मैदान से पहाड़ तक झुलसाने वाली गर्मी - Mukhyadhara

मैदान से पहाड़ तक झुलसाने वाली गर्मी

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मैदान से पहाड़ तक झुलसाने वाली गर्मी

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड समेत देश के कई राज्यों के लोगों को इस साल झुलसाने वाली गर्मी का सामना करना पड़ सकता है। दरअसल, पिछले कुछ दशकों से लगातार तापमान में इजाफा हो रहा है। जिससे न केवल लोग हलकान होंगे। बल्कि, जंगल भी खूब धधकेंगे। साथ ही ग्लेशियर पर भी इसका सीधा असर देखने को मिलेगा जिसे लेकर मौसम वैज्ञानिक, ग्लेशियर विशेषज्ञ और पर्यावरणविद् वैज्ञानिक चिंता जाहिर कर रहे हैं। देश दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग एक गंभीर समस्या बनी हुई है। मौजूदा स्थिति ये है कि लगातार तापमान में बढ़ोतरी देखी जा रही है। तापमान में अचानक बढ़ोतरी नहीं हुई है बल्कि, पिछले कुछ दशकों से तापमान में तेजी से वृद्धि हो रही है। यही वजह है कि वैज्ञानिक इस बात का दावा कर रहे हैं कि साल 2024 में भीषण गर्मी पड़ने की संभावना है। मौसम विज्ञान केंद्र की मानें तो इस साल देश में अप्रैल से जून महीने के बीच काफी ज्यादा गर्मी पड़ेगी। यानी तापमान सामान्य से 2 से 3 डिग्री ज्यादा रहने वाला है. जिसका असर सीधे लोगों पर देखने को मिलेगा।

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उत्तराखंड की बात करें तो प्रदेश में भी पिछले कुछ दशकों से तापमान में बढ़ोतरी हो रही है, जिसके चलते पर्वतीय क्षेत्रों पर भी असर पड़ता दिखाई दे रहा है। देश के तमाम हिस्सों में अगर तापमान बढ़ता है तो हिमालयी राज्यों पर भी इसका असर पड़ेगा। इससे उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर के पिघलने की संभावना भी तेज हो जाएगी। साथ ही जंगलों में आग लगने की घटनाओं के भी बढ़ने की संभावना है।दरअसल, तापमान बढ़ने का मुख्य वजह ग्लोबल वार्मिंग है, जिसके चलते ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। अगर पारा चढ़ेगा तो ग्लेशियर के पिघलने गति भी तेज होने की संभावना है। लगातार बढ़ते तापमान को देखते हुए हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर का अध्ययन किया गया। जिससे पता चला है कि न सिर्फ ग्लेशियर पिघल रहे हैं। बल्कि, ग्लेशियर झील भी बड़े हो रहे हैं हिमालयी क्षेत्रों में साल 1993 से 2022 के बीच करीब 0.028°C (डिग्री सेल्सियस) तापमान में बढ़ोतरी हुई है। इसी तरह से साल 2013 से 2022 के बीच 0.079°C (डिग्री सेल्सियस) तापमान में बढ़ोतरी हुई है।

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यानी हर 10 साल में दो से तीन गुना औसतन तापमान में बढ़ोतरी हो रही है। अगर ऐसे ही तापमान में बढ़ोतरी होती रही तो अगले 50 सालों में कोई आपदा आने की आशंका होगी तो वो आपदा 50 साल से काफी पहले आ सकती है। उच्च हिमालय क्षेत्र में मौजूद ग्लेशियर हमारे लिए एक पानी का भंडार हैं। जिसके पिघलने से नदियों में पानी का फ्लो बना रहता है। जिसका इस्तेमाल आम जीवन में सभी जीव करते हैं, लेकिन अगर तेजी से ग्लेशियर पिघलेंगे तो आने वाले समय में पानी की किल्लत होना लाजमी है। इसके साथ ही ग्लेशियर तापमान को बैलेंस करने में भी एक बड़ी भूमिका निभाता है। क्योंकि, गर्मियों के दौरान ग्लेशियर की वजह से खासकर हिमालय क्षेत्र में तापमान सामान्य ही बना रहता है, लेकिन अगर तेजी से ग्लेशियर पिघलने लगे तो हिमालय क्षेत्र में गर्मी का असर भी ज्यादा महसूस होगा। जिससे जीव जंतुओं के साथ ही जंगलों पर भी इसका बड़ा असर पड़ेगा।

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विशेषज्ञों के अनुसार, 2050 तक, भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में तापमान जीवित रहने की सीमा को पार कर जाएगा, जिसके लिए निष्क्रिय शीतलन उपायों को अपनाने की आवश्यकता होगी। अतिरिक्त गर्मी क्षेत्रीय और मौसमी तापमान को बढ़ाती है, जिससे ध्रुवीय क्षेत्रों और हिमालय जैसी पर्वत श्रृंखलाओं में बर्फ का आवरण कम हो जाता है, भारी वर्षा तेज हो जाती है और पौधों और जानवरों के आवास क्षेत्र और मनुष्यों के रहने की जगह भी प्रभावित होती है। हम भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में भूस्खलन, जंगल की आग, अचानक बाढ़ और चक्रवाती तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति देख रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर मानव और आर्थिक नुकसान हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र अंतरसरकारी पैनल की नवीनतम रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि ग्लोबल वार्मिंग ने जो बदलाव लाए हैं, वे सदियों से सहस्राब्दियों तक अपरिवर्तनीय हैं, विशेष रूप से समुद्र, बर्फ की चादरें और वैश्विक समुद्र स्तर में परिवर्तन।

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इसलिए वैज्ञानिक अनुसंधान से निकलने वाली चेतावनी स्पष्ट है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की दर को कम करने के हमारे सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद मौसम में परिवर्तन होना तय है और अधिक से अधिक हम केवल इसके प्रभाव को कम कर सकते हैं। इसके अलावा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग करते हुए नए अध्ययनों से पता चला कि गैस उत्सर्जन में वृद्धि और गिरावट की परवाह किए बिना, जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए समाजों को शमन और अनुकूलन दोनों के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए साधन विकसित करने की आवश्यकता
है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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