बंजर होती खेती और पलायन का समाधान है मोटे अनाज (Coarse grains)
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
संघर्ष की परंपराओं के साथ ही अपनी उपज और खानपान की भी घोर उपेक्षा कर दी। परिणाम स्वरूप 2001-2002 में जहां हम 1 लाख 31 हज़ार हेक्टेयर पर्वतीय भूमि में मडुवे का उत्पादन करते थे, वहीं 2019-2020 में यह आंकड़ा घटकर 92 हज़ार हेक्टेयर पर सिमट गया। इसी तरह झुंगरे उत्पादन का क्षेत्रफल 67 हज़ार हेक्टेयर से घटकर 49 हज़ार हेक्टेयर हो गया है। जब हम इन दोनों उपज के क्षेत्रफल में कमी की बात करते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर खरीफ़ की इन फसलों से जुड़े अन्य अनाज जो कि महत्वपूर्ण दलहन हैं, जिसमें गहत, भट, उड़द, तिल, तूर ,राजमा, रामदाना की उपज के प्रतिशत में कमी भी शामिल होती है। इन मोटे अनाजों के उत्पादन में कमी से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को कितनी चोट पहुंची होगी इसका हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। कुल मिलाकर ये दोनों अनाज उत्तराखंड की अस्मिता के आधार हैं।
इन दोनों ही अनाजों के उपज के क्षेत्रफल में राज्य गठन के बाद लगभग 30 प्रतिशत की कमी हुई है। इस 30 प्रतिशत की कमी को सीधे तौर पर उत्तराखंड के आज के सबसे बड़े संकट च्पलायन और बंजरज् होती पर्वतीय खेती से सीधे तौर पर जोड़ कर देखा जा सकता है। बंजर होती खेती से जहां खेत जंगल में समा गए हैं, वहीं बंदर और लंगूर हमारे घरों तक पहुंच गए हैं, कुल मिलाकर पर्वतीय लोक जीवन में अपनी कृषि की उपेक्षा से जो सामाजिक संकट उत्पन्न हुआ है, उसे हम अपनी पहचान के अनाजों के महत्व को समझ कर उसके उत्पादन को बढ़ाकर ही बचा सकते हैं। अपने परंपरागत अनाजों की खेती को बढ़ावा देकर हम एक साथ कई मोर्चों पर विजय हासिल कर सकते हैं। ऐसा करते हुए हमें इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि आज़ादी से पहले जब देश में पी.डी.एस व्यवस्था लागू नहीं थी, तब भी पर्वतीय क्षेत्र अपने खाद्यान्न की समस्या का समाधान स्वयं करते थे, अर्थात हम कृषि क्षेत्र में आत्मनिर्भर थे।
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1936में अल्मोड़ा में बोसी सेन द्वारा स्थापित विवेकानंद कृषि अनुसंधान शाला ने पर्वतीय कृषि,बीज और तकनीक के विकास में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन 1974 में इस संस्थान की स्वायत्तता और स्थानीय स्वरूप इसके कृषि अनुसंधान परिषद में विलय के बाद समाप्त हो गया। इसके बाद यहां स्थानीय उपज और बीजों पर काम का सिलसिला कम हुआ। इसने आगे जाकर उत्तराखंड के परंपरागत कृषि व बीज पर संकट खड़ा कर दिया, जिसे हम बारहा नाजा के नाम से जानते हैं। परंपरागत बीज और खेती के ऊपर यह संकट सिर्फ़ उत्तराखंड में नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ झारखंड, असम, आंध्र प्रदेश जैसे उन तमाम कृषि आधारित आदिवासी क्षेत्रों में भी उत्पन्न हुआ, जिनकी अपनी अलग स्थानीय पहचान थी। यह संकट अंतरराष्ट्रीय खाद और बीज के नैकस्स के षड्यंत्र से उत्पन्न हुआ। ये नैक्सस जो कि कृषि सुधारों के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों पर लाया गया बहुराष्ट्रीय खाद -बीज कंपनियों की व्यापारिक महत्वाकांक्षा के कारण उत्पन्न हुआ।
1975 के आसपास से पर्वतीय क्षेत्रों और भाबर में सोयाबीन ने हमला बोला था तब टिहरी में खाड़ी की आत्मनिर्भर घाटी में गांधीवादी धूम सिंह
नेगी, विजय जडधारी, प्रताप शिखर, कुंवर प्रसून आदि की टीम ने इस संकट को पहचाना और पूरे क्षेत्र में परंपरागत बाराहा नाजा को बचाने की एक मुहिम छेड़ी। इस मुहिम में परंपरागत बीजो की अदला-बदली के लिए बीज यात्राएं निकाली गईं। बीजो की अदला-बदली हमारी पीढ़ियों से अर्जित ज्ञान है, जो फसल की उत्पादकता को कम नहीं होने देता। इस अभियान को जमुना लाल बजाज ने सम्मानित भी किया। कुल मिलाकर संक्षेप में अगर कहें तो मडुवा-झुंगरा जो पहाड़ की पहचान है, उसको सही अर्थों में पहचान कर ही उसके उत्पादन के लिए विशेष प्रयास करके हम उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की पलायन और बंजर होती खेती और युवाओं के रोज़गार जैसे कई सवालों का एक साथ समाधान कर सकते हैं।
कुछ साल में केंद्र सरकार ने भी मोटे अनाजों के संरक्षण की नीति बनाई है, जिसके तहत कुछ महत्वपूर्ण फैसले दिसंबर 2021 में लिए गए। जिसके तहत एफ.सी.आई इन मोटे अनाजों का विपणन करेगी और वितरण भी, साथ ही मोटे अनाजों के संग्रह की तिथि से ३ माह के भीतर बिक्री की जो पुरानी शर्त थी, उसे बढ़ाकर अब सात से आठ माह कर दिया गया है।इससे निश्चित रूप से व्यापार के लिए इन अनाजों को अधिक समय मिलेगा।अब राज्य सरकार को चाहिए कि पहाड़ की अस्मिता के लिए अनाज जो कि पर्वतीय कृषि का आधार हैं और बागवानी के विकास के लिए अलग से विशेष प्रयास करें। विशेषज्ञों का एक अनुसंधान परिषद बनाएं जो स्वाभाविक रूप से पहाड़ की जैविक खेती को जैविक प्रमाणन का प्रमाण पत्र और किसानों को आवश्यक प्रशिक्षण भी प्रदान करने का काम करें। इन केंद्रों का संचालन कृषि सेवा केंद्रों के साथ भी किया जा सकता है।
अगर हमारी सरकारें इस दिशा में जागरूक होती है, तो पहाड़ में बंजर हो रही खेती की भूमि पर सरकारी सहायता से सहकारी समितियों के माध्यम से सामूहिक खेती करती है, तो निश्चित रूप से यह पहाड़ की ज़मीन और जवानी को बचाने वाला कदम होगा। लेकिन उससे पहले इन मोटे अनाजों का सवाल,चुनाव में शामिल होना ज़रूरी है। साथ ही ज़रूरी है इन स्वास्थ्य वर्धक मोटे अनाजों को अपने भोजन में शामिल करना। 2023 को अंतरराष्ट्रीय मिलेट वर्ष के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्यता दी है। साथ ही उत्तराखंड सरकार द्वारा भी मडुवे का समर्थन मूल्य घोषित किया गया है। यह सब पर्वतीय कृषि के लिए शुभ संकेत हैं। जिससे निश्चित रूप से व्यापार के लिए इन आनाजो को अधिक समय मिलेगा। अब राज्य सरकार को चाहिए पहाड़ की अस्मिता के एल अनाजों जोकि पर्वतीय कृषि का आधार हैं और बागवानी के विकास के लिए अलग से विशेष प्रयास करें। जिसमें विशेषज्ञों की एक अनुसंधान परिषद बनाएं जो स्वाभाविक रूप से पहाड़ की जैविक खेती को जैविक प्रमाणन का प्रमाण पत्र तथा किसानों को आवश्यक प्रशिक्षण भी प्रदान करने का काम करे , इन केंद्रों का संचालन कृषि सेवा सेवा केंद्रों के साथ भी किया जा सकता है।
पिछली सरकार ने इन मोटे अनाजों के संरक्षण के लिए कुछ कदम उठाए थे ,जिसके परिणाम स्वरूप ₹10 किलो बिकने वाला मडुवा अब गांव से ही ₹20 ₹25 किलो तक बिक रहा है। दिल्ली में जिसकी कीमत ₹50 किलो है, जबकि आपूर्ति पूरी नही है, 2020 में 200टन मडुवा, झुंगरा हिमालयन मिलेट नाम से डेनमार्क को निर्यात किया गया है।अन्य यूरोपीय बाजारों में भी इसकी मांग बढ़ रही है और यह सब उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के लिए एक शुभ समाचार है। अगर हमारी सरकारें इस दिशा में जागरूक होती हैं, तो पहाड़ में बंजर हो रही खेती की भूमि पर सरकारी सहायता से सहकारी समितियों के माध्यम से सामूहिक खेती करती है ,तो निश्चित रूप से यह पहाड़ की जमीन और जवानी को बचाने वाला कदम होगा। लेकिन उससे पहले इन मोटे अनाजों का सवाल ,चुनाव में शामिल होना जरूरी है। साथ ही जरूरी है इन स्वास्थ्य वर्धक
मोटे अनाजों को अपने भोजन में शामिल करना।
मडुवा की रोटी पौष्टिकता का खजाना आज से लगभग चालीस साल पहले उत्तराखंड राज्य में मडुवा उत्तराखंडियो का मुख्य आहार था। हर घर परिवार में मडुवे की रोटी का सेवन होता था। गेहूं महंगा होने से लोग ज्यादातर मडुवे की रोटी बनाया करते थे। गेहूं के आटे में मडुवा के आटे को मिलाकर गियू मडुवा रुवाट खाने भी परंपरा थी।प्राचीन समय में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों गरीबी के कारण लोगों को गेहूं की रोटी कम प्रयाप्त होती थी लोग मडुवा की रोटी ही खाते थे कभी कभी गेहूं की रोटी खाया करते थे। इस मडुवे की रोटी के बारे में एक चांचरी भी बनाया गया था।
रौ कि लछिमा मडुवा नै खानि कौछि गियू हैंगि अकरा।
पहले ,समय में उत्तराखंड में मडुवे का महत्व कोई भी नहीं जानते थे।खाली रोटी खाने तक आम आहार के तौर पर सेवन करते थे। लेकिन आज भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी मडुवा जैसे भरपूर खनिज पोषक तत्व व स्वास्थ्यवर्धक अनाज की मांग बढ़ती जा रही है। ताकि यह हमारे समाज और पर्यावरण के लिए एक साथ काम कर सके और हमारे आने वाले पीढ़ियों को एक समृद्ध और सुरक्षित भविष्य की ओर अग्रसर कर सके।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )