घर में नल, लेकिन नहीं मिल रहा एक बूंद जल (water)
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड का पहाड़ी क्षेत्र अपने आप में अकूत जल संपदा संजोये हुए है । प्राकृमतिक जल स्रोत,सदानीरा नदी तंत्र, गाड-गदेरे अमूल्य धरोहर को समेटे हुए हैं, जिनसे उत्तर भारत की अधिकतम् पेयजल एवं सिंचाई आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। नवीकरणीय ऊर्जा आपूर्ति हेतु हाइड्रो प्रोजेक्ट से भरे पड़े इस क्षेत्र में इसके प्राकृतिक जल संपदा का कभी भी परोक्ष लाभ यहाँ के रैबासियों को नहीं मिल पाया है। पुराने समय से ही कहा जाता है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी कभी यहाँ के काम नहीं आयी है और कुछ एक अपवादों को छोड़कर यह बात सत्य भी है। वर्तमान परिदृश्य में हो स्थिति और भी खतरनाक हो रही है। ग्लेशियर लगातार सिकुड़ रहे हैं, नदी गाड गदेरों में पानी कम होता जा रहा है। प्राकृतिक जल स्रोतों की स्थिति तो भयावह हो गयी है। प्राकृतिक जल स्रोत जिन्हें स्थानीय भाषा में नौका धारा या पंधेरा कहा जाता है वे आज “आईसीयू मोड ” में हैं। इन नौका धारों के दुर्दिनों के पीछे वर्तमान दो – तीन पीढ़ीयों के असंवेदनशील क्रियाकलाप हैं। तीन पीढ़ी पहले के लोग इन धारों को ग्राम देवता के तत्व के रूप में पूजते थे, प्रत्येक गाँव में एक दो अथवा अधिक धारे आसानी से मिल जाते थे।
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पेयजल आपूर्ति एवं सिंचाई का मुख्य साधन होने के साथ ही ये धार गाँव की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग होते थे और इसीलिए बिना किसी आधुनिक तकनीकी विशेषज्ञता के धारे सैकड़ों वर्षों तक केवल गाँववासियों के स्थानीय सूझबूझ के संरक्षित रहे। लेकिन पिछली दो-तीन पीढ़ीयों ने भावनात्मक संवेदनशीलता के इतर इन्हें केवल और केवल पानी का स्रोत समझा जिसका इस्तेमाल पीने के पानी और गर्मी के दिनों में
नहाते हुए सेल्फी लेने के लिये ही किया जा सकता है ,तभी से इन जलस्रोतों में कमी आयी है, इसी के साथ अंधाधुंध और अनियोजित ढंग से पहाड़ों का कटान, पलायन, घर घर में स्टोरेज पानी की टंकियों ने धारा पंध्यारों के प्रति मानवीय भावनात्मक लगाव को कम करने में अहम भूमिका निभाई है। नौले धारों के संरक्षण व संवर्धन के लिए राज्य में वन विभाग के नेतृत्व में बनी जल स्रोत प्रबंधन कमेटी की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में लगभग 4000 गाँव जल संकट से गुजर रहे हैं। मोटे तौर पर राज्य में लगभग 510 जलस्रोत सूख गये हैं या सूखने की कगार पर हैं। अकेले अल्मोड़ा जनपद में सबसे अधिक 300 जलस्रोत सूख गये हैं।
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नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड के प्राकृतिक जलस्रोतों के जल स्तर में साठ फीसदी कमी आयी है इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वर्तमान में जो नौले धारे बचे भी हैं उनमें भी जल की मात्रा आधी हो गई है। यह कमी आकस्मिक नहीं हुई है यह दो दशक से अधिक समय से गतिमान प्रक्रिया का कारण है जिसके लिए जहाँ नैतिक रुप से स्थानीय जनमानस जिम्मेदार है वहीं संवैधानिक व सामाजिक रूप से राज्य
जनता व प्राकृतिक संसाधनों के प्रति उत्तरदायित्व निभानेमेंअसफलहुएहैं।अगर संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के अनुसार प्रकृतिक संसाधनों को संरक्षित करना सरकार का कर्तव्य है सरकारी तंत्र की घोर लापरवाही से भी धारों की दुर्र्दशा गतिमान है सरकार को कठगरे में करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि जल संरक्षण के नाम पर पिछले बीस वर्षों में बजट पानी की ही तरह बहाया गया पर पानी का स्रोत नहीं बचाया जा सका इसका मुख्य कारण इन स्रोतों के संवर्धन एवं संरक्षण के लिए जिम्मेदार विभागों, राज्य गैर सरकारी संघठन व स्थानीय आम जनमानस में कभी भी आपसी समन्वय स्थापित ही नहीं हुआ।
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धरातल पर कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं की गई की जलस्रोतों में लगातार गिरावट क्यों हो रही है? बल्कि मानकों का हवाला देकर प्रत्येक स्रोत के पीछे कुछ एक कारणों को फिट कर एक ही डंडे से हाँकने की कोशिश की जाती रही है जबकि धरातलीय परिस्थितियों के साथ – साथ स्थानीय कारणों को ध्यान में रखकर इच्छाशक्ति के साथ नवीन तकनीकी का उपयोग कर जमीनी स्थल पर यथोचित प्रयास करने की आवश्यकता की है। अनियोजित विकास और तेजी से बढ़ती आबादी ने पेयजल संकट की स्थिति पैदा कर दी है। शहर में ग्रीष्मकाल में अक्सर कई इलाके पानी को तरसते हैं। भूजल का अत्यधिक दोहन होने और बारिश की कमी के कारण जल स्रोत रीचार्ज न होने के कारण जल संस्थान की चुनौतियां भी बढ़ गई हैं। शहर की वर्तमान में आबादी 10 लाख से अधिक है। जबकि पेयजल संसाधनों में नाम मात्र का इजाफा हुआ है।
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उत्तराखंड में गंगा, यमुना ,अलकनंदा,भागीरथी जैसी दर्जनों बड़ी नदियां हैं लेकिन फिर भी इन दिनों उत्तराखंड में सैंकड़ो बस्तियों में पानी की किल्लत हो रही है और आम लोग पीने के पानी की परेशानी जूझ रहे हैं। हालत तो ये है कि लोगों का सब्र टूट रहा है क्योंकि कई दिनों से लोगों के घरों में पानी नहीं आ रहा है और पानी के लिए अब लोगों को अधिकारियों के आगे मटके लेकर धरने प्रदर्शन तक करना पड़ रहा हैं। उत्तराखंड को बने 24 साल हो गए हैं लेकिन उत्तराखंड में ग्राउंडवाटर को लेकर कोई पॉलिसी नहीं आई है केंद्रीय जल आयोग की पॉलिसी पर ही काम हो रहा है पर राज्य के पास अपनी एक कोई ठोस ग्राउंडवाटर को लेकर कोई पॉलिसी नहीं है न सिर्फ राज्य में आम लोग बोरिंग कर पानी का उपयोग कर रहे हैं बल्कि कमर्शियल अपार्टमेंट और उद्योगों में भी इसका कोई नियम या फिर कोई ऐसा टैक्स नहीं है जो राज्य के राजस्व में बढ़ोतरी करें और इस बेरोकटोक पर लगाम लगा सके।
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उत्तराखंड में न सिर्फ अंडरग्राउंड वॉटर को ट्यूबवेल के जरिए निकाला जा रहा है बल्कि अवैध बोरवेल बनाकर पानी निकाला जा रहा है। गांव, घरों में नल तो लगे हुए हैं। लेकिन उनमें जल नहीं है। ऐसे में ग्रामीण बाल्टी, केन के सहारे पानी एकत्र कर रहे हैं।वहीं, दूसरी ओर जल संस्थान टैंकर का सहारा लेकर पेयजल आपूर्ति करने में जुटा हुआ है। लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)