भौतिक विज्ञान की धरोहर डॉ. डीडी पंत (DD Pant)
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
कुमाऊं विवि को अकादमिक ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय प्रख्यात भौतिक विज्ञानी डॉ. डीडी पंत को जाता है। उन्हें देश व समाज से बेहद लगाव और प्रेम था, इसलिए उन्होंने अमेरिका जाने की बजाय भारत में रहना पसंद किया। प्रो. पन्त का जन्म 1919 में आज के पिथौरागढ़ जिले के एक दूरस्थ गांव देवराड़ी में हुआ था।
प्राथमिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई। पिता अम्बा दत्त वैद्यकी से गुजर-बसर करते थे। बालक देवी की कुशाग्र बुद्धि गांव में चर्चा का विषय बनी तो पिता के सपनों को भी पंख लगे लगे। किसी तरह पैसे का इंतजाम कर उन्होंने बेटे को कांडा के जूनियर हाईस्कूल और बाद में इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा भेजा। आजादी की लड़ाई की आंच अल्मोड़ा भी पहुंच चुकी थी। देवी दत्त को नई आबोहवा से और आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। घर के माली हालात आगे पढ़ने की इजाजत नहीं देते थे। तभी पिता के एक मित्र बैतड़ी (सीमापार पश्चिमी नेपाल का एक जिला) के एक संपन्न परिवार की लड़की का रिश्ता लेकर आए। पिता-पुत्र दोनों को लगा कि शायद यह रिश्मा आगे की पढ़ाई का रास्ता खोल दे। इस तरह इंटरमीडिएट के परीक्षाफल का इंतजार कर रहे देवीदत्त पढ़ाई जारी रखने की आस में दांपत्य जीवन में बंध गए।
इंटरमीडिएट के बाद देवी दत्त ने बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी में दाखिला लिया। यहां उन्होंने भौतिकविज्ञान में मास्टर्स डिग्री पाई। ख्यातिनाम विभागाध्यक्ष प्रो. आसुंदी को इस प्रतिभाशाली छात्र से बेहद स्नेह था। देवी उन्हीं के निर्देशन में पीएच डी करना चाहते थे। प्रो. आसुंदी ने वजीफे के लिए तत्कालीन वाइस चांसलर डा. राधाकृष्णन से मिलने का सुझाव दिया। पन् अर्जी लेकर राधाकृष्णन के पास पहुंचे। राधाकृष्णन स्पांडिलाइटिस के कारण आरामकुर्सी पर लेटकर काम करते थे. पन्त की अर्जी देख उनका जायका बिगड़ गया. बोले- आसुंदी आखिर कितने छात्रों को स्कॉलरशिप दिलाना चाहते हैं। हमारे पास अब पैसा नहीं है। निराश देवी दत्त वापस लौट आए। सुंद ने उन्हें ढाढ़स बंधाया और बेंगलूर में रमन साहब के पास जाकर रिसर्च करने को कहा. इस तरह देवराड़ी का देवी दत्त महान वैज्ञानिक सर सी. वी. रमन का शिष्य बन गया।
नैनाताल परिसर की फोटोफिजिक्स लैब प्रो. के नाम से देश की विज्ञान बिरादरी में जानी जाती है। इस लैब से उन्हें बेहद प्यार था। अपनी आधी-अधूरी आत्मकथा की भूमिका में एक जगह उन्होंने लिखा है कि वह मृत्युपर्यंत लैब के अपने कमरे से जुड़े रहना चाहेंगे. लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था। रहस्यमय परिस्थितियों में एक दिन फिजिक्स डिपार्टमेंट का पूरा भवन आग की भेंट चढ़ गया। संभवत: यह फोटोफिजिक्स लैब के अवसान की भी शुरुआत थी। कई वर्षों तक अस्थाई भवन में लैब का अस्तित्व बनाए रखने की कोशिश की गई। बाद में फिजिक्स डिपार्टमेंट के भवन का पुनर्निर्माण हुआ तो फोटोफिजिक्स लैब को भी अपनी पुरानी जगह मिली। लेकिन अब इसका निश्चेत शरीर ही बाकी था, आत्मा तो शायद आग के साथ भस्मीभूत हो गई। कबाड़ के जुगाड़ से लैब का पहला टाइम डोमेन स्पेक्ट्रोमीटर तैयार हुआ। इस उपकरण की मदद से पन्त और खण्डेलवाल की जोड़ी ने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण शोधकार्य किया।
यूरेनियम के लवणों की स्पेक्ट्रोस्कोपी पर हुए इस शोध ने देश-विदेश में धूम मचाई। इस विषय पर लिखी गई तक की सबसे चर्चित पुस्तक (फोटोकैमिस्ट्री ऑफ यूरेनाइल कंपाउंड्स, ले. राबिनोविच एवं बैडफोर्ड) में पन्त और खण्डेलवाल के काम का दर्जनों बार उल्लेख हुआ है। शोध की चर्चा अफवाहों की शक्ल में वैज्ञानिक बिरादरी से बाहर पहुंची। आज भी जिक्र छिड़ने पर पुराने लोग बताते हैं- प्रो. पन्त ने तब एक नई किरण की खोज की थी, जिसे पन्त रे नाम दिया गया। इस मान्यता को युरेनियम लवणों पर उनके शोध का लोकप्रिय तर्जुमा कहना ठीक होगा।
कुछ समय बाद प्रो. पन्त डीएसबी कालेज के प्रिंसिपल बना दिए गए। उनके कार्यकाल को डीएसबी का स्वर्णयुग माना जाता है। न केवल कालेज के पठन- पाठन का स्तर नई ऊंचाइयों तक पहुंचा बल्कि प्रो. पन्त की पहल पर छात्रों के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए अलग से कक्षाएं लगने लगीं। एक बेहद पिछड़े पहाड़ी इलाके के लिए इस पहल का खास अर्थ था। उस जमाने में शहरों में पहुंचने वाले किसी पहाड़ी नौजवान की पहली छवि ईमानदार घरेलू नौकर की होती थी।
इस लैब ने कई ख्यातनाम वैज्ञानिक दिए और कुमाऊं जैसे गुमनाम विश्वविद्यालय की इस साधनहीन प्रयोगशाला ने फोटोफिजिक्स के दिग्गजों के बीच अपनी खास जगह बनाई। जिस किसी को प्रो. पन्त के साथ काम करने का सौभाग्य मिला, वह उनकी बच्चों जैसी निश्छलता, उनकी बुद्धिमत्ता, ईमानदारी से सनी उनकी खुद्दारी और प्रेम का मुरीद हुए बिना नहीं रहा। निराशा जैसे उनके स्वभाव में थी ही नहीं। चाहे वह रिसर्च का काम हो या फिर कोई सामाजिक सरोकार, प्रो. पन्म पहल लेने को उतावले हो जाते। अपने छात्रों को वह अक्सर चुप बैठे रहने पर लताड़ते और आवाज उठाने को कहते।
गांधी के विचारों को उनकी जुबान ही नहीं, जीवन में भी पैठे हुए देखा जा सकता था। जो कहते वही करते और ढोंग के लिए कहीं जगह नहीं। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि अगर आप अपने विचारों पर दृढ़ रहें तो हताशा, निराशा और दुःख मुश्किल से मुश्किल हालात में भी आपको नहीं घेरेंगे. हमारा समाज उनका ऋणी है। गांधी के रास्ते पर चलने वाले प्रो. पन्त का पारिस्थिकी में गहरा विश्वास है। वह अक्सर कहते हैं कि कुदरत मुफ़्त में कुछ नहीं देती और हर सुविधा की कीमत चुकानी पड़ती है। अपने जीवन में उन्होंने बहुत कम सुविधाएं इस्तेमाल कीं लेकिन बदले में उनकी जरूरत से ज्यादा कीमत चुकाई।
महान शिक्षाविद् प्रो. डीडी पंत नाम, सम्मान और पद प्रतिष्ठा की दौड़ से हमेशा दूर रहे। उन्होंने पूरा जीवन शिक्षा और विज्ञान को समर्पित कर दिया। उनकी पहली नियुक्ति आगरा विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के रूप में हुई। इसके बाद आरवीएस कॉलेज आगरा में प्रोफेसर रहे। वर्ष 1952-62 तक वे डीएसबी कालेज में प्रोफेसर रहे और 1962 से 1971 तक प्राचार्य. 1971-72 में उत्तर प्रदेश शिक्षा विभाग के निदेशक रहे। 1972-73 में गोविन्दबल्लभ कृषि एवं प्रोद्यौगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर में विज्ञान संकाय के डीन रहे। जब 1973 में कुमांऊ विश्वविद्यालय स्थापित हुआ तो वे यहां के पहले कुलपति बने। इसमें वे 1973-77 तक कुलपति रहे। उनके कुलपति काल में कुलाधिपति और तत्कालीन राज्यपाल एम. चैन्ना रेड्डी के साथ उनकी भिड़ंत उनके स्वाभिमान और विश्वविद्यालय के प्रति समर्पण को बताती है।
कुलाधिपति चाहते थे कि उनके खासमखास दक्षिण भारत के एक ज्योतिष को विश्वविद्यालय से मानद उपाधि दी जाये। प्रो. डीडी पंत के रहते यह संभव नहीं था। जब यह विवाद बहुत बढ़ गया तो पंतजी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उनके इस्तीफे के विरोध में लोग सड़कों पर आ गये। सरकार को झुकना पड़ा और वे पुनः विश्वविद्यालय के कुलपति बने रहे। कुमाऊं विश्वविद्यालय का नाम राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय जगत में रौशन किया। उन्होंने कुमाऊं विश्वविद्यालय को शिक्षा और शोध का महत्वपूर्ण केन्द्र बनाने में भरपूर योगदान दिया।
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शोध जगत में अभूतपूर्व योगदान देते हुये उन्होंने बीस पीएचडी और 150 शोध पत्र प्रस्तुत किये। वे जीवन पर्यन्त देश की प्रतिष्ठित अनुसंधान संस्थानों एवं कई परियोजनाओं से जुड़े रहे। उनके अंतिम शोध छात्र रहे आशुतोष उपाध्याय बताते हैं- ‘प्रो. डीडी पंत विज्ञान और शोध के अध्येताओं से इसलिये अलग लगते हैं कि उन्होंने भौतिक विज्ञान जैसे गूढ़ विषय का अध्येता रहते हुये भी सामाजिक विषयों और विज्ञान के व्यावहारिक पक्षों को बहुत सहजता के साथ रखा।
आमतौर पर इस तरह के वैज्ञानिकों की अपने समाज, संस्कृति और लोगों से दूरी बनी रहती है, लेकिन प्रो. पंत ने अपने को हमेशा अपने समाज के साथ जोड़े रखा. उनका मानना था कि सामुदायिकता, पहाड़ी शैली, सहकारिता के माध्यम से हम कम साधनों में सही नियोजन से बेहतर जीवन बना सकते हैं। वे कभी व्यवस्था के गुलाम नहीं रहे। एक शोध निर्देशक के रूप में भी उन्होंने अपने लोगों के साथ संवाद के इस गुण को बनाये रखा। वे बहुत गंभीरता के साथ हर छात्र के सवालों, जिज्ञासाओं को सुनते थे और फिर अपनी तरफ से उन्हें निर्देशित करते थे। जब वे अपने छात्रों को समझा रहे होते थे तो लगता था कि इलैक्ट्रॉन-प्रोटोन उन्हें दिखाई दे रहे हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि के बुनियादी मूल्य भाषणों की बजाय उनके व्यवहार में छात्रों को मिलते थे। इसके पीछे हिमालय के गांवों की चिंता थी। गांव के बसने और उनके बचे रहने का दर्शन भी था। वे सीमाम हिमालयी क्षेत्रों के विकास के लिए दोहन नहीं, बल्कि वैज्ञानिक तरीके से यहां की जरूरतों के मुताबिक नीति बनाने की वकालत करते थे। विकास को देखने का उनका नजरिया बहुत अलग और जनपक्षीय था। प्रो. डीडी पंत के विचार ऐसे समय में और प्रासंगिक गये हैं, जब विकास के नाम पर उत्तराखंड में जल, जंगल और जमीनों को अपने हितों के लिये बेहताशा दोहन हो रहा है। लगातार जनता के खिलाफ नीतियां बन रही हैं। सरकारी स्कूल, तकनीकी संस्थान बंद किये जा रहे हैं। बड़े शोध संस्थानों के प्रति बेरुखी से दशकों से। बनाये रिसर्च के ढ़ाचे को समाप्त किया जा रहा है। अस्पतालों को पीपी मोड पर दिया जा रहा है। जमीनों के बेचने के कानून पास किये जा रहे हैं। पंचेश्वर जैसे विनाशकारी बांध बनाने की योजना है। ऑल वेदर रोड के नाम पर पहाड़ों को छीला जा रहा है। घर-घर शराब पहुंचाने का काम व्यवस्था कर रही है। नौजवान बेरोजगार हैं। पहाड़ी राजधानी बनाने की मांग को नकारा जा रहा है।
प्रो. डीडी पंत ने जिस हिमालय को बचाने की बात कही थी, वहां की परिस्थितियों के अनुसार नीतियों के निर्माण की वकालत की थी, उन्हें नीति-नियंता एक-एक कर ध्वस्त कर रहे हैं। ऐसे समय में प्रो. डीडी पंत के विचार और उनकी परिकल्पनाओं के हिमालय को बचाना समय की जरूरत है। इस लैब ने कई ख्यातनाम वैज्ञानिक दिए और कुमाऊं जैसे गुमनाम विश्वविद्यालय की इस साधनहीन प्रयोगशाला ने फोटोफिजिक्स के दिग्गजों के बीच अपनी खास जगह बनाई।
(लेखक विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)