बार-बार जन्म नहीं लेते डॉ. रघुनन्दन सिंह टोलिया (Dr. Raghunandan Singh Tolia) जैसे व्यक्तित्व
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पिथौरागढ़ के मुनस्यारी तहसील के टोला गांव में ही बीता योजना आयोग में भी पर्वतीय विकास एजेंडे से जुड़ी समितियों के वह सदस्य रहे। अपने 35 साल के प्रशासनिक सेवाकाल में वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य गठन से पहले उत्तर प्रदेश में भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर अपनी सेवा दी। डाक्टर आरएस टोलिया अक्सर कहा करते थे, हम छोटे राज्य जरूर हैं, लोकिन हमारी मानसिकता बौनी नहीं होनी चाहिए। प्रदेश को लेकर चिंता उनकी कार्यशैली में हमेशा झलकती थी। मूल रूप से टोलिया प्रदेश की भोटिया जनजाति से ताल्लुख रखते थे। ऐसे में
बहुत से लोग यह भी मान सकते हैं कि कि इसी लिए उनका प्रदेश से लगाव रहा होगा, लेकिन और भी बहुत से अफसर हैं जो उत्तराखंड मूल के हैं, मगर उनमें टोलिया जैसी बात नहीं दिखती। टोलिया हर वक्त प्रदेश के लिए समर्पित रहते थे। ऊर्जा से इतना लबरेज कि किसी ने भी उन्हें कभी थकते नहीं देखा। विषयों को गहराई में जाकर समझना और सकारात्मक सोच के साथ हल ढूंढना टोलिया की कार्यशैली का अनिवार्य हिस्सा था।
एक नौकरशाह के तौर पर आम जनता के लिए वे राजनेताओं से भी ज्यादा आसानी से सुलभ थे। जनता के साथ संवाद बनाने की कला उनमें कूट-कूट कर भरी थी। कुछ अलग हटकर काम करने वाले लोगों को प्रोत्साहित करने में वे हमेशा आगे रहते थे। प्रदेश में जैविक खेती, चाय बागान, मशरूम उत्पादन, पुष्प उत्पादन, जड़ू-बूटी उत्पादन और पशुपालन समेत तमाम कुटीर उद्योग उनकी प्लानिंग का हिस्सा थे। उनकी हर प्लानिंग में प्रदेश के भविष्य की चिंता झलकती थी। रिटायरमेंट के बाद जब वे प्रदेश के पहले मुख्य सूचना आयुक्त बने तब भी वे पूरी शिद्दत के साथ राज्य की सेवा में लगे रहे। सबसे अहम बात यह कि पूरे सेवाकाल में उन पर बेईमानी का एक भी दाग नहीं लगा। उनके आलोचकों के पास भी उनके खिलाफ कहने को इससे ज्यादा कुछ नहीं था कि वे ‘एनजीओ मास्टर’ हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो टोलिया वाकई में अद्भुत अफसर थे। आज के अफसरों में वो बात नहीं है जो टोलिया में थी।
आज के नौकरशाह इस कदर मनीमाइंडेड हो चुके हैं कि उन्हें राज्य तथा जनता के हित से कोई सरोकार नहीं है। उनके लिए पद और कुर्सी सिर्फ और सिर्फ पैसा बनाने का जरिया है। उनके अंदर टोलिया जैसी ‘स्पिरिट’ नहीं कि, हर पल प्रदेश के भविष्य के लिए प्लानिंग करें। आज के नौकरशाहों में से ज्यादातर ऐसे हैं, जो फील्ड विजिट पर जाना ही नहीं चाहते। किसी घटना के चलते यदि प्रदेश के किसी इलाके का दौरा करना पड़े तो इन्हें हैलीकाप्टर की दरकार होती है। आज के नौकरशाहों से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे सड़क मार्ग से प्रदेश के दूरस्थ इलाकों का दौरा करें। आज के अफसरों से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि रिटायरमेंट के बाद टोलिया की तरह वे भी अपने पैत्रिक गांव में रहेंगे। आज के नौकरशाहों से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि देर रात एक बजे तक काम करने के बाद अगली सुबह वे दस बजे दफ्तर में दिखें। आज के नौकरशाहों से तो यह उम्मीद करना भी बेमानी है कि वि जिस पद पर बैठे हैं उसकी जिम्मेदारी को महसूस करें। एक सत्य यह भी है कि प्रदेश के विकास में डाक्टर टोलिया का जितना योगदान रहा, उस लिहाज से उन्हें मान्यता नहीं मिल सकी।
नौकरशाही के लिए वे प्रेरक हो सकते थे। लेकिन सवाल यह है कि क्या आज के नौकरशाह उनसे प्रेरणा ले पाएंगे ? हर काल में कुछ ऐसी शख्सियतें जरूर होती हैं जो हर हाल में अपनी मौजूदगी का एहसास कराती हैं। डाक्टर आरएस टोलिया भी एक ऐसी ही शख्सियत थे। जो लोग उत्तराखण्ड को करीब से जानते हैं, जो उत्तराखण्ड के बनने बिगड़ने के गवाह हैं, वो जानते हैं कि मौजूदा उत्तराखण्ड की नींव के पत्थरों में से एक थे डाक्टर टोलिया। बहुमुखी प्रतिभा और असाधारण ऊर्जा के धनी टोलिया को उत्तराखण्ड की संपदा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। उनकी पहचान सिर्फ एक नौकरशाह या प्रदेश के पूर्व मुख्यसचिव के तौर पर ही नहीं बल्कि इससे इतर उनकी एक पहचान उत्तराखण्ड के लिए रही है। सोलह साल के उत्तराखण्ड में आज जितना भी भला बुरा है उसमें टोलिया की अहम भूमिका रही है। इन सालों में प्रदेश में जहां-जहां भी जो कुछ अच्छा दिखता है, उसका बहुत श्रेय डाक्टर टोलिया को जाता है।
उत्तराखण्ड की जितनी गहरी समझ उन्हें थी, आज के दौर में संभवत: उतनी किसी और नौकरशाह या राजनेता को नहीं होगी। पहाड़ तो मानो उनकी आत्मा में रचता बसता था। डाक्टर टोलिया उन चंद अफसरों में थे जो राज्य बनने के वक्त से महत्वपूर्ण भूमिका में थे। राज्य की घोषणा
के बाद जब उत्तराखण्ड वजूद में आना था, राजधानी बननी थी, सारी व्यवस्थाएं खड़ी की जानी थीं तब टोलिया ने अपनी असाधारण क्षमता का शानदार प्रदर्शन किया। राज्य बनने के बाद उत्तर प्रदेश से बंटवारे की प्रक्रिया गतिमान थी, अफसरों से लेकर जमीन तक का बंटवारा होना था। नए सिरे से एक पूरा राजतंत्र स्थापित होना था। चारों और अफरातफरी का माहौल और वक्त बहुत कम। हर दिन लगता था कि 9 नवंबर 2000 तक पूरी तैयारियां हो पाना असंभव है। लेकिन जब डाक्टर टोलिया को कमान सौंपते हुए संयोजक नियुक्त किया तो सब कुछ मानों चौगुनी गति से होने लगा। टोलिया उस वक्त कुंमाऊ के आयुक्त थे। जिस दिन उनके आदेश हुए उसी दिन वे नैनीताल से देर रात देहरादून पहुंचे और सीधे अस्थाई विधानसभा का मुआयना करने जा पहुंचे।
रात- दिन खुद खड़े रहकर उन्होंने वो सब कर दिखाया जिसको लेकर संशय था। विधानसभा, सचिवालय, मुख्यमंत्री आवास, राजभवन, आदि तमाम इंतजाम जैसे-तैसे पूरे कराए गये।आज सोलह साल बाद इसे संयोग ही कहा जाए कि उस वक्त जहां जो व्यवस्था निर्धारित हुई, वह आज भी वहीं पर है। मसलन विधानसभा, सचिवालय, राजभवन और मुख्यमंत्री आवास, इन सबकी बनावट व आकार भले ही बदले हों लेकिन स्थल वही हैं। डाक्टर टोलिया नए राज्य के पहले एफआरडीसी (वन एवं ग्राम्य विकास आयुक्त) रहे। उसी वक्त लोगों ने जाना कि एफआरडीसी भी कुछ होता है। उनकी एक खासियत रही, जहां रहे जिस पद पर रहे उसे जीवंत कर दिया। उनकी ऊर्जा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि रात के 1 बजे तक दफ्तर में काम निपटाने के बाद अगले दिन सुबह दस बजे वे कुर्सी पर होते थे। काम करने का उनका अपना अलग अंदाज रहा, यही कारण भी रहा कि उनकी अच्छी खासी फालोइंग रही। उनके बारे में कहा भी जाता था कि टोलिया आधे अफसर हैं और आधे नेता।
बतौर नौकरशाह उनकी छवि एक अच्छे रणनीतिकार ‘प्लानर’ की तो रही, लेकिन प्लानिंग को अमल में लाने वाली ‘टीम’ की कमी उन्हें भी खलती रही। बेहद सादगी पसंद इस नौकरशाह के साथ सिस्टम कदमताल ही नहीं कर पाया। इसके बावजूद प्रदेश में राजस्व, वन, कृषि, उद्यान, पशुपालन जैविक खेती से जुड़ी तमाम संस्थाएं जो आज वजूद में हैं, डाक्टर टोलिया की देन हैं। उस दौर में यह भी कहा जाता रहा कि अगर अच्छा राजनैतिक नेतृत्व मिल जाए तो डाक्टर टोलिया का बतौर मुख्यसचिव बेहतर उपयोग हो सकता है। लेकिन हुआ उल्टा। बतौर मुख्यसचिव तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी को टोलिया नहीं भाए। उनकी गुडबुक के अधिकारी एम रामचंद्रन, एनएन प्रसाद,अमेरंद्र सिन्हा, संजीव चोपड़ा, आदि थे। नौकरशाही में अघोषित विभाजन कर मुख्यसचिव के समांतर एक अपर मुख्य सचिव नियुक्त कर एनडी तिवारी साफ संदेश भी दे चुके थे। बतौर नौकरशाह डा टोलिया की पारी वहां लगभग खत्म हो चुकी थी।
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भारत सरकार में उन्हें अनुसूचित जनजाति मामलों का सचिव नियुक्त किया गया, लेकिन वे नहीं गए और बाद में वीआरएस लेकर प्रदेश के प्रथम मुख्य सूचना आयुक्त नियुक्त हुए। आज प्रदेश में सूचना आयोग जहां खड़ा है,वह उनका अकेले अपने दम पर शुरु किया प्रयास है। प्रदेश में आरटीआई का खौफ उनकी ही कोशिश का परिणाम है। उनकी नौकरशाही की पारी की खास विशेषता यह रही कि पूरे सेवाकाल के दौरान उन पर एक भी घपले घोटाले का आरोप नहीं लगा। बतौर नौकरशाह उनकी छवि एक ईमानदार आईएएस की रही। इससे उनके धुर विरोधी भी इनकार नहीं करते। रिटायरमेंट के बाद अपनी दूसरी पारी में टोलिया पहले से अधिक व्यस्त और चर्चा में रहे। कभी इतिहासकार की भूमिका में रहे तो कभी शोघार्थी की तो कभी शिक्षक और यायावर की भूमिका में रहे। भूमि व राजस्व संबंधी कानूनों पर उनकी पुस्तक बेहद महत्वपूर्ण बताई जाती है। वहीं उनके द्वारा लिखी गई ब्रिटिश कुमांऊ गढ़वाल का इतिहास समेत कई और अहम पुस्तकें भी धरोहर के रूप में मौजूद हैं।
उत्तराखण्ड से जुड़ा हर विषय, चाहे वो ब्रिटिश काल से चल रहे कायदे कानून व व्यवस्थाओं का विषय हो या फिर भोगोलिक परिस्थितियों का ज्ञान, टोलिया अपने आप में एक संग्राहलय थे। बहुत बड़ा व्यक्तित्व था डाक्टर टोलिया का जो अब हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज हो चुका है। ऐसा संभव ही नहीं जब-जब उत्तराखण्ड का इतिहास लिखा जाए तो डाक्टर रघुनंदन टोलिया का जिक्र न आए। 6 दिसम्बर, 2016 में दुनिया से अलविदा होने की 69 वर्षों की उनकी सांसारिक यात्रा अदभुत थी। जीवनभर एक सच्चे हिमालय पुत्र होने का उन्होने फर्ज निभाया। वे बता गये कि सफलता की वैश्विक ऊंचाईयों को हासिल करने के बाद जीवन का सकून तो अपने मूल समाज में लौट कर ही मिलता है। ‘थिंक ग्लोबल एक्ट लोकल’ के वे प्रतिमूर्ति थे। गणित और इतिहास विषयों से परास्नातक यह विद्यार्थी ताउम्र निरंतर अध्ययनशील और घुम्मकड़ी में रहा।
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उत्तराखण्ड राज्य का सौभाग्य है कि उसके गठन के शुरूवाती दौर के नीति-नियन्ताओं में डाॅ. आर. एस. टोलिया का मार्गदर्शन मिला है डॉक्टर टोलिया जब भी मुनस्यारी आते थे, अपनी बैठक में जिलाधिकारी को पूछते थे कि वह मिलम गांव गए कि नहीं? एक बार जब उनसे ही यह सवाल पूछा गया कि आप हर जिलाधिकारी से यह सवाल क्यों पूछते है, तो डॉक्टर टोलिया का जवाब था, कि जब नौकरशाह कठिन जिंदगी में रहने वाले लोगों के बीच जाएंगे, तभी वह समझ पाएंगे कि हिमालय क्षेत्र के लोग किन कठिनाइयों में रहते है। डॉक्टर टोलिया का हमेशा यह मानना रहा कि प्रत्येक आईएएस तथा पीसीएस अधिकारियों को विकास की बारीकी समझने के लिए सबसे पहले खंड विकास अधिकारी केपद पर कम से कम 3 वर्ष कार्य करना चाहिए।डॉक्टर टोलिया के निधन के बाद दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर 908 पेज का एक महाग्रंथ तैयार किया है।
इस महाग्रंथ में डॉक्टर टोलिया द्वारा लिखे गए महत्वपूर्ण पुस्तक, रिपोर्ट्स, मोनोग्राफ्स, आलेख, नोट्स और सार्वजनिक व्याख्यान को स्थान दिया गया है। “THE ESSENTIAL R.S.TOLIA” के नाम से संपादित इस महाग्रंथ में हिमालय क्षेत्र के विकास के स्वरूप को आज भी हम पढ़ व समझ सकते सकते है। एटीआई नैनीताल का नाम डाक्टर टोलिया के नाम पर रखा गया है। एटीआई नैनीताल में एक कक्ष में उनका प्रकाशित साहित्य रखा गया है। बताते है कि एटीआई नैनीताल को प्रशिक्षण संस्थान का स्वरूप तथा यहां पुस्तकालय का विकास इसके
महानिदेशक के रूप में उनके द्वारा ही किया गया।
डॉ रघुनंदन सिंह टोलिया उत्तराखंड प्रशासन अकादमी उनके जीवन और उनके कार्यों पर वर्ष 2000 में उत्तराखंड सरकार के तत्कालीन ग्राम्य विकास मंत्री रहे डॉक्टर मोहन सिंह रावत गांववासी कहते है कि मंसूरी अकादमी में आईएएस अधिकारियों को प्रशिक्षण के दौरान डॉक्टर टोलिया पढ़ाया जाना चाहिए। वे कहते है कि अकादमी में डॉक्टर टोलिया के दर्शन पर तीन दिवसीय व्याख्यान माला भी आयोजित की जानी चाहिए तभी उत्तराखंड की सेवा में आने वाले नौकरशाहों की दृष्टि उत्तराखंड के प्रति स्पष्ट होगी। आशा की जानी चाहिए कि उत्तराखण्ड में उनके जैसा प्रशासक, नीति-निर्धारक और शिक्षाविद नयी पीढ़ी से सामने आयेगा। उत्तराखंड के प्रथम मुख्य सूचना आयुक्त बनने के बाद उन्होंने सूचना के अधिकार को आमजन में लोकप्रिय बनाने के लिए कार्य किया। सेवानिवृत्ति के बाद इतने बड़े पदों में रहने के बाद भी डॉक्टर टोलिया ने मुनस्यारी स्थित ग्राम पंचायत सरमोली में अपना निवास बनाया।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )