बाँज तथा उतीस दोनों जल संरक्षण एवं संवर्द्धन में हैं सहायक

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बाँज तथा उतीस दोनों जल संरक्षण एवं संवर्द्धन में हैं सहायक

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड का एक बड़ा हिस्सा बर्फ से आच्छादित रहता है जिसे हिमालय कहते हैं, इसी हिमालय से निकलती हैं दर्जनों जीवनदायिनी नदियां जो पहाड़ों से बहती हुई मैदानों तक आती हैं और समुंदर में मिल जाती हैं। अपनी इस यात्रा के दौरान यह नदियां लोगों की प्यास बुझाती हैं, खेतों में अनाज उगाती हैं और इंसान के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाती हैं, लेकिन यह एक विडंबना ही है कि उत्तराखंड में पहाड़ों पर बर्फ गिरती है, हिमालय सालों भर बर्फ से ढका रहता है, जहां से नदियां निकलती हैं पर यहां के अधिकतर पहाड़ आज पेयजल की किल्लत से जूझ रहे हैं।

हर साल मार्च से लेकर जुलाई,अगस्त तक का महीना यहां रहने वाले लोगों के लिए काफी कठिन होता है। गांव में लोगों को दूर दूर से पानी भरकर लाना पड़ता है क्योंकि इस वक्त तक अधिकतर जल स्रोत सूख जाते हैं। वही शहरों में जहां आधुनिक पाइप लाइन लग चुकी है लोग रात रात भर उठ कर पानी का इंतजार करते हैं, जल निगमों के टैंकरों से पानी बांटा जाता है।

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इसी साल की अगर हम बात करें तो अल्मोड़ा, चंपावत डीडीहाट और गढ़वाल के कई कस्बे ऐसे हैं जहां लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं । प्राकृतिक स्रोत सूख चुके हैं, आधुनिक पाइप लाइनों में पानी नहीं आता, जल संस्थान और निजी टैंकरों के सहारे यहां लोग अपना जीवन जी रहे हैं।

इस सबके हल के रूप में जो व्यवस्था सामने आ रही है वह है पेयजल योजनाओं की, लोग मांग करते हैं कि उनके इलाके में पेयजल योजनाएं लगाई जाएं और सरकार जितना हो सके उतनी कोशिश करके ऐसा करती हैं, लेकिन तब भी लोगों की परेशानियां दूर नहीं होती।

अब जरा उत्तराखंड के पहाड़ों की पुरानी व्यवस्था की ओर जाएं तो हम देखेंगे कि हर गांव में बहुतायत में धारे और नौले जैसे जल स्रोत होते थे जो आज भी हैं, लेकिन क्या कारण है कि आज गर्मी के वक्त इन जल स्रोतों में पानी सूख जाता है। थोड़ा सा अगर शोध किया जाए तो कारण आपके सामने आ जाएंगे, पारंपरिक जल स्रोतों के आसपास के पेड़ काटे जा चुके हैं, पुराने चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों की जगह यूकेलिप्टस और चीड़ के पेड़ों ने ले ली है और यह पेड़ जहां होते हैं उसके आसपास का पानी खत्म कर देते हैं।

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अंधाधुंध निर्माण कार्य, पहाड़ों में निर्माण कार्य के लिए ब्लास्टिंग का उपयोग करना, जल स्रोतों के आसपास की जमीन पर निर्माण कार्य कर बरसाती पानी को जमीन के अंदर जाने से रोकना, ऐसे कई कारण हैं जो सामने आएंगे। फिलहाल आज हम बात कर रहे हैं दो पेड़ो की, इनमें से एक पेड़ है उतीस, और दूसरा पेड़ है बांज, है इन पेड़ों में जमीन को बांधे रहने की अद्भुत क्षमता होती है, साथ ही साथ यह पेड़ गर्मी के मौसम में अपने आसपास भूमिगत जल के स्तर को भी बनाए रखते हैं, यही कारण है कि उत्तराखंड में नालों, गधेरों, धारे और नौलों के आसपास इन पेड़ों को बहुतायत में पाया जाता था।एक बार फिर अगर उत्तराखंड के पारंपरिक जल स्रोतों के आसपास चौड़ी पत्ती वाले ऐसे पेड़ों को बढ़ावा दिया जाए तो निश्चित रूप से यह जल स्रोत एक बार फिर रिचार्ज हो जाएंगे।

इसके अलावा प्राकृतिक जल स्रोतों के आसपास हैंडपंपों को भी हतोत्साहित करने की जरूरत है.  बांज, उतीस के पेड़ों की जड़ों से निकलने वाले इस पानी का लोग वर्ष भर पीने के लिए प्रयोग करते हैं। गर्मियों में यह स्रोत सैकड़ों लोगों की प्यास बुझाता है। इससे लगातार पानी बहता रहता है।

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इसके अलावा कलक्ट्रेट रोड पर भी एक प्राचीन नौला है जो देख रेख के अभाव में बेकार पड़ा हुआ है। जिसके चारों ओर झाड़ियां उग गई हैं। जबकि नौले में पर्याप्त पानी है। इसी की तरह कई जलस्रोत हैं जो लगातार बहते रहते हैं। जिन्हें संरक्षण की आवश्यकता है। दुखद है कि एक ओर लगातार पानी बहकर बर्बाद हो रहा है और दूसरी ओर लोग पेयजल की किल्लत से जूझ रहे हैं। क्षेत्र के लोगों का कहना है नगर व ग्रामीण क्षेत्रों के जलन स्रोतों का संरक्षण किया जाना आवश्यक है। अगर अभी संरक्षण नहीं किया गया तो निकट भविष्य में पेयजल की समस्या और अधिक बढ़ जाएगी।

पौड़ी में पानी की किल्लत के चलते अब ग्रामीण प्राकृतिक जल स्रोत को संरक्षित करने में जुट गए हैं। क्योंकि करोड़ों रुपए से संचालित होने वाली पेयजल योजनाओं की सांसें अब फूलने लगी हैं, जिसकी वजह से गांवों में पानी की दिक्कत शुरू हो गई है। ऐसे में प्राकृतिक जलस्रोत स्थानीय लोगों के लिए किसी संजीवनी के कम नहीं होते हैं। हालांकि ग्रामीणों को भी प्राकृतिक जलस्रोत की याद गर्मियों में ही आती है, जब उन्हें पानी की दिक्कत का सामना करना पड़ता है। ऐसे में पौड़ी के कल्जीखाल ब्लॉक के डांगी गांव के लोगों ने खुद ही सामूहिक प्रयासों से जलस्रोतों की साफ सफाई का जिम्मा उठाया है।

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डांगी गांव के लोगों ने करीब 100 साल पुराने प्राकृतिक जलस्रोत की साफ-सफाई की। इसके साथ ही पानी के रिसाव को रोकने के लिए चिकनी मिट्टी का लेप लगाकर स्रोत को संरक्षित भी किया। ग्रामीणों ने प्रशासन की जलस्रोतों के संरक्षण करने की योजना को खोखला बताया और कहा कि सरकारी सिस्टम यदि पूरी ईमानदारी से काम करता तो जलस्रोत का अब तक जीर्णोद्धार हो चुका होता। वहीं, जल संस्थान के सहायक अभियंता ने बताया कि जलस्रोतों के संरक्षण को लेकर कार्य गतिमान है, जिनका जीर्णोद्धार किया जाना है। बीते एक दशक में पौड़ी गढ़वाल के प्राकृतिक जल स्रोतों के सूखने के चलते पेयजल संकट की जो तस्वीर उभर कर सामने आई है, उससे चिंता और भी बढ़ जाती है। हर साल इस स्रोत का पानी कम होता जा रहा है, जो बेहद चिंता का सबब बना हुआ है।

इसके साथ ही पहाड़ों से और भी कई पानी की धाराएं निकला करती थी, जो आज विलुप्त हो चुकी हैं। वन क्षेत्र विकसित करने के नाम पर हर वर्ष करोड़ों रुपया खर्च कर पौंधारोपण किया जा रहा है, हालाँकि वह पौंधारोपण जमीन पर कहीं नजर नहीं आता। दूसरी ओर, सैकड़ों वर्ष पुराने बाँज उतीस के वृक्षों का विकल्प देने में आपराधिक विलम्ब किया जा रहा है। देर-सबेर हमें पहाड़ी किसानों को हल का विकल्प तो देना ही पड़ेगा, मगर देखना यह है कि वह विकल्प बाँज-उतीस की प्रजाति समाप्त होने के पहले मिलता है या बाद में।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं)

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