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बेहतर पोषण से भरपूर है शहद (Honey)

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बेहतर पोषण से भरपूर है शहद (Honey)

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

मधुमक्खियां न केवल पौष्टिक शहद देती हैं, बल्कि हिमालय की जैव विविधता और पर्यावरण संतुलन में भी इनकी अहम भूमिका रहती है। लेकिन अब कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल और जंगलों की आग ने मधुमक्खियों के जीवन के लिए संकट खड़ा कर डाला है। इसका शहद उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ रहा है। हालात यह है कि एक समय पहाड़ में जहां 10 कुंतल शहद का उत्पादन होता था, वहां आज बड़ी मुश्किल से एक कुंतल शहद ही मिल पा रहा है। पलायन का भी शहद उत्पादन पर बड़ा असर पड़ा है! कभी कीटनाशक रसायन, कभी आसमानी ओले तो कभी भोजन की कमी के चलते मधुमक्खियों का जीवन संकट में है। इनके असमय दम तोड़ने के चलते सर्वाधिक प्रभाव शहद उत्पादन पर पड़ रहा है।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय प्रदेश में 1600 मीट्रिक टन शहद का उत्पादन हो रहा है। लेकिन अब ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन एवं मधुमक्खियों की असमय मौत के चलते इसमें भारी गिरावट आ रही है। मौन उत्पादन से जुड़े काश्तकार धीरे-धीरे इस व्यवसाय को छोड़ रहे हैं तो शहद उत्पादन संबधी सरकारी कार्यक्रम कागजों से जमीन पर नहीं उतर पाता। फूल जो मधुमक्खी के आहार का मुख्य स्रोत है उसमें फैलते रसायनिक कीटनाशकों के जहर से मधुमक्यिां लगातार मर रही हैं। जंगलों में लगने वाली आग भी इनके मौत का कारण बन रही है। वर्षाकाल में तो इनके लिए भोजन जुटा पाना भी मुश्किल हो जाता है।

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जून से अगस्त माह के तीन महीनों में प्राकृतिक फूलों की कमी के चलते इन्हें अपना आहार जुटाने में मुश्किल आती है। इन दिनों मुधमक्खी पालक इन्हें भोजन के तौर पर चीनी उपलब्ध कराते हैं, लेकिन चीनी इतनी महंगी है कि इसे आदमी खाये या मधुमक्खियों को खिलाए ? आम, नाशपाती, लीची, सेब, अमरूद आदि के फूलों के साथ ही गुलाब और अन्य फूलों की प्रजातियों में भी भारी कमी आने से मधुमक्खियों को भोजन जुटाने में कठिनाई होती है। आहार न मिलने से ये असमय दम तोड़ जाती हैं। ऐसे में मधुमक्खी पालकों के समक्ष बड़ी समस्या यह पैदा हो रही है कि वह इनका भोजन कहां से लाएं ?

दूसरी तरफ विशेषज्ञों का कहना है कि पर्यावरणीय असंतुलन के चलते फूलों से निकलने वाला नेक्टर मीठा द्रव्य कम हो रहा है जिसके चलते फलों में पर्याप्त पराग पैदा नहीं हो पा रहा है। पराग में नेक्टर कम बनने से मधुमक्खियों को शहद के लिए जरूरी शुगर नहीं मिल पा रहा है
जिसके चलते शहद के उत्पादन में कमी आ रही है। विशेषज्ञ अच्छे पराग के लिए समय पर वर्षा और उचित तापमान को जरूरी बताते हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन इसमें बाधा बना हुआ है। मधुमक्खियों के दुश्मनों की संख्या में वृद्धि भी एक बड़ी वजह मानी जा रही है। भालू, किंग क्रो, बी हाईपर एवं अंगलार मधुमखियों को अपना भोजन बना रहे हैं।

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इसके अलावा पहाड़ों में मौन पालन का वैज्ञानिक ढंग से न किया जाना भी शहद उत्पादन को प्रभावित कर रहा है। वनों में मधुमक्खियां वृक्षों के ऊपर छत्ते बनाती हैं। इनके परागण से फूल, फल एवं बीज बनते हैं विशेषज्ञ मानते हैं कि वनों में जितना अधिक परागण होगा उतनी ही अधिक जैव विविधता बढ़ती है। सर्वाधिक परागण मधुमक्खियों द्वारा ही होता है। यह भी माना गया है कि उच्च हिमालयी क्षेत्र में परागणकर्ता की कमी के कारण कई दुर्लभ वनस्पतियां विलुप्ति के कगार पर हैं। जैव विविधता के लिए मधुमक्खियों का संरक्षण जरूरी माना गया है। वनों की जीवन प्रणाली को भी सुदृढ़ करने के लिए इनकी अधिकतम संख्या होनी चाहिए। कुमाऊं में तो लगभग हर जिला मौन उत्पादन के लिए प्रसिद्ध रहा है। हर गांव में हर घर में मधुमक्खियों के छत्ते होते थे। लोग अपनी आवश्यकताओं के पूर्ति के बाद इसका विक्रय करते थे।

पहले पहाड़ों के हर घर में मौनों के लिए अलग से डिब्बा लगता था शायद ही कोई घर हो जहां पर मौन पालन न होता हो। लोग अपनी जरूरत का शहद उत्पादन कर लेते थे। लेकिन आज वे अपनी आवश्यकताओं के लिए भी बाजार पर आश्रित हैं। आज पहाड़ी शहद मिल पाना मुश्किल हो रहा है। जनपद पिथौरागढ़ के गुरना क्षेत्र जहां पर्याप्त मात्रा में शहद उत्पादन होता था वहां 90 प्रतिशत उत्पादन घटा है। इसकी वजह खेती
एवं उद्यान में कीटनाशकों का प्रयोग माना जा रहा है। यहां के 30 से अधिक गांवों में शहद उत्पादन होता है। पहाड़ में शहद का उत्पादन तेजी से घट रहा है। एक समय यहां पर 10 कुंतल तक शहद का उत्पादन होता था जो अब एक कुंतल तक पहुंच गया है।

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यही हाल पिथौरागढ़ जनपद के नेपाल सीमा से लगे गांवों का भी है।300 से अधिक परिवारों ने मौन पालन का काम छोड़ दिया है। जिले में400
परिवार मौन पालन से जुड़े हैं लेकिन अब इनका रुझान इस ओर कम हो रहा है. जनपद के गुरना, डाकुडा, जमराड़ी, जाड़ापानी, बेड़ा,गोगिना, हिमतड़, बलुवाकोट, परम, जम्कू, सिर्खा, सिर्दांग, किमखोला, बौना, तामिक, गौल्फा, नामिक, कूटा, अस्कोट, पनार आदि क्षेत्र में जमकर उत्पादन होता था। जिले के धारचूला के नारायण आश्रम, बलुवाकोट, पैयापोड़ी, जम्कू, गोरीछाल, तोमिक, गर्खा, जमतड़ी, भटेड़ी, गोगिना, बड़ालू, गोरीछाल, तल्लाबगड़ गोगिना, झूलाघाट, थली आदि में व्यापक मात्र में शहद का उत्पादन होता था। जौलीजीवी मेले में यहां का शहद खूब बिकता था।

राज्य गठन के समय जिले में शहद उत्पादन करीब 2000 कुंतल था जो अब गिरकर 700 कुंतल तक पहुंच गया है। पड़ोसी जनपद चंपावत हो या फिर अल्मोड़ा, बागेश्वर, नैनीताल हर जगह जमकर शहद उत्पादन होता था। लेकिन पर्याप्त संरक्षण न मिलने से मौन पालक अब इस व्यवसाय को छोड़ रहे हैं। उद्यान विभाग की तमाम कोशिशें भी मौन पालन को स्वरोजगार का जरिया नहीं बना पाई कहने को तो उद्यान विभाग समय-समय पर मौन पालन का प्रशिक्षण देता है। मौन बॉक्स, जाली, मोम सीट, दस्ताने, मुंह रक्षक जाली, स्वार्म बैग, क्वीन गेट आदि वस्तुएं भी
नि:शुल्क उपलब्ध करायी जाती हैं लेकिन इसके बाद भी मौन पालन की तरफ लोगों का रुझान कम ही है।

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उद्यान विशेषज्ञों के अनुसार कीटनाशकों के प्रयोग से मधुमक्खियों की मौत हो रही है फूलों से मधुमक्खियां अपना आहार लेती हैं किसान फूलों पर कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं जिसकी कीमत मधुमक्खियों को चुकानी पड़ रही है। कीटनाशक रसायन से मौनों को पहुंच रही हानि पर सरकार का कहना है कि वह ऐसे रसायन खरीदेगी जिससे नुकसान नहीं के बराबर हो। वहीं मंडी परिषद के माध्यम से जैविक शहद खरीदा जाएगा। सरकार की ये घोषणाएं कब अमल में उतरेंगी यह तो पता नहीं लेकिन फिलहाल पर्वतीय क्षेत्र में शहद उत्पादन तेजी से घट रहा है, तो वहीं मौनों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है।

शहद उत्पादक काश्तकार कहते हैं कि असल सवाल तो पलायन होते गांवों में लोगों को रोकना है। जब गांव में लोग ही नहीं होंगे तो फिर मौन पालन कौन करेगा ? ऐसे में सरकार शहद कारोबार के लिए अलग से नीति भी बना ले तो भी इसका फायदा नहीं दिखेगा। सरकारें शहद उत्पादन से जुड़े लोगों की आजीविका में वृद्धि की बात तो करती रही हैं लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और बयां करती है पूर्ववर्ती ने वषार्काल में मधुमक्खियों के तीन महीने का भोजन सरकारी सस्ते गल्ले की दुकानों से देने का निर्णय लिया था लेकिन वह फलीभूत नहीं हो पा रहा है। जहां तक मधुमक्खियों की उपयोगिता की बात है तो इसे प्रकृति का विशिष्ट प्राणी माना जाता है। इसकी विशेषता है कि यह किसी अन्य प्राणी को अपना शिकार नहीं बनाती। पर्यावरण संतुलन में भी इनका बड़ा योगदान रहा है। यह जो शहद बनाती है उसका उपयोग मानव के आहार एवं औषधि के रूप में करता है। यही शहद मनुष्य को एंजाइम्स, विटामिन्स, मिनरल्स, पानी एवं एंटीऑक्सीडेंट देते हैं। जो व्यक्ति की मस्तिष्क की कार्यक्षमता को बढ़ाते हैं।

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मधुमक्खी में 170 प्रकार की रासायनिक गंध पहचानने की क्षमता होती है। इसकी खासियत है कि यह 6 से 15 मील प्रति घंटे की रफ्तार से उड़ती हैं। जिस तरह से वन घट रहे हैं उसका प्रभाव मधुमक्खियों पर भी पड़ा है। एक छत्ते से कम से कम पंद्रह किलो शहद मिल जाता है ठीक इसी तरह तेंदवा शहद जो तेंदू के पेड़ पर लगे छाते से निकाला जाता है। कुछ अन्य प्रमुख प्रकार के शहदों मे करंजा शहद (करंज के पेड़ से), नीम या कड़व शहद (नीम के पेड़ से), बबूलई शहद (बबूल के पेड़ से) और पहाड़ी शहद (चटटानो से) होते है। शहद निकालना और उसको बेचना सिर्फ इन वनवासियों का जीवन यापन का साधन ही नहीं है बल्कि इनकी जीवनशैली है।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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