माल्टा को नहीं मिला उत्तराखंड में बाजार
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में मिलने वाली संतरे की एक प्रजाति माल्टा सेहत के लिए बहुत लाभकारी है। इसमें एंथोसायनिन नामक एक एंटीऑक्सीडेंट होता है, जिसके कारण इसका रंग संतरे की तुलना में ज्यादा गहरा होता है। इस एंटीऑक्सीडेंट के कारण माल्टा गहरे लाल रंग का दिखता है, और खाने में थोड़ा कम खट्टा होता है। साथ ही यह आकार में छोटे होते हैं, लेकिन हृदय रोगों के जोखिम को कम करने जैसे बड़े कामों को करने की क्षमता रखता है। पहाड़ी इलाकों में होने वाले माल्टा के स्वाद के सभी लोग मुरीद होते हैं। इसे माल्टा ऑरेंज, ब्लड ऑरेंज के नाम से भी जाना जाता है। इसमें मौजूद विटामिन सी, विटामिन ए, पोटेशियम, मैंगनीज, एंथोसायनिन, एंटीऑक्सीडेंट, कैल्शियम, फाइबर जैसे पोषक तत्वों के कारण इसे पहाड़ी फलों का राजा भी कहा जाता है।खट्टे फलों में फ्लेवोनॉयड्स नामक यौगिक पाया जाता है, जो सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं। इनमें एंटी- डायबिटिक गुण भी होते हैं। इसके अलावा, साइट्रस फ्लेवोनोइड्स ग्लूकोज और इंसुलिन को भी कंट्रोल करने का काम करता है। ऐसे में डायबिटीज मरीजों के लिए माल्टा का सेवन लाभकारी साबित हो सकता है।
देश और दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना वाले माल्टा की उत्तराखंड में बेकद्री होती आई है। विपणन व प्रसंस्करण की उचित व्यवस्था न होने से यहां के मायूस फल उत्पादकों को मजबूरन औने पौने दामों में फल बेचने को विवश होना पड़ रहा है।पहाड़ा में रहने वाला शायद कोई ऐसा होगा, जिसने इसके स्वाद का आनंद ना लिया हो। माल्टे के जूस भी अब पैक्ड बोतलों में मिलने लगा है। माल्टे को अब तक जो छोटा-बड़ा बाजार मिला भी है, वह लोगों के खुद के प्रयासों से ही मिला है। सरकारी स्तर पर इसके लिए कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। प्रयास करना तो दूर की बात माल्टे की बागवानी करने वाले किसानों के साथ मजाक किया जा रहा है।
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दरअसल, सरकार ने माल्टे का समर्थन मूल्य आठ रुपये प्रति किलो तय किया है।आठ रुपये प्रति किलो कौन किसान अपने माल्टे बेचेगा। जिस माल्टे को तैयार करने में हाड़तोड़ मेहनत और दवा छिड़काव से लेकर मजदूरी तक का खर्चा लगाता है, उसे आठ रुपये में कौन किसान बेचेगा ? सवाल यह भी है कि ऐसे में कौन रिवर्स पलाायन करेगा। कौन शहरों को छोड़कर वापस पहाड़ों की ओर लौटेगा? क्या सरकार की पलायन रोकने की यही योजना है? क्या यह उसी योजना का हिस्सा है, जिसके लिए पलायन आयोग बनाया गया था? समाजिक सरोकारों के क्षेत्र में सालों से काम कर रही धाद ने इसके लिए एक खास अभियान शुरू किया है। सरकार ने जिस माल्टे का आठ रुपये प्रति किलो समर्थन मूल्य घोषित किया है। उसे बागवानों के घर से 20 रुपये किलो खरीदा जा रहा है। देहरादून में पौड़ी से पहुंचने वाले माल्टे की कीमत यहां 30 रुपये प्रति किलो तय की गई है। इसके अलावा नारंगी का दाम भी 60 रुपये प्रति किलो तय किया गया है।
माल्टा उत्तराखण्ड का महत्वपूर्ण फल है। यह शरीर की रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति को बढ़ाता है और विटामिन-सी की कमी को भी पूरा करता है। माल्टा निमोनिया, ब्लड प्रेशर और आंत संबंधित समस्याओं के लिए भी रामबाण है। यह साइट्रस प्रजाति का फल है, जिसका वैज्ञानिक नाम सिट्रस सीनेंसिस है। माल्टा सर्दियों में पेड़ पर पकता है। माल्टे का जूस पौष्टिक और औषधीय गुणों से भरपूर है। माल्टा का सेवन शरीर में एंटीसेप्टिक और एंटी ऑक्सीडेंट गुणों को बढ़ाता है। माल्टा के छिलके का उपयोग सौन्दर्य प्रसाधन, भूख बढ़ाने, अपच और स्तन कैंसर के घाव की दवा में भी किया जाता है। चमोली, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, बागेश्वर, चम्पावत तथा उत्तरकाशी में माल्टा बहुत मात्र में पैदा होता है। चमोली जिले के मंडल घाटी, थराली, ग्वालदम, लोल्टी, गैरसैंण तो माल्टा उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हैं।
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उत्तराखण्ड में माल्टा केवल स्थानीय बाजारों और पर्यटकों को बेचे जाने तक ही सीमित है। वहीं हिमाचल प्रदेश में माल्टे के लिए प्रसिद्ध घाटी मडूरा में कई सालों से फैव इण्डिया जैसी बड़ी कंपनियां माल्टे से कई उत्पाद तैयार कर रही हैं। हिमालय की तर्ज पर उत्तराखंड में भी माल्टे को बड़े स्तर पर कारोबार से जोड़ने पर काम किया जाना जरूरी है।उत्तराखंड और अन्य पहाड़ी राज्यों में बहुत अधिक मात्रा में पाया जाने वाला माल्टा सिर्टस प्रजाति का फल है जिसका वैज्ञानिक नाम सिट्रस सिनानसिस है। रुटेसीस परिवार से संबंधित इस फल का उद्भव एशिया महाद्वीप से हुआ है।
सामान्यतः यह फल समुद्र तल से लगभग 1200 से 3000मी० की ऊॅचाई तक उगाया जाता है। सर्दियों के मौसम में उत्तराखण्ड के मध्य ऊचाई तथा अधिक ऊचाई वाले स्थान प्रायः काफी ठण्डे होते हैं। जनवरी के महीने में हिमालय क्षेत्र के निचले इलाकों जिसमें राज्य की भौगोलिक क्षेत्र
के लगभग 41 प्रतिशत शामिल है, में उगता है। उत्तराखण्ड में माल्टा मुख्यतः सीमावर्ती जिलों चमोली,पिथौरागढ, रूद्रप्रयाग, बागेश्वर, चम्पावत तथा उत्तरकाशी में बहुतायत उत्पादित किया जाता है। उत्तराखण्ड उद्यान विभाग के एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में लगभग 321477 पेड है, जिसमें लगभग 16224.86 मैट्रिक टन उत्पादन किया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार अब यह पूरी तरह से निर्विवाद हो चुका है कि नींबू की सभी प्रजातियों का मूल हिमालय ही है. इस लिहाज से माल्टा भी हिमालय के रहवासियों को प्रकृति का रसदार उपहार है। माल्टे का वैज्ञानिक नाम सिट्रस सिनानसिस है। इसमें विटामिन सी. 53.2 मि.ग्रा., कार्बोहाइडेट 11.75 ग्राम, वसा 0.12 ग्राम, ऊर्जा 47.05 किलो कैलोरी, प्रोटीन 0.94 ग्राम, फाइबर 0.12 ग्राम, आयरन.0.1 मिलीग्राम, फास्फोरस 14 मिलीग्राम, मैग्नीशियम 10 मिलीग्राम, पोटेशियम 181 मिलीग्राम प्रति
100 ग्राम तक पाये जाते है। माल्टा नींबू प्रजाति का खुशबूदार एंटी ऑक्सीडेंट और शक्तिवर्धक फल है। इसका रस ही नहीं बल्की छिलका भी कारगर है।
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माल्टा के सेवन से जहां त्वचा चममदार रहती है वहीं दिल भी दुरुस्त रहता है. बाल मजबूत होते है।माल्टा के सेवन से गुर्दे की पथरी दूर होती है, चिकित्सक पथरी के रोगियों को माल्टा का जूस पीने के सलाह देते हैं। भूख बढ़ाने, कफ कम करने, खांसी, जुकाम में यह कारगर होता है माल्टा के छिलके से स्तर कैंसर के घाव ठीक होते हैं। छिलके से तैयार पावडर का प्रयोग करने से त्वचा में निखार आता है। छिलके से तैयार तेल बहुत फायदेमंद है। माल्टा उच्च कोलस्ट्रोल, उच्च रक्तचाप, प्रोस्टेड कैंसर में असरदार होता है। दिल का दौरे में भी फायदेमंद होता है।उत्तराखंड का माल्टा राज्य बनने के 23 साल बाद भी बाजार के लिए तरस रहा है।सैकड़ों हेक्टेयर क्षेत्र में सीट्रस प्रजाति के फलों का उत्पादन होता है। इस क्षेत्र में खाद्य प्रसंस्करण केंद्रों के अभाव व विपणन की व्यवस्था राम भरोसे होने से गरीब तबके का उत्पादक हमेशा ही मायूस रहता है। जंगली जानवरों का आतंक भी पहाड़ के जैविक उत्पादों और फलों की बेकद्री बढ़ाने का एक अहम कारक है। पहाड़ी इलाकों में होने वाले माल्टा के स्वाद के सभी लोग मुरीद होते हैं।
देश और दुनिया के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना वाले माल्टा की उत्तराखंड में बेकद्री होती आई है। विपणन व प्रसंस्करण की उचित व्यवस्था न होने से यहां के मायूस फल उत्पादकों को मजबूरन औने पौने दामों में फल बेचने को विवश होना पड़ रहा है।विपणन की कोई ब्यवस्था नही होने से माल्टा पक्षियों ने बर्बाद कर दिया ,कहाँ ले जायें बाजार मैदान के किन्नू,सन्तरा से भरा पड़ा है ,कोई खरीददार नही है । एक वर्ष पहले वन विभाग से पेड़ काटने की अनुमति माँगी थी लेकिन आज तक स्वीकृति नही मिली। कई गांवों में पेड़ माल्टा, नीबू व संतरे से लदे हैं, लेकिन इन्हें बाजार तक पहुंचाने की चुनौती बनी हुई है। इसका मुख्य कारण सही विपणन व्यवस्था के साथ ही यातायात के साधन का न होना है। यहां आज भी अनेक गांव सड़क सुविधा से नहीं जुड़ पाये हैं, जिस कारण कृषि-बागवानी के उत्पाद मार्किट तक नहीं पहुंच पाते हैं। मजदूर लगाकर फल बाजार में बेचने के लिये लाए जाते हंै। ऐसे में ढुलाई भाड़ा ही इतना हो जाता है कि किसानों के हाथ अकसर कुछ भी नहीं लगता। यहां खजुरानी, बसरखेत, सीरा व पैली सहित अनेक दूरस्थ इलाकों में तो फल पेड़ पर लगे-लगे ही सड़ जाते हैं।
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ग्रामीण बताते हैं कि सड़क सुविधा न होने के कारण व्यापारी भी गांव तक नहीं पहुंचते हैं। इससे काश्तकारों को माल को औने-पौने भावों पर ही बेचना पड़ता है। सरकार जिस माल्टा के लिए आठ रुपये प्रति किलो से ज्यादा दाम देने के लिए तैयार नहीं है, वही बाजार में 60 से 80 रुपये तक बिक रहा है। जी.आई. टैग से समर्थित उत्पादों की मार्केटिंग विकसित करने से स्थानीय कृषि और अर्थव्यवस्था को समर्थन मिलता है, क्योंकि यह उत्पादों को विशिष्ट स्थानों से संबंधित बनाए रखता है। ऐसे में बिचौलिये सरकारी समर्थन मूल्य से दो-चार रुपये ज्यादा देकर मोटा मुनाफा कमा रहे हैं और किसान खाली हाथ हैं। सरकार को लोगों को आसानी से विपणन उपलब्ध कराने की व्यवस्था बनानी होगी।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)