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बचपन में नहीं देखा स्कूल, अब लोग करते हैं उनकी कविताओं पर रिसर्च

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बचपन में नहीं देखा स्कूल, अब लोग करते हैं उनकी कविताओं पर रिसर्च

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  डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पर्यटन नगरी अल्मोड़ा को बुद्धिजीवियों का शहर भी माना जाता है. ऐसे कई महान लेखक और कवि रहे हैं, जिनकी यह जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है। ऐसे महान लेखक और कवि जिन्होंने अपनी लिखी कुमाऊंनी कविताओं से सभी को हैरान किया था. कुमाऊंनी कविताओं के विकास में इनका अहम योगदान है। इस शख्सियत का नाम है शेरदा ‘अनपढ़’. शेरदाका जन्म 3 अक्टूबर 1933 को अल्मोड़ा के मालगांव में हुआ था। शेरदा की कुमाऊंनी कविताओं में आपको पहाड़ के जीवन, पहाड़ के लोग और पहाड़ के दर्द के बारे में पढ़ने के लिए मिता है। गुच्ची खेलनै बचपन बीतौ/ अल्माड़ गौं माल में/ बुढ़ापा हल्द्वानी कटौ/ जवानी नैनीताल में/ अब शरीर पंचर हैगौ/ चिमड़ पड़ गयी गाल में/ शेर दा सवा सेर ही/ फंस गौ बडऩा जाल में।’उनका बचपन बड़े संघर्ष में बीता। कभी वह किसी की गाय-भैंस चराने जंगल जाते तो कभी छोटे बच्चे को खिलाने का काम कर देते थे। छोटे बच्चे को झूला झुलाने से लेकर कई काम उन्होने किये। का काम करता था तो बाद में अपने इसी अनुभव को इस कविता में व्यक्त किया-उन्होने अपने बचपन के समय को ​कविता के माध्यम से जो कहा वह हम अपने पाठकों के सम्मुख रख रहे है।‘पांच सालैकि उमर/गौं में नौकरि करण फैटूं/ काम छी नान भौक/ डाल हलकूण/ उलै डाड़ नि मारछी/ द्विनौका है रौछि/मन बहलुण।’

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शेरदा को उस समय इस काम के लिये आठ आने तक मिल जाते थे। मजे की बात तो यह है कि शेरदा अनपढ़ ने कभी स्कूल की चौखट पर कदम तक नहीं रखा था पर उनकी कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है मानो किसी बड़े लेखक ने इन कविताओं को शब्द जाल में पिरोया है. स्कूल न जाने की वजह से ही उन्हें अनपढ़ उपनाम मिला। आठ वर्ष की आयु में शेरदा (sher da anpad) ने किसी महिला शिक्षिका के घर पर काम किया। और इस शिक्षिका ने जिसे वह बचुली मास्टरनी कहते थे ने उन्हे अक्षरों का बोध कराया। चार साल उनके वहां बिताने के बाद शेरदा अपने भाई के साथ आगरा चले गये। उनके भाई रोजगार कार्यालय में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पद पर कार्य कर रहे थे। और वहां पर वह शुरूवाती एक वर्ष घूमते ही रहे। एक ​दिन अचानक उन्हे पता चला कि आर्मी की भर्ती हो रही है तो वह आर्मी भर्ती के कार्यालय पहुंच गये। और वहां बच्चा कंपनी की भर्ती में लाइन में लग गये। वहां भर्ती कर रहे अफसर ने उन्हे एक अखबार पढ़ने को दिया तो उन्होने उसे पूरा पढ़कर सुना दिया और 31 अगस्त 1950 को उन्हे बच्चा कंपनी में भर्ती कर लिया गया। जहां से उन्हे मेरठ भेजा गया।

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बच्चा कंपनी में चार साल गुजारने के बाद बालिग होने पर वह फौज में सिपाही बन गये। वहां उन्हे जालंधर भेजा गया। जालंधर से गाड़ी चलाना सीखने के बाद उन्हे पोस्टिंग मिल गई। इसके बाद ड्रयूटी में वह झांसी उसके बाद जम्मू कंश्मीर चले गये। 12 वर्ष वहां ​बिताने के बाद वह महाराष्ट के पूना चले गये। अगर यह कहें कि पूना शहर ने उनके अंदर के कवि को बाहर निकाला तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी। इसके बाद तो मानो शेरदा ने पीछे मुड़कर नही देखा। इसके बाद उनका चयन नैनीताल में खुले ”गीत एवं नाटय प्रभाग” में हो गया। गीत एवं नाटय प्रभाग में काम करने के दौरान शेरदा ने काफी ​कवितायें लिखी और उनकी कवितायें लोगों द्वारा सराही भी गई। इसके बाद आकाशवाणी लखनऊ में भी उन्हे बुलाया जाने लगा।दरअसल शेरदा अनपढ़ एक महान लोक लेखक और कवि थे, जिन्होंने अपनी कुमाऊंनी कविताओं के जरिए पहाड़ों के जनजीवन के बारे में बताया। करीब 300 से भी ज्यादा कुमाऊंनी कविताएं उन्होंने लिखी थी।

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शेरदा के बेटे आनंद बिष्ट ने कहा कि उनके पिता कभी स्कूल नहीं गए पर जब वह छोटे थे तब अल्मोड़ा में उन्होंने एक शिक्षिका के घर में नौकरी की थी। शिक्षिका ने उन्हें मौखिक शिक्षा दी। कुछ समय के बाद वह फौज में भर्ती हो गए, जहां से उन्होंने थोड़ी बहुत शिक्षा ग्रहण की. फौज में करीब 10 साल नौकरी करने के बाद उन्हें टीबी की बीमारी हो गई और वह वापस आ गए। उसके बाद उन्होंने कुमाऊंनी कविताएं लिखना शुरू किया। हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश से सम्मानित शेरदा को उत्तराखंड शोध संस्थान द्वारा उत्तराखंड संस्कृति संरक्षण सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। 20 मई को शेरदा की आंठवी पुण्यतिथि है। शेरदा की स्मृति में उनके ज्येष्ठ पुत्र आनंद सिंह बिष्ट, पुत्रवधू शर्मिष्ठा बिष्ट और उनके प्रशंसकों ने उनके स्मरण हेतु उनका गीत “प्यारी गंगा रे मेरी” रिकॉर्ड किया है। इसमें स्वर शर्मिष्ठा बिष्ट व नितेश बिष्ट के गीत के साथ शेरदा के गांव, उनके चित्रो में उनके परिजन, कार्यक्रमों व सम्मान की स्मृतियां समांई हुई है। हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश से सम्मानित शेरदा को उत्तराखंड शोध संस्थान द्वारा उत्तराखंड संस्कृति संरक्षण सम्मान से सम्मानित किया गया था।गीत एवं नाटय प्रभाग से सेवानिवृत्त होने के बाद शेरदा हल्द्वानी में रहने लगे। जीवन के अंतिम समय उन्होने अपने परिवार के साथ वही गुजारें कुमायूं विश्वविद्यालय में शेरदा की कविताएं पढ़ाई जाती है साथ ही उनकी कविताओं साहित्य पर कई शोध किये जा चुके हैं।

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उन्होंने आगे कहा कि उनके पिता ने गीत और नाटक प्रभाग नैनीताल में कवि और आर्टिस्ट के रूप में भी काम किया। उनके द्वारा लिखी गई कुमाऊंनी कविताएं दिल को छू जाती हैं। जब वह अपने पिता को देखते थे, तो वह कई घंटों तक पेड़ के नीचे बैठ बस लिखते रहते थे। उनकी कविताएं पहाड़ के जीवन में रहती थी। उन्होंने कुमाऊंनी कविताओं को काफी आगे बढ़ाया. उनके द्वारा लिखी गई कई कुमाऊंनी कविताएं डिग्री कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं। कविताओं के अलावा उन्होंने 6 कुमाऊंनी भाषा में किताब भी लिखी थी। शेरदा अनपढ़ और उनकी रचनाओं पर कुमाऊं विश्वविद्यालय में कई छात्रों ने शोध भी किया। ‘हंसणैं बहार’ और ‘पंच म्याव’ नाम से निकले उनके दो कैसेट भी खूब मशहूर हुए।इनके नाम हैं- जाँठिक् घुडुर्, ये कहानी है नेफा और लद्दाख की, जाते-जाते लोकगायक स्व. प्रहलाद मेहरा हम सब उत्तराखण्ड वासियों के लिए यह गीत दे गए।

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स्व. शेरदा अनपढ़ द्वारा लिखे गए इस गीत में लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी व लोकगायक प्रहलाद मेहरा ने अपने स्वर दिये हैं। शायद यह उत्तराखण्डी संगीत जगत में पहली बार हुआ होगा जब गढ़वाल व कुमाऊँ के दो बड़े लोकगायक किसी गीत में एक साथ स्वर दे रहे हों।चांदनी एन्टरप्राइजेज के निर्माता नवीन टोलिया ने इस प्रकार की जुगलबंदी के लिए 2-3 साल योजना बनाई थी। जिसे लेकर दोनों लोकगायकों से बातचीत हुई और फिर शेरदा अनपढ़ द्वारा लिखे गये इस गीत को चुना गया। इस जुगलबंदी गीत को लेकर लोकगायक प्रहलाद मेहरा बहुत उत्साहित थे। फिर प्रहलाद मेहरा ने इस गीत को धुन में ढाला और रणजीत सिंह ने इस गीत का संगीत संयोजन कर तैयार किया गया।वीडियो में बॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता हेमन्त पाण्डेय व उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध अभिनेता पन्नू गुसांई ने अभिनय किया है तथा वीडियो गीत का फिल्मांकन व निर्देशन गोविन्द नेगी ने किया है।

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शेरदा समग्र, फचैक के बहाने, दीदि-बैंणि और मेरि लटि-पटि. 20 मई 2012 को शेरदा अनंत में विलीन हो गए. शेरदा के काव्यकर्म का विस्तृत मूल्यांकन अभी होना शेष है। कवि अनपढ़ पर जब किसी को सर्वोच्च शोध उपाधि प्राप्त होगी तो देखना रोचक होगा कि शोधकर्ता इस अनपढ़ कवि को कितना पढ़ पाएहैं।शेरदा मंचों के भी प्रिय कवि थे, श्रोताओं से उनको बहुत प्यार मिलता था। श्रोताओं की मांग के अनुरूप वे खुद को ढालने में निपुण भी थे। पर इस सबसे उनकी छवि अनजाने में एक हास्यकवि की भी बनती जा रही थी। उनकी व्यंग्य-दृष्टि और वक्रोक्ति, व्यंजना, उलटबाँसी की निपुणता भी हास्य के भाव ही गिनी जाने लगी थी। बावजूद इसके शेरदा के कवि का कद बहुत बड़ा है और जितना उनको पढ़ो उतना ही वो और बड़ा होता जाता है तो महज इसलिए कि उन्होंने निरंतर लिखा, बहुत सारा लिखा और मौलिक लिखा। उनके काव्य में अर्थगौरव चकित करता है, उपमाओं में ताज़गी है और लय-प्रवाह पर अद्भुत पकड़ है।समाज में आते परिवर्तन हों या व्यक्ति के व्यवहार में कुछ भी उनकी नज़र से अनदेखा न रहा।

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शेरदा अनपढ़ पहाड़ में हर आमो-खास के कवि हैं। उन पर लिखने या बोलने से कई गुना अधिक आनंद उनकी कविता को पढ़ने-सुनने में आता है। मंचीय कविता में भरपूर प्रतिभागिता के बावजूद वो अपने अंदर के असली कवि को कुशलतापूर्वक बचागए।शेरदा आप पर कुछ लिखते हुए अनपढ़ होने का अहसास होता है। पहाड़ी जनमानस को सतत संघर्ष के लिए प्रेरित करता रहेगा.जनकवि को उनकी वीं पुण्य तिथि पर शत शत नमन!!

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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