उत्तराखंड के पहाड़ों में सूखे जैसे हालात
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में खेती हमेशा जुए के खेल जैसा ही रहा है। कभी सूखे की मार तो कभी बाढ़ का खतरा। अन्नदाता के लिए अन्न उगाना कभी आसान नहीं रहा। मानूसन पर निर्भर होने के कारण खेती हर बार लाभ का सौदा भी नहीं रही।पर्वतीय क्षेत्रों में इस बार सूखे मौसम के कारण हालात लगातार खराब होते जा रहे है। हालत यह है कि उपजाऊ क्षेत्रों में काश्तकारों ने रबी की फसल तक नहीं बोई है। काश्तकारों व बागवानों की
चिन्ता बढ़ने लगी है। अब तक वर्षा नहीं होने से कृषि व बागवानी प्रभावित हो चुकी है। बागवानी के लिए वर्षा व ऊंचाई वाले इलाकों में बर्फबारी इन दिनों आवश्यक होती है। लेकिन वह दूर-दूर तक नहीं है। यदि अब भी यही हालत रहे तो इस बार काश्तकारों की कमर टूट जाएगी। इसी तरह बागवानी करने वाले लोगों में भी चिन्ता हुई है। जाड़ों में सेब,आडू, खुमानी, पूलम आदि फलों के बागानों को भरपूर हिमपात की जरूरत होती है।लेकिन इस बार हिमपात तो दूर वर्षा तक नहीं हुई है। ऐसे में इसका सर्वाधिक प्रभाव अब पहाड़ों की खेती किसानी पर दिख रहा है।
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मालूम हो कि पर्वतीय क्षेत्र में नवम्बर व दिसम्बर से रबी की फसल बुआई का कार्य शुरू होता है। वहीं बागवानी की तैयारी भी इन्हीं दिनों की जाती है। पर्वतीय क्षेत्रों में सिंचाई सुविधा अधिक नहीं होने से यहां 80 प्रतिशत कृषि व बागवानी वर्षा पर निर्भर है। उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में 1981 से शुरू होने वाली 40 साल की अवधि में बारिश में भारी कमी और तापमान पैटर्न में भी बदलाव दर्ज किया गया है। इसकी वजह से तराई क्षेत्र में फसल उत्पादन पर खराब प्रभाव पड़ सकता है।
उत्तराखंड में के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध से पता चला कि क्षेत्र में न्यूनतम तापमान में बड़ी वृद्धि हुई है, जबकि अधिकतम तापमान में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। पिछले सप्ताह भारत मौसम विज्ञान विभाग के “मौसम जर्न” में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, इस बदलाव के कारण फसलें समय से पहले पकने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे फसल की पैदावार कम हो सकती है। मालूम हो कि पर्वतीय क्षेत्र में नवम्बर व दिसम्बर माह से रबी की फसल बुआई का कार्य शुरू होता है। वहीं बागवानी के तैयारी भी इन्हीं दिनों की जाती है। लेकिन आधी जनवरी बीत जाने के बाद भी वर्षा व बर्फवारी नही हुई है। इसका सबसे अधिक कुप्रभाव पड़ रहा है।
पहाड़ों में अच्छे उत्पादन के लिए बागानों में इन दिनों नमी के लिए वर्षा व बर्फबारी की भी जरूरत होती है। लेकिन अभी तक वर्षा ऋतु के बाद वर्षा अब तक नहीं हो पाई है। पर्वतीय क्षेत्रों में सिंचाई सुविधा अधिक नहीं होने से यहां 80 प्रतिशत कृषि व बागवानी वर्षा पर निर्भर है। लेकिन
पिछले तीन वर्षों से रूखे मौसम ने काश्तकारों की कमर ही तोड़ दी है। सरकार को पर्वतीय क्षेत्र के कई जिलों को सूखाग्रस्त घोषित करना पड़ा। इस वर्ष भी मौसम ने पुनरावृत्ति की हैं वर्षा ऋतु के बाद नैनीताल सहित अन्य जिलों में वर्षा तक नहीं हुई है। किसानों ने अब तक खेतों की जुताई तक नहीं की है।
पहाड़ों में खेती करना काफी मुश्किल होता है। यहां खेती बारिश पर ही निर्भर है जिसे देखने हुए सरकार ने गांव-गांव तक सिंचाई योजना तो पहुंचा रखी है लेकिन सरकार का सिंचाई विभाग सोया हुआ है जिनके द्वारा बनाई गई नहरों में पानी ही नहीं आता है, ठेकेदारों के साथ मिलकर लाखों की नहरें तो विभाग बना देता है लेकिन उसमें पानी की एक बूंद भी नहीं आती है जिसका खामियाजा किसानों को भुगतान पड़ता है. गांव
की करें तो यहां के स्थानीय निवासी का कहना है कि यहां एक समय मे खेती की खूब पैदावार होती थी लेकिन सिंचाई की व्यवस्था ना होने अब यहां चावल की खेती भी नहीं होती है, विभाग ने यहां सिंचाई के लिए लाखों की लागत से सिंचाई नहर तो बना रखी हैं लेकिन अभी तक पिछले पांच सालों से इस नहर में एक बूंद पानी नहीं आ सका है, विभाग और ठेकेदारों की मिलीभगत से लाखों रुपये की फिजूलखर्ची किसानों के नाम पर की गई है, उत्तराखंड वर्तमान में शीतकालीन वर्षा में 99 प्रतिशत की अभूतपूर्व कमी का सामना कर रहा है, जिससे पर्यावरणविदों और किसानों में समान रूप से चिंता है।
वर्तमान मौसम के मिजाज में बारिश के तत्काल कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। पिछले दो दिनों में कुछ ऊंचाई वाले क्षेत्रों में हल्की बर्फबारी हुई है, लेकिन यह नगण्य है।”उन्होंने आगे कृषि पर प्रभाव को स्वीकार करते हुए इस बात पर प्रकाश डाला कि, “यह जारी सूखापन राज्य भर के किसानों के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियाँ पैदा करता है।
(लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)