सवाल : अतिक्रमण (Encroachment) फिर से बड़ी तबाही का बन सकता है कारण
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रदेश में नदियों के किनारे पनप रहा अवैध अतिक्रमण फिर से बड़ी तबाही का कारण बन सकता है।विशेषज्ञों की मानें तो वर्ष 2013की आपदा के बाद एक दशक बीत जाने पर भी हमने कोई सबक नहीं लिया है। इस बार मानसून ने ठीक वैसा ही रंग हिमाचल में दिखाया है, जो हिमालयी
राज्यों के लिए नए खतरे का संकेत है उत्तराखंड में 2015 से अब तक 7, 750 अत्यधिक वर्षा और बादल फटने की घटनाएं दर्ज की गई हैं। मौसम विज्ञानी व आईएमडी के पूर्व उपमहानिदेशक के अनुसार भले ही राज्य के लिए भूस्खलन और अचानक बाढ़ जैसी मौसम की घटनाएं असामान्य नहीं हैं, लेकिन तबाही के लिए नदी के किनारे अनधिकृत निर्माण को दोषी ठहराया गया है।मौसम में होने वाले अप्रत्याशित बदलाव की घटनाएं जलवायु परिवर्तन से जुड़े होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। आने वाले समय में इन घटनाओं की आवृत्ति और परिणाम में वृद्धि होगी। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि यह एक क्रमिक प्रक्रिया है।
उन्होंने बताया कि हिमालयी क्षेत्र में पूर्वी और पश्चिमी हवाओं के मिलन से अत्यधिक बारिश होती है। वर्ष 2013 में मौसम को जो चक्र उत्तराखंड में बना था, इस बार हिमाचल प्रदेश में बना है। उन्होंने बताया कि मानसून जाते-जाते सितंबर में भी कोई नया रंग दिखाए, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। नदियां हमेशा अपनी जगह को वापस ले लेती हैं। नदियों के किनारे अतिक्रमण मौसम विज्ञान से जुड़ा विषय नहीं है, लेकिन मौसम बिगड़ने पर तबाही का बड़ा कारण जरूर है। सरकारें सब कुछ जानती हैं, लेकिन असंवेदनशील हैं। प्रदेश में नदियों
के किनारे अवैध निर्माण सरकार की नाक के नीचे ही नहीं, खुद सरकारों ने भी किया है। रिस्पना नदी में विधानसभा भवन, कई सरकारी कार्यालय, शैक्षणिक संस्थान इसके उदाहरण हैं।
सितंबर, 2022 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने देहरादून में नदी किनारे अतिक्रमण को हटाने के आदेश दिए थे, लेकिन सरकार ने इस पर अमल नहीं किया। पर्यावरणविद् व चारधाम परियोजना पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त उच्चाधिकार प्राप्त समिति (एचपीसी) के सदस्य के अनुसार उत्तराखंड में लोगों ने नदी किनारे अवैध रूप से अतिक्रमण किया है और सभी प्रकार की संरचनाओं का निर्माण किया है। इन बसावटों में अदालतों के तमाम अदेशों के बाद भी सरकार नियंत्रण नहीं कर पा रही है। फिर वर्ष 2013 जैसी आपदा आई तो इस बार नुकसान उससे कहीं अधिक होगा। उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने कहा, अवैध अतिक्रमण सिर्फ प्रमुख नदियों के किनारे ही नहीं, बल्कि उनकी सहायक नदियों, छोटी नदियों और नालों पर भी हुआ है।
अगस्त 2013 में हाईकोर्ट ने राज्य की सभी नदियों के 200 मीटर के भीतर सभी निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया था। अदालत ने यह आदेश ऋषिकेश निवासी सामाजिक कार्यकर्ता की ओर से दायर एक जनहित याचिका पर पारित किया था। लेकिन इस नियम की भी धज्जियां
उड़ रही हैं। दिसंबर 2017 के एक आदेश में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने निर्देश दिया था कि पर्वतीय इलाकों में गंगा के किनारे से 50 मीटर के भीतर आने वाले क्षेत्र में किसी भी निर्माण की अनुमति नहीं दी जाएगी और न ही कोई अन्य गतिविधि की जाएगी। यहां 50 मीटर
से अधिक और 100 मीटर तक के इलाके को नियामक क्षेत्र के रूप में माना जाएगा। मैदानी क्षेत्र में जहां नदी की चौड़ाई 70 मीटर से अधिक है, उस स्थिति में नदी के किनारे से 100 मीटर का क्षेत्र निषेधात्मक क्षेत्र के रूप में माना जाएगा।जून के दूसरे पखवाड़े से शुरू हुए मानसून में
इस वर्ष सामान्य बारिश नहीं, बल्कि सीधे अलर्ट जारी हो रहा है। बेहद कम समय में एक निर्धारित क्षेत्र में अत्यधिक बारिश होने से भूस्खलन व बाढ़ से तबाही जैसे हालात सामने आ रहे हैं। वैज्ञानिक इसके पीछे वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड गैस के इजाफे से तापमान में आ रही बढ़ोतरी को मुख्य कारण मान रहे हैं। साथ ही मानसून और पश्चिमी विक्षोभ के एक साथ सक्रिय होना भी अहम कारण है, जिससे पश्चिमी हिमालय से मध्य हिमालय तक का क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित है।
बता दें कि 15 जून से दस सितंबर तक के मानसून काल में साल की सर्वाधिक बारिश रिकॉर्ड की जाती है, जिस पर पहाड़ों की खेती और सामान्य जनजीवन निर्भर करता है। मगर बीते कुछ वर्षों से मानसून में सामान्य बारिश नहीं, बल्कि भारी बारिश का अलर्ट ही जारी हो रहा है। भारी बारिश से पहाड़ों पर भूस्खलन तो मैदानों में जलभराव जैसे परिणाम सामने आ रहे हैं। इसी वर्ष पूरे मानसून सीजन का करीब एक माह से अधिक समय अलर्ट जारी रहा, जिसने कई क्षेत्रों में भारी तबाही भी मचाई।मौसम वैज्ञानिक ने बताया कि बीते कुछ वर्षों में पहाड़ों पर बढ़ते निर्माण कार्य, वाहनों का दबाव और अन्य मानवीय हस्तक्षेप का सीधा असर वातावरण पर पड़ रहा है।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरतहैं )