चिपको आंदोलन (chipko movement) को भूल गए ग्रामीणों ने ‘विकास’ आख्यान में दरार को किया उजागर
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
1970 के दशक से, वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं ने पारिस्थितिक रूप से नाजुक पर्वतीय क्षेत्र में सड़कों और होटलों के लापरवाह विस्तार और पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण के खिलाफ लगातार चेतावनी जारी की, लेकिन उन्हें अनदेखा किया गया। इस घटना को अब पचास वर्ष हो रहे हैं, जिसे चिपको आंदोलन के नाम से जाना जाता है। चिपको के बाद वनों, चरागाह और जल पर सामुदायिक नियंत्रण के लिए जमीनी पहलों की अनेक शृंखलाएं आयोजित की जा चुकी हैं। अध्येताओं ने इन संघर्षों का विश्लेषण कर बताया कि इन्होंने भारत के विकास पथ के पुनर्संयोजन का रास्ता दिखाया है। देश की आबादी के घनत्व और उष्णकटिबंधीय पारिस्थितिकी की नाजुकता को देखते हुए तर्क दिए गए कि गहन ऊर्जा, गहन पूंजी, गहन संसाधन केंद्रित आर्थिक विकास के पश्चिमी मॉडल का अनुसरण करना भूल थी।
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देश ने जब 1947 में ब्रिटिश राज से आजादी पाई थी, तब उसे कहीं अधिक जमीनी, समुदाय-उन्मुख और पर्यावरण की दृष्टि से जवाबदेह विकास का मॉडल अपनाना चाहिए था। यह भी कहा गया कि कोई अब भी संशोधन कर सकता है। राज्य और नागरिक दोनों को चिपको के सबक पर ध्यान देना चाहिए और उसके अनुसार सार्वजनिक नीतियों और सामाजिक व्यवहार को संशोधित करना चाहिए। एक नए आर्थिक विकास के मॉडल की जरूरत थी, जो कि भविष्य की पीढ़ियों के हितों और उनकी जरूरतों को प्रभावित किए बिना बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी से उबार सके। 1980 के दशक में भारत में पर्यावरण संबंधी बहस अपने चरम पर थी। यह बहस कई स्तरों पर हुई। इसने पर्यावरणीय संकट से उठे नैतिक सवालों को सामने रखा, जिनमें पर्यावरणनीय स्थिरता को प्रोत्साहन देने के लिए राजनीतिक शक्ति के वितरण में आवश्यक बदलाव और ऐसी प्रौद्योगिकी से जुड़े सवाल शामिल थे, जो कि आर्थिक और पर्यावरणीय उद्देश्यों की एक साथ पूर्ति कर सकें। इस बहस में संसाधन से जुड़े सभी क्षेत्र, वन, जल, परिवहन, ऊर्जा, जमीन और जैवविविधता शामिल थे।
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सरकार को मजबूर होकर पहली बार केंद्र के साथ ही राज्यों में एक पर्यावरण मंत्रालय बनाना पड़ा। नए कानून और नई नियामक संस्थाएं बनानी पड़ीं। पहली बार हमारे अग्रणी उच्च संस्थानों में पर्यावरण से जुड़े सवालों पर वैज्ञानिक शोध को जगह मिली। 1980 के दशक में पर्यावरण के मामले में जो कुछ हासिल किया गया, वह बाद के दशकों में, व्यापक रूप से 1991 में अपनाई गई आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के कारण गंवा दिया गया। उदारीकरण कई मायनों में आवश्यक और अतिदेय दोनों था। नेहरू और इंदिरा काल के लाइसेंस-परमिट-कोटा राज ने उद्यमशीलता को दबा दिया था और विकास को रोक दिया था। हालांकि, जबकि बाजार की स्वतंत्रता ने उत्पादकता और आय में
वृद्धि की, एक क्षेत्र जिसे अभी भी विनियमन की आवश्यकता थी, वह था पर्यावरणीय स्वास्थ्य और सुरक्षा। 1990 के दशक और उसके बाद पर्यावरण का क्षरण तेजी से हुआ है और यह विडंबना ही है कि इस दौरान पर्यावरणविदों पर हमले भी बढ़े। खनन कंपनियों ने मध्य भारत के बड़े हिस्से में वनों को बर्बाद किया और आदिवासियों को बेदखल कर दिया और जिन लोगों ने इन अपराधों का विरोध किया उन्हें नक्सली करार
दिया गया और उन्हें अक्सर लंबे समय तक जेल में डाल दिया गया, जिससे (जैसा कि स्टेन स्वामी के मामले में हुआ) जेल में मौत तक हो गई।
खनन और संसाधनों के दोहन के अन्य रूपों में शामिल कंपनियों ने सभी दलों के राजनेताओं के साथ घनिष्ठ साझेदारी बढ़ाई और अनुबंधों और सार्वजनिक जांच से दंडमुक्ति के बदले उनकी हथेलियां गरम कीं। मुख्यधारा के प्रेस में कारोबार-समर्थक स्तंभकार पर्यावरण कार्यकर्ताओं को बलि का बकरा बनाने में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। चिपको के पचास साल बाद यदि सार्वजनिक बहसों में पर्यावरण की चिंता का जिक्र होता भी है, तो यह जलवायु परिवर्तन के साथ ही होता है।वातावरण में गैसों के मानव-प्रेरित संचय के परिणाम आज शायद सबसे बड़ी पर्यावरणीय चुनौती बन सकते हैं। हालांकि यह कोई अकेली चुनौती नहीं है। सच यह है कि जलवायु परिवर्तन नहीं होता तब भी भारत एक पर्यावरणीय आपदा क्षेत्र होता। पूरी दुनिया में वायु प्रदूषण की उच्चतम दर उत्तर भारत के शहरों में पाई गई है। जल प्रदूषण शायद ही कम गंभीर है – वास्तव में, जिन महान नदियों के किनारे ये शहर ऐतिहासिक रूप से स्थित थे, वे जैविक रूप से मृत हो चुकी हैं। हर जगह भूजल का स्तर नीचे जा रहाहै।मिट्टी में रासायनिक सम्मिश्रण उच्च स्तर पर है। बेतरतीब और अनियमित भवन निर्माण से नाजुक तटीय पारिस्थितिकी तबाह हो रही है। पिछले पैराग्राफ में उल्लिखित पर्यावरणीय गिरावट के कई रूपों में केवल सौंदर्य प्रभाव नहीं है। इनकी गहन आर्थिक लागत भी है।
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वायु और जल प्रदूषण लोगों को बीमार करते हैं और उन्हें काम से बाहर कर देते हैं। मिट्टी जब जहरीली होती है तो पूर्व में उत्पादक रही जमीन खेती के लायक नहीं रह जाती। वनों और चरागाह का क्षरण ग्रामीण आजीविका की सुरक्षा को कम करता है।पर्यावरण को होने वाले नुकसान के आर्थिक परिणामों ने अमूमन भारत के नामी अर्थशास्त्रियों, जिनमें नोबेल विजेता भी शामिल हैं, का ध्यान नहीं खींचा है। हालांकि उनके कुछ कम चर्चित और जमीनी स्तर के कुछ सहयोगी इस सवाल को लेकर अधिक सजग हैं। एक दशक पहले अर्थशास्त्रियों के एक समूह ने भारत में
पर्यावरण क्षरण की वार्षिक लागत का आकलन किया था और बताया था कि यह करीब 37.5 खरब रुपये है, जो कि जीडीपी के 5.7 फीसदी के बराबर है (देखें मुत्थुकुमार मणि, संपादक, ग्रीनिंग इंडिया ग्रोथः कॉस्ट, वेल्यूवेशन, ऐंड ट्रेड ऑफ्स, 2013)। यह पहचानना महत्वपूर्ण है कि भारत में पर्यावरण क्षरण का बोझ मुख्य रूप से गरीबों परपड़ताहै।सिंगरौली क्षेत्र के ग्रामीण निवासी, जो दिल्ली की बिजली आवश्यकताओं के एक बड़े हिस्से की आपूर्ति करते हैं, स्वयं बड़े पैमाने पर बिना बिजली के हैं, जबकि कोयला खनन के परिणामस्वरूप जीवन के लिए खतरनाक प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है। (देखें, वसुधा, डार्क ऐंड टॉक्सिक अंडर लैम्पः इंडस्ट्रियल ऐंड हेल्थ डैमेज इन सिंगरौली, इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली, 4 मार्च, 2023) चिपको के सबक कि, मनुष्यों को जीवन जीने और यकीनन समृद्धि के लिए प्रकृति का सम्मान करना चाहिए और उसके द्वारा तय सीमा में रहना चाहिए, का आज भारत में हर जगह उल्लंघन हो रहा है। और कहीं नहीं इतनी क्रूरता से यह सब हो रहा है, जितना कि चिपको की अपनी हिमालयी मातृभूमि में।
रैनी गांव में अपने पुराने, जीर्ण- शीर्ण घर की छत पर बैठी हैं, और सावधानीपूर्वक फूलगोभी के पत्तों को तनों से अलग कर रही हैं। अपनी
भोटिया जनजाति की अन्य महिलाओं की तरह, वह भी एक पत्थर का हार पहनती है, जो सस्ता है लेकिन उसके लिए मूल्यवान है, जो गर्व का प्रतीक है। उत्तराखंड की पहाड़ियों में बसे इस गाँव तक पहुँचने के लिए 30 मिनट की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। और जैसे ही आप मुख्य सड़क से उतरते हैं, रैणी और उसके आसपास के गाँव हरे-भरे हरियाली से आच्छादित दिखाई देते हैं। कोई मोबाइल नेटवर्क कवरेज नहीं है. समुद्र तल से 3,700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रैनी ऋषिगंगा नदी के ऊपरी ढलान पर स्थित है। जहां लोकसभा का चुनाव का रणभेरी बढ़ चुका है वही जोशीमठ के रेणी ऋषि गंगा के आपदा पीड़ित आज भी आपदा की धंस झेल रहे हैं कई गांव में आज रसियोयों के सहारे जिंदगी चलती है कहानी ट्रॉली के सहारे जिंदगी नदियों से आर पार होती है दूसरी तरफ सरकारें पलायन की बात करती है उन गांव से पलायन निश्चित है जहां वर्ष 2021 की आपदा से पुल बह गए थे आज तक नहीं बने हैं भल्ला गांव सूखीं के प्रधान लक्ष्मण सिंह बुटोला कहते हैं कि कई बार हमने
विधायकों सांसदों जिलाधिकारी को इन पुलों के संबंध में पत्र व्यवहार किया कोई सुनने वाला नहीं है लगातार रैणी जुवां ग्वाड गगापार के लोग पुल निर्माण की बात करते रहे हैं कोई सुनने वाला नहीं है सीमांत क्षेत्र के लोग आज भी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे हैं कहीं सड़क की मांग है तो कही पुलों की मांग की जा रही है लोगों की विस्थापन की समस्या जैसी की वैसी हैं नेताओं को वोट चाहिए बाकि जनता से कुछ लेना देना नहीं है।
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रैणी गांव के प्रधान कहते हैं कि लगातार रैणी आपदा के बाद हम लोग पैदल पुलों की मांग कर रहे हैं हमारी बात कोई सुनने वाला नहीं रेणी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोग जानते हैं किंतु यहां की समस्याएं सुनने वाला कोई नहीं है उन्होंने कहा कि हमने विधायक से भी कई बार इस प्रकार में बात रखी उसके बाद भी कोई कार्यवाही नहीं हो पाई। लोगों ने एक ज्ञापन पत्र जिलाधिकारी चमोली को प्रेषित कर कहां है कि क्यों नहीं वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव का बहिष्कार कर दिया जाए जब हमारे कार्य होने ही नहीं है तो वोट देकर क्या फायदा है एक ज्ञापन पत्र जिलाधिकारी को प्रेषित कर ग्रामीणों ने निर्णय लिया है वह वोट बहिष्कार करेंगे और यह चिपको आंदोलन का महत्वपूर्ण गांव हैजहां मानव ने पानी को समाप्त कर दिया, पेड़ों को काट दिया, ग्रह की सतह को एक रेगिस्तान में बदल दिया। उनकी चेतावनियों पर ध्यान देने के लिए अब भी देर नहीं हुई है। उत्तराखंड के बाढ़ से तबाह गांवों में भूले-बिसरे पीड़ितों की दुर्दशा राजनीतिक बयानबाजी और जमीनी हकीकत के बीच
स्पष्ट अंतर को उजागर करती है।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)