लोकसभा चुनाव 2024 : इस बार नहीं दिखाई दे रहा चुनावी शोर, गली-चौराहों पर नहीं सजी नुक्कड़ सभाएं, वादों-दावों की पोटली भी खुली फिर भी वोटर शांत
शंभू नाथ गौतम
देश में 18वीं लोकसभा के लिए सात चरणों में चुनाव होने हैं। 21 राज्यों की 102 सीटों पर पहले चरण के तहत 19 अप्रैल को मतदान होगा।
पहले चरण में जिन 21 राज्यों में वोट डाले जाएंगे उसमें बिहार, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ राज्य की सीटें भी शामिल हैं। इस चरण में उत्तर प्रदेश की 8, बिहार की 4, पश्चिम बंगाल की 3, राजस्थान की 12, मध्य प्रदेश की 6, उत्तराखंड की 5, असम की 4, मेघालय की 2, मणिपुर की 2, छत्तीसगढ़ की 1, अरुणाचल की 2, महाराष्ट्र की 5, तमिलनाडु की 39, मिजोरम की 1, नागालैंड की 1, सिक्किम की एक, त्रिपुरा की एक, अंडमान एंड निकोबार की 1, जम्मू-कश्मीर की 1, लक्षद्वीप की 1, पुडुचेरी की 1 सीट पर वोट डाले जाएंगे। इन सीटों पर लोकसभा चुनाव प्रचार के लिए आज आखिरी दिन है। लेकिन अभी तक चुनावी बहार दिखाई नहीं पड़ी। इसके साथ वोटरों में भी उत्साह फीका दिखाई दिया।
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कुछ वर्षों पहले तक चुनावी सीजन में गांव से लेकर शहरों तक चुनाव का शोर दिखाई पड़ता था। शहर की गलियों में चुनाव तक झंडा, बैनर और पोस्टरों से पट जाती थी। चौराहों पर नुक्कड़ सभा में चुनावी चर्चा दिखाई पड़ती थी। जिस तरह से चुनावी पारा चढ़ता रहा है, वह गायब था। इसके साथ लोगों में भी मतदान को लेकर बहुत अधिक उत्साह अभी तक नहीं दिखाई पड़ा। दो दिन बाद 19 अप्रैल को पहले चरण के लोकसभा चुनाव के लिए मतदान होने जा रहा है। लेकिन अभी तक चुनाव जैसा अहसास नहीं हुआ। माहौल गर्माने को बहुत अधिक प्रयास भी होते नजर नहीं आए। वादों-दावों की पोटली भी खुली लेकिन वातावरण शांत-शांत सा रहा। न चुनावी शोर गूंजा और न झंडे-डंडों को लेकर कहीं मारामारी दिखी।
पिछले चुनावों में जिस तरह का माहौल चुनाव प्रचार के दौरान दिखता था और जैसी गर्माहट घुलती थी, वह इस बार नदारद रही।
कुल मिलाकर मतदाता मौन है। यह मौन इसलिए नहीं कि वह किसी से नाराज है या इस पूरी चुनाव प्रक्रिया में ही वह कुछ देखना- समझना नहीं चाहता। मौन इसलिए है कि बार- बार के इन चुनावों और इन रैली- सभाओं, फिजूल के आरोप-प्रत्यारोपों से वह बोर हो चुका है। उसका कोई इंटरेस्ट नहीं रह गया है। रुचि भी इसलिए खत्म नहीं हुई है कि उसका चुनाव जैसी प्रक्रिया से मन ऊब चुका है, बल्कि इसलिए कि सरकार किसी भी दल की रहे, वह काम एक जैसा ही करती है। दरअसल, आम मतदाता अब इस मोड में आ चुका है कि “को नृप होय, हमें का हानि”। सरकारें आजकल भले ही अलग दल की हों, लेकिन उनका स्वभाव एक जैसा ही होता है। वही झूठे वादे, हवाई घोषणाएं और इनके लिए फण्ड जुटाने की खातिर पिछले दरवाज़े से जनता पर हिडन टैक्स लादना। आख़िर किसी सरकार के रहने या किसी के चले जाने से अब आम आदमी को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए बड़ी खतरनाक है। क्योंकि यहां एक दल ने पूरे पांच साल तक अपना वर्चस्व बनाए रखा और दूसरा दल पूरे पांच साल सोया रहा। केवल चुनाव के वक्त जागने से कुछ नहीं होने वाला, इसलिए यह दल अच्छी तरह जानता है कि चुनाव का परिणाम क्या आने वाला है। फिर भी आरोपों की झड़ी लगाई हुई है और कोई भी कम से कम इस मोर्चे पर पीछे नहीं रहना चाहता।
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इस बार का आम चुनाव वादों और दावों की जगह गारंटी और भरोसे का है। इस बार लोकसभा चुनाव में घर गारंटी अभियान की शुरुआत कर चुकी कांग्रेस पहली नौकरी पक्की, भर्ती भरोसा, पेपर लीक मुक्ति, गिग वर्कर सुरक्षा और युवा रोशनी गारंटी के रूप में अलग-अलग वर्गों को साधने की कोशिश की है। इसके अलावा पार्टी ने महिला, किसान, श्रमिक और हिस्सेदारी न्याय के तहत अलग-अलग वर्गों के लिए कई वादे किए हैं। हालांकि पार्टी का घोषणापत्र अब तक जारी नहीं हुआ है।
वहीं एनडीए के लिए अबकी बार चार सौ पार, तो अपने लिए 370 सीटें जीतने का दावा कर रही भाजपा ने मतदाताओं को साधने के लिए ब्रांड मोदी को हथियार बनाया है। पार्टी युवाओं के विकास, महिलाओं के सशक्तीकरण, किसानों के कल्याण और हाशिये पर पड़े कमजोर लोगों के सशक्तीकरण के लिए मोदी गारंटी दे रही है, जबकि विकसित भारत के निर्माण और देश की तीसरी अर्थव्यवस्था बनाने की गारंटी दे रही है। शांत मतदाता न तो गारंटी की ओर भरोसे से देख रहे हैं और न ही भरोसे पर गारंटी देने का संकेत दे रहे हैं। न तो किसी मुद्दा विशेष पर देश में बहस छिड़ी है और न ही कोई ऐसा नारा है, जो लोगों की जुबान पर चढ़ा हो।हालांकि भाजपा के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन के साथ कई क्षेत्रीय दल अपने-अपने मुद्दों को केंद्र में लाने की कोशिश जरूर कर रहे हैं। विपक्षी गठबंधन केंद्रीय एजेंसियों के कथित दुरुपयोग, चुनावी बॉन्ड और केंद्रीय स्तर पर जातिगत जनगणना के मुद्दे को तूल देने की कोशिश कर रहा है।
भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और अध्यक्ष जेपी नड्डा लगातार जनसभाएं कर रहे हैं। इनकी कोशिश केंद्रीय योजनाओं के कारण आए सकारात्मक बदलाव और हिंदुत्व से जुड़े राम मंदिर निर्माण, अनुच्छेद-370 का खात्मा, सीएए जैसी उपलब्धियों को मुद्दों के केंद्र में लाने की है।
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2019 का आमचुनाव इस चुनाव से बिल्कुल अलग था। चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पूर्व ही सियासी मैदान भ्रष्टाचार बनाम राष्ट्रवाद का रूप ले चुका था। कांग्रेस नेता राहुल गांधी राफेल सौदे में भ्रष्टाचार का आरोप लगा कर चौकीदार चोर है, के नारे लगवा रहे थे, जबकि भाजपा पुलवामा आतंकी हमले के जवाब में पाकिस्तान के खिलाफ हुई एयर स्ट्राइक को मोदी है तो मुमकिन है नारा लगा रही थी।
राफेल मामले में पीएम पर व्यक्तिगत हमले को भाजपा गरीब पर हमले से जोड़ रही थी। इन दोनों ही मुद्दों पर तब राष्ट्रव्यापी चर्चा शुरू हो चुकी थी। चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव मुद्दाविहीन रहा, तो हार-जीत तय करने में स्थानीय मुद्दे अहम भूमिका निभाएंगे। जो दल स्थानीय समीकरण साधेगा, चुनाव प्रबंधन बेहतर होगा, वह बाजी मार लेगा।
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