नीरज उत्तराखंडी/पुरोला उत्तरकाशी
गढ़वाल या कुमाऊं के पहाड़ों पर अपने गांवों को लौटते समय बस-टैक्सियों में यात्रा करते वक्त लोगों को अक्सर यह कहते हुए सुना जाता है कि हमारा उत्तराखंड तो धरती पर स्वर्ग है और यहां जैसा सुकून दुनिया में कहीं और नहीं, लेकिन जो लोग यह कहते हैं वह वास्तव में पहाड़ में दो-चार दिन के लिए घूमने-घिरने आते हैं। वह साल-छह महीने पहाड़ों में कभी नहीं रुकते। रुके होंगे तो उनके माता-पिता या फिर पूर्वज। अब तो वे देरादूण, हल्द्वानी और दिल्ली-मुंबई वाले ठहरे बल।
ऐसे में भला उन्हें कैसे महसूस हो पाएगा कि मोरी जैसे सीमांत इलाके में लोग बल्लियों के सहारे नदी पार करने को मजबूर हैं। उन्हें कैसे महसूस होगा कि पिथौरागढ़ के बंगापानी क्षेत्र में आई आपदा के बाद कैसे गांव देश-दुनिया से अलग-थलग पड़ गए। जब आपदा पीडि़त लोगों का राशन-पानी खत्म हुआ तो कैसे वे लोग भगवान भरोसे बैठ गए।
जाहिर है कि इसके लिए तो पहाड़ में रहकर पहाड़ जैसा बनकर इसको जीना पड़ेगा। तभी आपको उत्तराखंड के धरती पर स्वर्ग होने का कटु एहसास हो पाएगा, क्योंकि लोक मान्यताएं भी हैं कि स्वर्ग में जाने के लिए कड़ी और सच्ची सेवाभाव वाली पहाड़ जैसी मेहनत जीवनभर सद्मार्ग पर चलकर करनी पड़ती है।
बहरहाल, मोरी ब्लॉक के सीमांत गांवों ढाटमीर, पवाणी, गंगाड और ओसला को जोडऩे वाला सांकरी-तालुका वन मोटर मार्ग विगत दस दिनों से बंद पड़ा है। सीमांतवासी जान जोखिम में डालकर हलारा गाड़ बल्लियों के सहारे पार करने को मजबूर हैं, लेकिन गोविंद वन्य जीव विहार एवं पार्क प्रशासन मार्ग की सुध नहीं ले रहा है। चार गांव के ग्रामीणों का ब्लाक मुख्यालय मोरी से यातायात संपर्क ठप हो गया है। बताया गया कि करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी यह वन मोटर मार्ग बदहाल पड़ा है, लेकिन जिम्मेदार हैं कि इस ओर आंखें मूंदे बैठे हुए हैं।
ब्लॉक कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष राजपाल रावत बताते हैं कि वन मोटर मार्ग विगत दस दिनों से बंद होने से सीमांत गांवों के वाशिदों को हलारा गाड़ में स्थायी पुल के अभाव में बल्लियों के सहारे गाड़ पार करने को मजबूर होना पड़ रहा है। उन्होंने वन मोटर मार्ग को आवाजाही के लिए शीघ्र खोलने की मांग की है।
ऐसा नहीं है कि उत्तरकाशी के सीमांत क्षेत्रवासियों को इस अकेली जगह पर बल्लियों के सहारे नदी पार करनी पड़ रही है, बल्कि ऐसे अनेकों स्थान और भी हैं, जहां क्षेत्रवासी ट्रॉली पर झूलते हुए या फिर बल्लियों के सहारे जान हथेली पर रखकर नदी पार करने को मजबूर हैं, लेकिन यहां ‘विकास’ कब आएगा, देखते-देखते क्षेत्रवासियों की आंखें पथरा गई हैं।
बहरहाल, अब देखना यह है कि भारी समस्याओं से जूझ रहे क्षेत्रवासियों की सुध शासन-प्रशासन और स्थानीय जनप्रतिनिधि कब तक ले पाते हैं!