राष्ट्रभक्ति की भावना को मुखर करने वाले महाकवि मैथिलीशरण (Maithilisharan) - Mukhyadhara

राष्ट्रभक्ति की भावना को मुखर करने वाले महाकवि मैथिलीशरण (Maithilisharan)

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राष्ट्रभक्ति की भावना को मुखर करने वाले महाकवि मैथिलीशरण (Maithilisharan)

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

अगस्त का महीना जिस तरह देश के इतिहास में राष्ट्रीयता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, उसी तरह यह माह हिंदी साहित्य जगत में भी अपना अलग महत्व रखता है, क्योंकि आज ही के दिन राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म हुआ था। 3 अगस्त 1886 में जन्मे महाकवि मैथिलीशरण गुप्त को बचपन में स्कूल जाना बिल्कुल पसंद नहीं था, इसलिए उनके पिता सेठ रामचरण गुप्त ने उनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया और उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी और बांग्ला का स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्त किया। गुप्त को अपने शैक्षणिक जीवनकाल में ही साहित्य सृजन की प्रेरणा मिली, जिसके चलते उन्होंने काव्य-लेखन की शुरुआत पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कविताएं प्रकाशित करने से की।

पिता के धार्मिक व्यक्तित्व ने उन्हें ख़ासा प्रभावित किया। नकली किला और भारत-भारती जैसी रचनाओं की वजह से उन्हें ब्रिटिश सरकार का कोप-भाजन भी बनना पड़ा। यहां तक कि प्रादेशिक सरकार ने उनके साहित्य के कुछ अंशों पर रोक तक लगा दी और उसे जब्त कर लिया, लेकिन फिर भी हम उन्हें आज पढ़ पा रहे हैं ये हमारे समय के लिए सौभाग्य की बात है। गुप्त का कवि रूप विशिष्ट था। उनके साहित्यिक व्यक्तित्व में सादगी और गंभीरता का विशेष स्थान है। महात्मा गांधी के जीवन दर्शन से उन्होंने प्रेरणा और प्रभाव ग्रहण किया।

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पारिवारिक संस्कारों के चलते उनके जीवन और काव्य में भी उदारता, कर्तव्यशीलता और धर्मनिष्ठा मुख्य रूप से देखने को मिलती है। उन्होंने समस्त सामाजिक मूल्यों में नैतिकता को सबसे ऊपर रखा। अपने संपूर्ण जीवन में उन्हें जैसी ख्याति और सम्मान मिला वैसी उपलब्धि हिंदी जगत में बहुत कम रचनाकारों को प्राप्त हुई। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने उन ऐतिहासिक और पौराणिक स्त्रियों के दुखों को शब्द और आवाज़ दी, जिन्हें लेकर हिन्दी भारतीय साहित्य उनसे पहले सो रहा था, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं उनकी रचनाओं में महात्मा बुद्ध की पत्नी यशोधरा और लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला के दुख को स्थान मिलना।

धोती और बंडी में माथे पर तिलक लगाए संत की तरह अपनी हवेली में रचनारत रहे गुप्त जी ने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। उनके जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भरे थे। भारती-भारती के प्रकाशन के साथ मैथिलीशरण गुप्त को महात्मा गांधी द्वारा च्राष्ट्रकविज् की उपाधि मिली और साकेत के प्रकाशन ने इस उपाधि को सिद्ध पूर्ण करने का काम किया। हिन्दी कविता में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को सबसे आगे माना जाता है। मृषा मृत्यु का भय है

जीवन की ही जय है।
जीव की जड़ जमा रहा है
नित नव वैभव कमा रहा है
यह आत्मा अक्षय है
जीवन की ही जय है।
नया जन्म ही जग पाता है
मरण मूढ़-सा रह जाता है
एक बीज सौ उपजाता है
सृष्टा बड़ा सदय है
जीवन की ही जय है।
जीवन पर सौ बार मरूं मैं
क्या इस धन को गाड़ धरूं मैं
यदि न उचित उपयोग करूं मैं
तो फिर महाप्रलय है
जीवन की ही जय है।
नर हो, न निराश करो मन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।
संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।
प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।
किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जन हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।
करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।

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स्वतंत्रता आंदोलन के उस दौर के अधिकांश कवि आजादी के गीत गा रहे थे, ‘मैं स्वतंत्र हूं, मेरे देशवासी स्वतंत्र हैं। मेरा स्वर उन्मुक्त है, मेरे देशवासियों का स्वर उन्मुक्त है और मेरे विश्व का स्वर उन्मुक्त है। मेरे देश और विश्व के बीच में न किसी समुद्र की सीमारेखा है और न किसी पर्वत की। आज मेरे कंठ में स्वतंत्रता का संगीत है। ‘मैथिलीशरण गुप्त भी ऐसी दर्जनों कविताओं के माध्यम से देशभक्ति को स्वर देते आ रहे थे। आजादी की अनुगूंजें उनके काव्य का प्रमुख स्वर बनती गयीं। उसी दौरान ब्रिटिश सत्ता ने उन्हें राजबंदी के रूप में गिरफ्तार कर लिया।

कविता का मर्म रचने वाले कवि की कोमलता और शब्दों की मासूमियत से झरते सुकुमार भावों के भीतर बसी कल्पना से उन्हें जेल ले जाती पुलिस को क्या सरोकार? मैथिलीशरण और बड़े भैया पकड़ लिए गए हैं, सुनते ही झांसी में भीड़ उमड़ पड़ी। मैथिलीशरण जिंदाबाद, दद्दा नन्ना अमर रहें जैसे नारों से आकाश गूंज उठा। पूरी रात जनसमुदाय कोतवाली से नवाबाद थाने तक साथ-साथ चलता रहा। सुबह होते ही दद्दा नन्ना को सेंट्रल जेल जाना था। केंद्रीय कारागार जाने की तैयारी हो रही थी, परंतु जनरव था कि थम ही नही रहा था।

सेंट्रल जेल के फाटक पर राजनीतिक बंदियों ने दद्दा-नन्ना का खुले मन से स्वागत किया। जेल के अंदर भी नारे लगने लगे।मैथिलीशरण को जेल के स्पेशल वार्ड में रखा गया, पर उन्होंने साफ मना कर दिया, ‘हम अपने लोगों के साथ ही रहेंगे। उन्हीं के साथ उन्हीं जैसा भोजन करेंगे। ‘जेलकर्मियों को उनकी बात माननी पड़ी। सेंट्रल जेल झांसी में रहने के कुछ दिनों बाद उनका तबादला आगरा जेल कर दिया गया। वे झांसी जेल में कुछ महीने रहे जहां उन्होंने ‘ कुणाल गीत’ लिखना शुरू किया। एक ग्रंथ ‘कारा’  नाम से छपा। यहीं पर महाभारत को आधार बनाकर एक बड़े ग्रंथ की योजना ‘जय भारत’ के नाम से बनायी।

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झांसी से आगरा जेल जाते समय वे गांधी की सेना के सिपाही हो गए और भारी भरकम कोट की जगह कुर्ता व धोती का स्थान पाजामे ने ले लिया। वह असाधारण से सर्वसाधारण बन गए। अनुज सियारामशरण ने बाद में लिखा, ‘सवेरे के सात बजे ही मैं जेल के इस फाटक पर पहुंच गया हूं। इसके अंदर मेरे तीन आत्मीय जन नजरबंद है। क्यों नजरबंद किया गया है उन्हें? इस तरह के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता। जिन्होंने ऐसा किया है, वे इस विषय में मौन हैं।

अदालतों, हाईकोर्टों के दरवाजे भी इन प्रश्नों के लिए बंद किए जा चुके हैं और यह सब हुआ है भारत रक्षा के नाम पर।&प्त३९;सचमुच ये कितनी बड़ी विडंबना थी कि ‘भारत भारती’ के रचनाकार से भारत की रक्षा को खतरा था, इससे बड़ा व्यंग्य और क्या हो सकता था। आगरा जेल में उनके साथ आचार्य नरेंद्रदेव, डा. बालकृष्ण, डा. विश्वनाथ केसकर जैसे साथी जुड़े रहे। जेल में दद्दा नियमित रूप से चरखा चलाते और समय मिलते ही कविताएं रचते गढ़ते। वह सूत कातते रहते और उनका सूत वस्त्र बनकर गांधी  के पास पहुंचता था जिसे वह प्रेम से धारण करते थे। वह जेल में 7-8 घंटे एक आसन पर बैठकर सूत कातते थे। वह सारा सूत गांधी जयंती पर गांधी जी को भेंट किया गया।

गांधी ने वर्धा से प्रकाशित खादी जगत के मासिक पत्र में अक्तूबर अंक में लिखा, ‘सरकार भी कभी-कभी बड़ी उदार हो जाती है। मैथिलीशरण  भी उन्हीं में हैं। वह भी बरबस पकड़ लिए गए हैं। वह सुप्रसिद्ध कवि तो हैं, लेकिन कविता आज उन्हीं की कलम से नहीं वरन उनके सूत के तागों से निकलती है।’जेल में दद्दा की छप्पनवीं वर्षगांठ मनायी जा रही थी। वहां नजरबंदों की ओर से उन्हें अभिनंदन पत्र दिया जा रहा था। उन्होंने ‘द्वापर’ के अंश पढ़े। मानपत्र आचार्य नरेंद्रदेव पढ़ रहे थे, ‘आपने अपनी रचनाओं द्वारा हिंदी में हिंदुस्तान के गौरव का गान करके हिंदी को तथा अपने को भारत वंद्य बनाया है। हम बड़े भाग्यवान हैं कि हमें आप जैसा राष्ट्रकवि प्राप्त हुआ है।

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‘मैथिलीशरण सात महीने तक जेल में रहे। तब भी गवर्नर हैलट उनका कोई दोष या अपराध नहीं बता पाए। जेल में रहकर जो ग्रंथ शुरू हुए, उन्हें बाहर आकर पूरा किया गया। इसी समय ‘विश्ववेदना’ ग्रंथ प्रकाशित हुआ जो संसार व्यापी दो विश्वयुद्धों की विभीषिका पर गहन चिंतन का प्रतिफल था। जेल में कांग्रेसी, कांग्रेस समाजवादी, कम्युनिस्ट और तमाम क्रांतिकारी नजरबंद थे। मैथिलीशरण सभी की श्रद्धा के पात्र थे। वह अपनी सरलता और सादगी से सभी को प्रभावित करते। आगरा सेंट्रल जेल में राजबंदियों को कवि सम्मेलन की उमंग-तरंग भा गयी।

मैथिलीशरण के अलावा रघुनाथ विनायक धुलेकर ने भी कविता पढ़ी। शील जी उस समय गांधीवादी थे और उन्होंने चर्खाशाला के कुछ अंश सुनाए। मैथिलीशरण अंत तक अपनी कविताओं में राष्ट्रीयता के नए-नए रंग भरते रहे और नव रस घोलते प्रसारित करते रहे। जेल में एक-बार जब उनसे पूछा गया था,’आप कुछ कहना चाहेंगे? ‘कर्णकटु शब्द सुनकर वह तीखी आवाज में उबल पड़े थे, आपका दिमाग खराब हो गया है? आपसे क्या बात करें? आप तो निर्दोषों को पकड़ते घूमते हैं। हमारा क्या, हम तो लेखक ठहरे। यहां यह सब जो भी गलत बात देखेंगे और इसके खिलाफ लिखेंगे भी।लताड़ सुनकर सहम गया था कलेक्टर। राजबंदी के रूप में गिरफ्तार मैथिलीशरण गुप्त से मिलने अनुज सियाराम शरण गुप्त जेल जा पहुंचे। जेल के फाटक से तेजी से आते-जाते बंदियों को देखते रहते सियाराम और वेदना व्यथित मन में बेचैनी बढ़ती जाती।

दोपहर का सूरज तेजी से तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता जाता। चलती हवाएं ऐसी लगतीं जैसे सूरज के गर्म थपेड़े एक साथ कोड़े फटकार रहे हों पीठ पर। अनुज सियाराम शरण के पूछने पर एक ही बात सुनने को मिलती, ‘कागज भीतर भेजे गए हैं।’सोचते सुनते हुए उनका गला सूखने लगा। उन्हें लेाहे की छड़ों से बुना वह फाटक किसी दैत्य जैसा भयावह लगने लगा था जिसके भीतर जेल अधिकारियेां के दफ्तर थे।

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हमारे देश के रहने वाले सैकड़ों नेताओं के अलावा ऐसे लाखों करोड़ों महान आमजन हैं जो देश की आजादी के लिए महीनों सालों से दिन-रात आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे राजबंदी अन्याय और अपमान के खिलाफ विद्रोह करने में सबसे आगे हैं। सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, जब राजभाषा का चयन हुआ, तो सन 1949 में अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी को भी राजभाषा का दर्जा दिया गया।हिंदी के कई बड़े साहित्यकारों  का मानना है, कि हिंदी को राजभाषा बनाये जाने का श्रेय गुप्त को जाता है, जिनकी रचनाओं ने हिंदी को लोकप्रिय बनाया।

उनके बाद छायावादी कवियों की रचनाओं से में रचना करने की प्रेरणा दी, हिंदी को आम बोलचाल की भाषा बनने में मदद मिली। गुप्त को हिन्दी भाषा में विशिष्ट सेवा के लिए आगरा विश्वविद्यालय ने सन 1948 में डी. लिट् की उपाधि से सम्मानित किया और सन 1952 में वो स्वतंत्रता के बाद राज्य सभा के सर्वप्रथम मनोनीत सदस्य भी बने। कविताओं के माध्यम से विरोधी नेताओं के बारे में अपने विचार प्रकट करने का अंदाज़ शुरू करने का श्रेय गुप्त को दिया जाता है। 24 अप्रैल सन 1954 में जब केन्द्रीय बजट पेश हुआ, तब बजट में कर को बढ़ावा देने की बात को सरकार द्वारा प्रस्तावित किए जाने पर, गुप्त ने कविता रूप में भाषण दिया:

शासक सब हैं बिना ह्रदय के, बड़े पदों पर पलते हैं,
चलते नहीं परन्तु पदों से, सदाकरों से चलते हैं।
कर क्या?सिर देने में बीच है अहो भाग्य अपनों के अर्थ
पर कब तक परघाट हमारा किया करेगी खूब अनर्थ?
लज्जा है रक्षक सज्जा में, अब भी कितने भक्षक हैं,
सावधान फूलों के भीतर छिपे हुए वे तक्षक हैं!

गुप्त के लिये सम्मानों का सिलसिला जारी रहा, जहां उनको भारत सरकार ने सन 1954 में देश के तीसरे सर्वोच्च पुरस्कार पदम्भूषण से सम्मानित किया। इसके बाद पहले भारतीय राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सन 1962 में गुप्त को ‘अभिनन्दन ग्रंथ’ से अलंकृत किया। राज्य सभा में अपने कार्यकाल के दौरान ही 12 दिसंबर, सन 1964 को 78 वर्ष की उम्र में भारत के इस महान कवि का निधन हो गया।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)

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