ साल से कल्यूं की फसल में फली लगते ही बंदर और लंगूर पौधे ही उखाड़कर ले जा रहे हैं।उनका कहना है कि अब तो बीज के भी लाले पड़ गए हैं तो कल्यूं खाने को कहां से मिलेगा। इसी तरह प्रकाश पाल, बीरजंग पाल व गोविंद सिंह ने बताया कि पूजा के लिए नेपाल से दो किलो कल्यूं मंगाया गया है जिसे थोड़ा-थोड़ा प्रत्येक परिवार को बांट दिया गया है। विमला देवी, कमला, माया, कलावती, निर्मला व ममता का कहना है कि जंगली जानवरों ने खेतीबाड़ी बर्बाद कर दी है। पहले पूजा के बाद दो-तीन दिन तक पंच अनाजों को खाते थे। अब एक दिन के लिए भी पूरे नहीं होते हैं। क्षेत्र के देवल, खोलिया गांव, रसगाड़ी, गदाली, मोचोरा, बड़ीगांव, तल्ला-मल्ला बगड़, हिनकोट, दारती आदि गांवों में जंगली जानवरों के चलते लोग खेतीबाड़ी से विमुख हो रहे हैं।बिरुड़ पंचमी पर्व पर गौरा-महेश्वर की पूजा में चढ़ाए जाने वाले पंच अनाज कल्यूं, गेहूं, उड़द, गहत और गुरुस भिगोए जाते हैं। इन्हें अष्टमी के दिन गौरा-महेश्वर को अर्पित कर उनका प्रसाद ग्रहण किया जाता है।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में सप्तधान्य भिगोने के साथ ही लोकपर्व सांतू-आंठू का आगाज हो गया है। शुक्रवार को बिरुड़ पंचमी मनाई गयी। तांबे के एक साफ बर्तन में सप्तधान्य को मंदिर के पास भिगोकर रखा गया। भिगोये जाने वाले अनाज में मक्का, गेहूं, गहत, ग्रूस (गुरुस), चना, मटर और कलों शामिल हैं। परंपरागत रूप से घर की महिलाओं ने तांबे के बर्तन को साफ़ कर उसमें धारे अथवा नौले का शुद्ध पानी भरा और बर्तन के चारों ओर पांच छोटी-छोटी आकृतियां गोबर से बनाईं। इन आकृतियों में पवित्र दुर्वा (दूब) को लगाया। बर्तन के भीतर सप्तधान्य
डालकर उसे मंदिर में उस स्थान पर रखा जहां पर लाल मिट्टी या गेरू से लिपाई की गई है। कुछ स्थानों में सप्तधान्य को एक पोटली में रखकर बर्तन के भीतर भिगोकर रखने की भी परंपरा है। अब सात दिन तक इन बिरुड़ों से देवी गौरा की और आठवें दिन भगवान महेश की पूजा की जाएगी। पूजा में प्रयोग किये गये इन बिरुड़ों को आशीष के रूप में सभी को बांटा जाता है और बचे हुए बिरुड़ों को पकाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
यह उल्लेखनीय है कि मध्य और पश्चिमी नेपाल में पहुँचते-पहुँचते यह उत्सव होबालो के रूप में एक नए कथानक के साथ समाज का हिस्सा बनता है। यहाँ होबालो का तात्पर्य एक व्यक्ति द्वारा दूसरे के लिए मंगलकामना करना है। मान्यता है कि यह उत्सव कुमाउनी बहुओं के साथ आई गमरा परम्परा का परिवर्तित रूप है जो पर्वत इलाके के लिथियाना, फ़ौलेबासा, मूलपानी, पाल्पा जिले में लम्झुंग, छिड़ी, बेसिसहर, ग्याजा और बझाङ्ग के गैड़ा गाँव की तरह कुमाऊँनी समुदायों के साथ काठमांडू घाटी तक चला गया।होबालो का मुख्य कथानक गमरा की ही तरह मैशर या महेशर और गौरा के विवाह से जुड़ा है। लोक मान्यता है कि कॄष्ण ने युधिष्टिर को अपने माता पिता की सातों-संतानों के कंस के हाथों मारे जाने की भावुक कथा सुनाते हुए बताया कि होबालो (महेशर और गौरा के विवाह पूजा) का आयोजन उनके माता-पिता के लिए सौभाग्य लेकर आया। इसीलिए यह पर्व सौभाग्य और बुरी शक्तियों पर अच्छी शक्तियों की विजय का सूचक है। यह एक तरह से स्त्री प्रधान उत्सव है। जहाँ गमरा में केवल विवाहित स्त्रियाँ ही उपवास धारण करती और अनुष्ठान सम्पन्न करती है, होबालो में अविवाहित स्त्रियाँ को भी हिस्सेदारी करने की छूट होती है।
होबालो अनुष्ठान की शुरुआत भी बिरुड़े भिगाने से, जिसे स्थानीय बोली में बिरुला भिजओने कहा जाता है, की जाती है। लगभग सात माणे (3.5 किलोग्राम) बिरुला पात्र में डाले जाते हैं। पात्र को अक्षत, पिठया आदि लगाया जाता है और पास में सात गट्टे (छोटे गोल पत्थर) रखे जाते है जिनसे अनुष्ठान के अंतिम दिन महिलायें खेल आयोजित करती हैं। षष्टि तिथि को पाती और कुश के गौरा और महेशर के पुतलों का निर्माण किया जाता है और दूल्हा-दुल्हन की तरह सजाया संवारा जाता है। सप्तमी को कुछ एक अनुष्ठानों के साथ महिलायें सात गाँठ लगे डोर या पवित्र धागे को सौभाग्य सूचक के रूप में गले में धारण करती हैं। इस दिन बिना पका हुआ भोजन ग्रहण किया जाता है। होबालो के लिए अष्टमी या आठों का दिन महत्वपूर्ण होता है। इस दिन गौरा या लाली गौरा और महेशर का विवाह आयोजित किया जाता है।
अंतिम चरण में लोक कथा और लोक गीतों के गायन, जिसमे होबालो का बार बार उच्चारण दोहराते हुए अनुष्ठान सम्पन्न होता है। होबालो कथा में विधिवत अनुष्ठान न करने वाली सुसंपन्न और अहंकार से भरी रानी राजमती के बुरे दिनों और बीजमती नामक ब्राह्मणी द्वारा श्रद्धा से अनुष्ठान सम्पन्न करने पर आई सुख समॄद्धि और सौभाग्य का सजीव चित्रण किया जाता है। यह रोचक है कि कहानी का सुखांत समापन होता है। ज्यों ही रानी राजमती को अपने अहंकार का भान होता है वह भी स्वर्ण डोर त्याग कर पवित्र डोर धारण करते हुए विधिवत अनुष्ठान सम्पन्न करती है। इस तरह उसके भी सुख भरे दिन लौट आते हैं। देखा जाय तो जहाँ गमरा कुमाऊँ और पश्चिमी नेपाल की सदियों से चली आ रही साझी संस्कृति का जीवंत प्रमाण है, यह पित्रसत्तात्मक समाज में स्त्री की गैर-बराबरी और अपने जीवन के बारे में फैसला न लेने सकने के अधिकार की कहानी भी है।
ये उत्सव बताते हैं की संघर्ष भरे जीवन में यहाँ के समाज ने जहाँ एक ओर प्रकॄति के रहस्यों से अचंभित हो अदॄश्य शक्तियों की पूजा अर्चना की, वहीं कर्मकांडों की आड़ में अंततः उन रूढ़ियों को भी बनाए रखा जो गैर बराबरी वाले सामंती उत्पादन संबंधों को बनाए रखना चाहती थी। यही नहीं शायद उत्सवों के पौराणिक रहस्यवाद ने एक इंसान के रूप में महिलाओं को दोयम समझने व पुरुष आश्रित बनाए रखने में भी बड़ी भूमिका निभाई है।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )