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रामायण व रामचरितमानस के विदेशी भी कायल हैं

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रामायण व रामचरितमानस के विदेशी भी कायल हैं

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

महर्षि वाल्मीकि को हिन्दू धर्म में श्रेष्ठ गुरु माना गया है वाल्मीकि पहले डाकू थे लेकिन फिर एक घटना ने उनका जीवन ऐसा बदला कि उन्होंने भगवान श्रीराम के जीवन पर आधारित रामायण नामक महाकाव्य लिख दिया। आदिकवि माने गए है ग्रंथों के अनुसार महर्षि वाल्मीकि का मूल नाम रत्नाकर था। इनके जन्म को लेकर कई मत है, मतानुसार ये ब्रह्माजी के मानस पुत्र प्रचेता की संतान थे। वहीं जानकारों के अनुसार वाल्मीकि को महर्षि कश्यप -चर्षणी की संतान माना जाता है। इन्होंने ब्राह्मण कुल में जन्म लिया था लेकिन एक भीलनी ने बचपन में इनका अपहरण कर लिया और भील समाज में इनका लालन पालन हुआ। भील लोग जंगल के रास्ते से गुजरने वालों को लूट लिया करते थे। रत्नाकर ने भी इसी परिवार के साथ डकैती का काम करना शुरू कर दिया पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, एक बार नारद मुनि जंगल के रास्ते जाते हुए डाकू रत्नाकर के चंगुल में आ गए।

नारद ने रत्नाकार से कहा कि इस कुकर्म से उसे कुछ हासिल नहीं होगा। रत्नाकार ने कहा कि वह ये सब परिवार के लिए करता है। तब बंदी नारद मुनि ने रत्नाकर से सवाल किया कि क्या तुम्हारे घरवाले भी तुम्हारे बुरे कर्मों के साझेदार बनेंगे। रत्नाकर ने अपने घरवालों के पास जाकर नारद मुनि का सवाल दोहराया। जिसपर उन्होंने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया। डाकू रत्नाकर को इस बात से काफी झटका लगा और उसका
ह्रदय परिवर्तन हो गया। नारद मुनि के कहने पर रत्नाकार ने राम-नाम का जाप शुरू कर दिया लेकिन उसके मुंह से मरा- मरा ही शब्द निकल रहे थे। मुनि ने कहा कि यही दोहराते रहो इसी में राम छिपे हैं। फिर रत्नाकार ने राम-नाम की ऐसी अलख जगाई की उन्हें खुद भी ज्ञात नहीं रहा कि उनके शरीर पर दीमकों ने बांबी बना ली है।

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इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने दर्शन दिए और इनके शरीर पर लगे बांबी को देखा तो रत्नाकर को वाल्मीकि नाम दिया ब्रह्माजी ने
महर्षि वाल्मीकि को रामायण की रचना करने की प्रेरणा दी इन्होंने रामायण संस्कृत में लिखी थी जिसे सबसे प्रचीन रामायण माना जाता है।इसमें 24,000 श्लोक हैं। ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण एक ऐसा महाकाव्य है जो हमें प्रभु श्रीराम के जीवन काल का परिचय करवाता है। जो उनके सत्यनिष्ठ, पिता प्रेम और उनका कर्तव्य पालन और अपने माता तथा भाई-बंधुओं के प्रति प्रेम-वात्सल्य से रूबरू करवा कर सत्य और न्याय धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।आज ऐसे महान संत और आदिकवि का जन्म दिवस है। जो भी किवदंती इनके जीवन के बारे में है वह कितनी सच है ये गले नही उतरती क्योंकि एक डाकू इतना बड़ा महान संत बन गया? वाल्मीकि  पढ़े लिखे भी रहे होंगे व विद्वान भी अन्यथा रामायण जैसा ग्रंथ लिखना किसी डाकू के वश के वश की बात तो नही है।

दूसरा त्रेता युग मे जाति पाती के बंधन कैसे रहे होंगे इस पर भी बड़ा सवाल है। एक तरफ राम द्वारा राजमहल से निकाले जाने पर सीता वाल्मीकि की कुटिया में रहने आ जाती है और लव कुश को जन्म  जन्म देती है तो दूसरी तरफ राम शम्भूक का वध कर देते है। सबरी के झूठे बैर भी खाते है। तो क्या समय और परिस्थितियों के हिसाब से राम ने अपने आप को ढाल लिया होगा या वाल्मीकि के राम का चरित्र  तुलसी दास ने मर्यादापुरुषोत्तम बना दिया। रामचरितमानस और रामायण दोनों ही भारत की सांस्कृतिक परंपरा का न केवल अभिन्न बल्कि सबसे महत्वपूर्ण अंग हैं। अयोध्या में राम जन्मभूमि पर एक भव्य मंदिर के निर्माण का ओदांलन एक बार पुन: 1983 में जब आरंभ हुआ तो बहुत से आलोचकों ने राम, रामचितमानस और रामायाण को लेकर कई प्रश्न भी उठाए थे। थाईलैंड, कंबोडिया, वियतनाम, इंडोनेशिया, लाओस, म्यांमार व नेपाल में ही नहीं बल्कि रामकथा का प्रभाव और उपस्थिति सिंगापुर, मलेशिया व वियतनाम में भी है।

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वाल्मीकि रामायण का अंग्रेजी में अनुवाद कर 1895 में उसे प्रकाशित करने वाले  विद्वान रैल्फ टी.एच ग्रिफिथ के अनुसार, यह एक ऐसा महकाव्य है जो भारत की रग-रग में समाया हुआ है। यह भारत में हर व्यक्ति की स्मृति में स्थायी रूप से अंकित है। जहां-जहां राम गए वे सभी स्थान विख्यात हो गए। सदियों से श्रीराम को लोग लगातार याद करते आए हैं। भला ऐसे व्यक्तित्व के बारे में लिखे गए महाकाव्य को कोई कैसे काल्पनिक कह सकता है? यही मत इतालवी इंडोलोजिस्ट गैस्पर गोरेसियो 1808-189194) का भी है। गोरेसियो ने वाल्मीकि रामायण का अनुवाद इतालवी में किया था। उनका मानना है यह रचना ऐसी घटनाओं पर आधारित है जिसने हिंदुओं के मानस पटल पर इतनी गहरी छाप छोड़ी कि इसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

एक अन्य विद्वान एफ. ई. पारगिटर ने अपनी पुस्तक ‘द ज्योग्रोफी ऑफ रामाज एक्जाइल’ (1894) में  भौगोलिक दृष्टि से उन स्थानों से संबंधित जानकारी की समीक्षा की है  जहां वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान राम वनवास के दौरान गए थे। पारगिटर का  निष्कर्ष है कि वाल्मीकि रामायण में दी गई जानकारी पूरी तरहं से तथ्यात्मक है क्योंकि बिना इन स्थानों पर गए इतनी सटीक जानकारी देना संभव नहीं है। स्वयं स्वामी विवेकानंद का कहना था कि रामायण व महाभारत प्राचीन आर्य जीवन व ज्ञान के एनसाइकलोपीडिया हैं। इतिहासकारों का यह भी मानना है कि जहां-जहां श्रीराम गए, वहां-वहां उनकी यात्राओं की स्मृति बनाए रखने के लिए मंदिर बनाए गए। इसलिए रामायण की तथ्यात्मकता पर प्रश्न उठाना तर्कसंगत नहीं है। इतिहासकार नंदिता कृष्णन इन स्थानों के सांस्कृतिक महत्व को रेखांकित करते हुए कहती हैं, जिन स्थानों पर भी
श्री राम गए, वहीं अभी भी उनकी स्मृति वैसी ही बनी हुई है मानों वह कल ही आए हों।

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भारत में समय को सापेक्ष  माना जाता है। इसलिए कुछ स्थानों पर तो उनकी स्मृति में मंदिर बन गए और बाकी स्थानों पर ये यात्राएं और श्रीराम की स्मृति लोकपरंपरा का अभिन्न अंग बन गई। अगर साहित्य,पुरातत्व और स्थानीय पंरपराएं एक धागे में गुंथी हुई दिखती हैं तो भला इस पर किसी को आपत्ति क्यों हो? स्टीफन नैप जो भारतीय वैदिक परंपरा के गहन अध्ययेता है कहते हैं कि श्रीराम की स्मृति आज भी उतनी मजबूती से कायम है क्योंकि उनका जीवन और शासनकाल दोनों ही असाधारण थे। उनके शासनकाल में शांति थी और प्रचुर समृद्धि भी, इसीलिए रामराज्य को आज सुशासन का संदर्भ बिंदु माना जाता है। आधुनिक संदर्भ ग्रंथों में देखें तो सूर्यवंशी श्रीराम का इतिहास फैजाबाद गजेटियर के तैंतालीसवें खंड के पांचवे अध्याय के आरंभ में दिया गया है। पर वाल्मीकि रामायाण के अनुसार श्री राम का जन्म आज से लगभग 9350 वर्ष पूर्व अयोध्या में उसी स्थान पर हुआ था जिसे रामजन्म भूमि कहा जाता है।

6 दिसंबर, 1992 को बाबरी ढांचा ध्वस्त होने के मंदिर संबंधित 265 अवशेषों के साथ  एक महत्वपूर्ण शिलालेख भी निकला था।इसी शिलालेख से भी यही सिद्ध हुआ कि  जिसे आज हिंदू रामजन्मभूमि मानकर जहां मंदिर निर्माण का आग्रह कर रहे हैं, श्रीराम का जन्म वहीं हुआ था।श्रीराम ने ‘मर्यादा पुरूषोत्तम’ के रूप में अपना जीवन जिया। उनके जीवन की सत्य घटनाओं पर आधारित कथा ऋषि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ के माध्यम से संस्कृत में कही। बाद में तुलसीदास ने इसी कथा पर आधारित रामचरितमानस सहित कई अन्य ग्रंथों की रचना की तथा लोकस्मृति व भारतीय मानस में इसे और गहरे सं अंकित किया। सामाजिक व व्यक्तिगत जीवन में आदर्श स्थापित करने तथा मूल्यों को स्थापित, संवर्धित व संरक्षित करने की भारतीय जीवन परंपरा  के केंद्र में  निर्विववाद रूप से  श्रीराम व रामायण हैं। कोई ऐसी भारतीय यां प्रमुख विदेशी भाषा नहीं है जिसमें रामायण का अनुवाद न हुआ हो।

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पिछले 300 वर्षों में रामचरितमानस व रामायाण पर भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में गहन शोध कार्य हुआ है जिसका निष्कर्ष  यही है कि ये दोनों ग्रंथ भारत की सांस्कृतिक परंपरा की सबसे प्रखर अभिव्यक्ति हैं। वे एक ऐसी प्रबुद्ध मूल्य परंपरा  का प्रतिनिधित्व करते हैं  जिसकी ओर पूरा विश्व सम्मान व गर्व से देखता है। उन्हें किसी एक पूजा पद्धतियां समाज विशेष से जोड़ कर देखना तथा संकुचित व विकृत दृष्टि से उनका आकलन करना भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के साथ गहरा अन्याय होगा। रामायण नामक महान धर्म ग्रंथ के रचयिता महर्षि वाल्मिकी की जयंती देश भर में उत्साह के साथ मनाई जाती है। वाल्मिकी जयंती के समय पर उनकी रचनाओं का पाठ किया जाता है। देश भर में रामायण की झांकियां भी निकाली जाती है।

राम मंदिरों में भगवान की भव्य पूजा अर्चना की जाती है तथा वाल्मिकि जी का वंदन किया जाता है। ऋषि वाल्मिकी की जयंती के उपलक्ष्य पर कई तरह के धार्मिक कार्यों के साथ साथ भजन संध्या इत्यादि का भी आयोजन कई स्थानों पर किया जाता है। श्री राम भक्तों के हृदय में रामायण के रचियता महर्षि वाल्मिकी जी के लिए सदैव आदर एवं भक्ति का भाव रहा है महर्षि वाल्मीकि ने अपने जीवन की एक घटना से
प्रेरित होकर अपना जीवन पथ बदल दिया था। जिसके कारण ही उन्हें महान कवि के रूप में याद किया जाता है।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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