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द्वाराहाट का ऐतिहासिक स्याल्दे बिखोती मेला

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द्वाराहाट का ऐतिहासिक स्याल्दे बिखोती मेला

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

कत्यूरी शासनकाल में राजधानी रहा द्वाराहाट अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए देश-प्रदेश में प्रसिद्ध है। उत्तराखण्ड राज्य के अल्मोड़ा जिले में रानीखेत तहसील मुख्यालय से लगभग 21 किलोमीटर दूर गेवाड़ घाटी में स्थित इस छोटे से कस्बे में 8वीं से 13वीं शदी के बीच निर्मित महामृत्युंजय, गूजरदेव, मनिया, शीतला देवी व रत्नदेव आदि अनेक मंदिरों के अवशेष आज भी अपनी स्थापत्य कला से प्रभावित करते हैं। मंदिरों के चारों ओर अनेक भित्तियों को कलापूर्ण तरीके से शिलापटों अलंकृत किया गया है।द्वाराहाट में मौजूद वर्ष 1048 में निर्मित बद्रीनाथ मंदिर समूह में तीन मन्दिरों को मिलाकर बना है। प्रमुख मंदिर में सम्वत 1105 अंकित काले पत्थर की विष्णु की मूर्ति स्थित है। स्थानीय नदी खीर गंगा के तट पर निर्मित एक अन्य वनदेव मन्दिर मध्य हिमालय के प्राचीन विकसित फांसना शैली के मन्दिरों में से एक है, जिसे पीड़ा देवल शैली के नाम से भी जाना जाता है।

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13वीं शताब्दी में निर्मित तीसरा गुर्जर देव मन्दिर मध्य हिमालय में नागर शैली मंदिरों का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। पंचायतन शैली में निर्मित यह मन्दिर एक ऊंचे चबूतरे पर स्थित है जिसका अधिष्ठान एवं जंघा भाग देव प्रतिमाओं, नर्तकों एवं पशु प्रतिमाओं से अलंकृत है। इस मन्दिर के स्थापत्य व ध्वसांवशेषों से ज्ञात होता है कि यह अत्यन्त भव्य मन्दिर था। कचहरी मन्दिर समूह में 11वीं से 13वीं शताब्दी में बने कुल 12 छोटे-बड़े
अर्धमण्डप युक्त मूर्ति विहीन मन्दिर हैं। एक कुटुम्बरी मन्दिर की उपस्थिति 1960तक बताई जाती है, पर अब यह अस्तित्व में नहीं है। इसकी वास्तु संरचनाओं के अवशेष निकटवर्ती घरों में किए गये निर्माणों में दिखते हैं। 11-12वीं शताब्दी में बना मनियान मन्दिर समूह नौ मन्दिरों का समूह है। इनमें से चार मन्दिर आपस में जुड़े हुए हैं। इनमें से तीन मंदिरों में जैन तीर्थकारों की तथा शेष में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां इतिहास की एक नई धारा की ओर इशारा करती हैं। इसी दौर में निर्मित मृत्युजंय मन्दिर समूह का प्रमुख मन्दिर भगवान शिव- मृत्युजंय को समर्पित है।नागर शिखर शैली में निर्मित यह पूर्वाभिमुखी मन्दिर त्रि-रथ योजना में निर्मित है, जिसमें गर्भगृह, अंतराल और मंडप युक्त है। मन्दिर परिसर में एक मन्दिर भैरव का तथा दूसरा छोटा मंदिर जीर्ण-शीर्ण अवस्था है।

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11-13वीं शताब्दी में निर्मित रतनदेव मन्दिर समूह भी नौ मन्दिरों का समूह रहा है, पर अब इसमें छह मन्दिर ही बचे हैं। इनमें से ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश को समर्पित तीन मन्दिर एक सामूहिक चबूतरे पर स्थित हैं। जिनके आगे उत्तरमुखी मंडप है जो सम्भवत् थे। ऐतिहासिक स्याल्दे बिखौती मेले का विभांडेश्वर से कल श्रीगणेश हो गया है। रणा गांव के नगाड़ों के साथ शिवपूजन के बाद मेले का विधिवत उद्घाटन हुआ। झोड़ों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रही। मध्यरात्रि बाद व नगाड़े निशाणों के साथ आल, गरख और नौच्यूला धड़ों से जुड़े लोग झोड़ा चांचरी गाते हुए विभांडेश्वर पहुंचे। शनिवार की तड़के त्रिवेणी पर महास्नान के बाद आज द्वाराहाट में बाटपुजै (छोटी स्याल्दे) के मौके पर नौच्यूला धड़ा ओड़ा भेंटने की रश्म अदा करेगा। आपको बता दे कि पहले दिन यानी आज नौज्यूला समूह के लोगों ने ओढ़ा भेंटने की रस्म अदायगी की. इस दल में हाट, बमनपुरी, कौला, ध्याड़ी, सलालखोला, छतीना, इड़ा, विद्यापुर और तल्ली बिठोली के कुल 11 जोड़ा नगाडे़ व निषाण लेकर सजधज कर पहुंचे और ओढ़ा भेंटने की रस्म पूरी की।

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आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर लगी आदर्श आचार संहिता के चलते मेले में उतनी रौनक देखने को नही मिली, जिसमे बाहरी व्यापारी भी इस मेले में प्रतिभाग नही कर सके। मेले में मग्न हुए मेलार्थी झोड़ा व चांचरी की उमंग से सराबोर थे। मुख्य स्याल्दे मेले को देखते हुए सुबह से ही महिलाओं की टोलियां मुख्य चौराहे पर जुटनी शुरू हो गई थी। द्वाराहाट का यह प्रसिद्ध स्याल्दे बिखौती मेला वैशाख माह में लगता है। द्वाराहाट से 8 किमी की दूरी पर स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर विभाण्डेश्वर में लगने वाला मेला दो भागों में लगता है। पहला विभाण्डेश्वर मंदिर में, दूसरा द्वाराहाट बाजार में. विषुवत् संक्रान्ति को ही क्षेत्रीय भाषा में बिखौती नाम से जाना जाता है।

कहा जाता है कि प्राचीन समय में शीतला देवी मंदिर में ग्रामीण देवी की पूजा करने को आते थे और ऐसे शुरु हुई ओढ़ा भेंटने की रस्म एक बार किसी कारण दो दलों में खूनी संघर्ष हो गया, हारे हुए दल के सरदार का सिर खड्ग से काट कर जिस स्थान पर दफनाया गया वहां एक पत्थर को रखकर स्मृति चिन्ह बना दिया। इसी पत्थर को ओढ़ा कहा जाता है यह पत्थर द्वारहाट चौक में है. तब से इस ओढ़ा पर चोट मार कर ही आगे बढ़ने की परम्परा है जिसे च्ओढ़ा भेंटनाज् कहा जाता है। इस मेले में ओढ़ा भेजने के लिए विभिन्न दल ढोल-नगाड़े और निषाण से सज्जित होकर आते है. हर्षोल्लास से टोलियां ओढ़ा भेंटने की रस्म अदा करती है।

अलबेरा बिखौती म्यरि दुर्गा हरै गे,
सार कौतिका चा नैं म्यरि कमरै पटै गे।

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मशहूर लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी ने द्वाराहाट में लगने वाले स्याल्दे बिखौती के कौतिक में सुदूर गांवों से आने वाली भारी भीड़ का उल्लेख किया है। इस भीड़ में वो पहाड़ी परिवेश में सजी-धजी अपनी दुर्गा के गुम होने का बखान करते हैं। आज इसी स्याल्दे बिखौती को राज्य मेले के रूप में मान्यता मिल चुकी है। कुमाऊं के पाली पछाऊं में यह मेला बैसाखी के दिन लगता है। कुमाऊं के दूर-दूर के गांवों से महिलाएं और पुरुष पारंपरिक पहनावे में आते हैं। निशाण फहराते हुए पहाड़ी गाजे-बाजे में नाचते-गाते मेला स्थल पर पहुंचते हैं। झोड़े, चांचरी, छपेली और भगनौल की धूम रहती हैं। एक समय था, जब मनोरंजन के साधन नहीं थे। ऐसे में फुलदेई यानी चैत्र के पहले दिन से ही पहाड़ का रंग बदलने लगता था। गांवों में रोज रात को पुरुष-महिलाएं, लड़के-लड़कियां जुटते और समूह में झोड़ा गायन करते थे। हर साल कुछ नए झोड़े रचे जाते और कुछ पुराने सदाबहार झोड़ों को दोहराया जाता। एक हुड़का वादक हाथ से हाथ मिलाकर गोलाकार में घूमने वाले महिला-पुरुषों के बीच में डांगर (झोड़े में अगला जोड़ क्या होगा, उसे बताने वाला) का काम करता। यह विधा पहाड़ से अब लगभग विलुप्त होने की कगार पर है। ग्लोबलाइजेशन के युग में झोड़ों से खांटी कुमाऊंनी शब्द अब विलुप्त से हो रहे हैं। इसलिए नए झोड़ों में कई समसामयिक हिंदी और अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल भी हो रहा है। एक समय इस तरह के गीतों का चलन था :

घुघुती तु घुर घुघुती, घुगुती तु बास लै कब,
काफला तु मिठ काफला, काफला तु पाक लै कब

बैसाख का महीने शुरू हो चुका है, घुघुती तू कब बोलना चालू करेगीज् काफल (जंगलों में मिलने वाला पहाड़ी फल) तू मीठा है, तू कब तक पकेगा। इसी तरह के प्रकृति का बखान करती, देवताओं की स्तुति और जीजा- साली, देवर-भाभी, प्रेमी-प्रेमिका के बीच चलने वाली चुहलबाजी से भरे श्रृंगार रस से ओत-प्रोत झोड़े गाए जाते हैं।

को धूरि फूल ल लौ, मांसी का फूला।
को देवो कैं चढ़ लौ, मांसी का फूला।

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किस जंगल में खिलेगा मांसी का फूल, किस देवता को चढ़ेगा मांसी का फूल.. इस तरह से हर देवता का नाम लेकर उसके दरबार में फूल चढ़ाने की बात झोड़ा गायन में किया जाता है। इसी तरह से जीजा-साली के बीच चलने वाली नोंक-झोंक वाले झोड़ों की धूम रहती है। दोनों के बीच चलने वाली हंसी मजाक को झोड़े में इस तरह से पिराया जाता है…

हे शिखरा डाना घाम उछै गो, छोड़ि दे भिना म्यरि धमेलि।
हे घाम वे छाड़ि घाम उछै जो, नि छोड़ु साई त्यरि धमेलि।

चैत्र मास को रंगीला महीना कहा जाता है। खूब झोड़े और गीत गाए जाते हैं। इस महीने में पहाड़ में बहन- बेटियों को भिटोई (भेंट) देने की परंपरा भी है। एक जमाने में पूरी-पकवान, गुड़ की भेली और धोती-घाघरे देने का रिवाज था। अब बदलते समय में इनकी जगह मिठाइयों, साड़ियों और कैश ने ले ली है। इससे मेहमानों की आवाजाही भी इस महीने में जमकर होती है। यह कुमाऊं के गौरवशाली लोक परंपरा और संस्कृति से जुड़ा है। यह सामूहिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। कृषि और पशुओं का कारोबार करने वाले एक  जमाने में इस मेले का इंतजार करते थे, ताकि यहां आकर अपना माल बेच सकें।आखिर में आप सभी को वैसाखी की शुभकामनाएं…

दाथुलै कि धार, दाथुलै कि धार।
सबु कैं सुफल है जो बिखौती त्यार।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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