मिलेट्स (Millets): ग्लोबल हब ही नहीं, लोकल हब भी बनाना पड़ेगा - Mukhyadhara

मिलेट्स (Millets): ग्लोबल हब ही नहीं, लोकल हब भी बनाना पड़ेगा

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मिलेट्स (Millets): ग्लोबल हब ही नहीं, लोकल हब भी बनाना पड़ेगा

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

मोटे अनाज को खेती और उसके उपयोग को लेकर कई सारी सीमाएं उसकी राह की रोड़ा बनी हुई थीं, जिसे सरकार की पहल से दूर कर दिया गया है। मानव जाति के लिए ज्ञात सबसे पुराने खाद्य पदार्थों में से एक, छोटे बीज वाले और कठोर, ये फसलें कम से कम लागत के साथ उक्त भूमि पर उग सकती हैं और जलवायु में परिवर्तन के लिए लचीली हैं।इस साल २०२३ को ख़ास तौर पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत के आग्रह पर इंटरनेशनल मिलेट्स इयर (वर्ष ) घोषित किया है. इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिलेट्स का उत्पादन बढ़ाने, उपयोगी प्रसंस्करण और बेहतर फसल चक्र के साथ खाद्य सुरक्षा को बल मिलेगा। इस दिशा में केंद्र सरकार ने शुरुआती कई कदम उठाए हैं।

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मिलेट्स में भारत को सबसे बड़ा ग्लोबल हब बनाने और मोटे अनाज की विविध किस्मों को बढ़ावा देने के लिए केंद्रीय बजट में कई बड़े प्रावधान किए गए हैं। हालाँकि उत्पादकता बढाने के लिए इसे किसानों के बीच लोकप्रिय और सर्व सम्मत बनाना एक बड़ी चुनौती है। उससे भी ज़्यादा इसे गेंहू-चावल की जगह लोगों की थाली तक पहुँचाने में मशक्कत करना पड़ेगी। यदि सरकार इसमें किसी तरह सफल हो जाती है तो कृषि क्षेत्र की तस्वीर ही बदल जाएगी। भारत दुनिया का सबसे बड़ा मोटे अनाज का उत्पादक तथा दूसरे नंबर का निर्यातक है।

पोषक तत्वों की अधिकता होने से सुपर फ़ूड माने जाने वाले मिलेट क्रॉप्स या मोटा अनाज का उत्पादन दुनिया में सबसे ज़्यादा भारत में लगभग 41 फीसदी तक होता है। इनमें16 तरह के अनाज-ज्वार, बाजरा, रागी, सावां, कंगनी, कोदो, कुटकी,चीना, कुट्टू, झंगोरा और बैरी आदि शामिल हैं। लेकिन फिलहाल आठ ज्वार, बाजरा, रागी, सावां, कंगनी, कोदो, कुटकी और चीना को ही मिलेट्स इयर में चिन्हित किया गया है। इससे पहले सरकार २०१८ में इसे पोषणकारी अनाज घोषित कर चुकी है और पोषण मिशन अभियान में भी इसे शामिल किया गया है। मिलेट्स खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को मज़बूत करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। एशिया और अफ्रीका जैसे बड़े भूभाग इसके सबसे बड़े उपयोगकर्ता हो सकते हैं।

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वित्त मंत्री ने2023-24 के केन्द्रीय बजट में मोटे अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए च्श्री अन्न योजना लांच करने का ऐलान लिया है। इसके तहत बाजरा, ज्वार, रागी जैसे मिलेट्स का उत्पादन करने वाले किसानों को प्रोत्साहित किया जाएगा। इसके अलावा युवा उद्यमियों के ग्रामीण क्षेत्र में एग्री स्टार्टअप शुरू करने के साथ मोटे अनाज का ग्लोबल हब बनाने के उद्देश्य से हैदराबाद में भारतीय मिलेट्स रिसर्च इंस्टीट्यूट को उत्कृष्टता केंद्र के रूप में विकसित करने का प्रावधान किया है ताकि यह संस्थान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ कार्यप्रणाली, अनुसंधान और तकनीकी को साझा कर सके.हम सब जानते हैं कि हमारे देश में बड़े पैमाने पर मोटे अनाज की खेती और इसका खाने में इस्तेमाल सदियों से होता रहा है।

सत्तर के दशक में हरित क्रांति के आने के बाद ज़रूर देश में गेंहू, चावल की खेती और उसके इस्तेमाल को बढ़ावा मिला लेकिन उससे पहले हमारे पुरखे खेती के आरंभ से ही मोटा अनाज उगाते रहे हैं। यह कई मायनों में हमारे लिए फायदे का सौदा है. पहला तो इनकी परम्परागत खेती बेहद आसान और कम खर्चीली होती है। इनमें बाज़ार से खरीदकर लाने वाले खाद, बीज और कीटनाशकों का खर्च नहीं होता। देसी और जैविक खाद और स्थानीय बीजों से ही इस फसल को किसान ले सकते हैं।

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दूसरा सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि फसल के लिए जिस तरह ज़मीनी पानी का बेजा इस्तेमाल हम बीते बीस-तीस सालों में देख रहे हैं, उससे छुटकारा मिल सकता है। मिलेट्स क्रॉप को कम पानी की ज़रूरत होती है।

मोटे अनाज जैसे बाजरा या रागी फसल के एक पौधे को पूरे जीवनकाल में सिर्फ़ 340 मिलीलीटर और ज्वार के एक पौधे के लिए 400 मिलीलीटर पानी की ही आवश्यकता होती है, जबकि दूसरी तरफ़ गन्ने, गेंहू,चने और चावल की फसल में बहुत ज़्यादा पानी की ज़रूरत होती है। गन्ने के एक पौधे के जीवन काल में 2100 मिलीलीटर पानी लगता है यानी लगभग चार गुना से भी अधिक बारिश की अधिकता या कमी से जहाँ दूसरी फसल पूरी तरह बर्बाद हो जाती है, वहीं मिलेट्स की फसल खराब होने की स्थिति में भी पशुओं के चारे के लिए उपयोगी हो सकती है। इनके अवशेष पशुओं के खाने से इनकी पराली नहीं जलानी पड़ती और इस तरह पर्यावरण प्रदूषित होने से बच सकता है। गेहूं-चने और प्याज-लहसुन की फसल के पानी के लिए हमारे यहाँ किसानों ने धरती की छाती छलनी कर दी है। इससे ज़मीन में जल स्तर लगातार नीचे चला गया और हमने पुरखों की मेहनत से करोड़ों सालों से संग्रहित धरती के भीतर सहेजे-सँजोए पानी के ख़ज़ाने को तहस-नहस कर डाला।

पानी के छल में लाखों किसान ट्यूबवेल लगवाकर कर्ज़दार हो गए. पानी और पैसा दोनों बेतहाशा खर्च करने के बाद भी खेती की लागत तक निकलना मुश्किल होती जा रही है। ऐसे में मोटे अनाज की परम्परागत खेती का चलन लौटता है तो यह किसानों और ज़मीनी पानी दोनों के लिहाज से सोने पर सुहागा साबित हो सकता है। मौसम की बेरुखी और जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार घाटे में जा रही खेती इस रास्ते चलाकर एक बार फिर से फायदे का सौदा साबित हो सकती है. मोटे अनाज को बंजर ज़मीन, उष्ण वातावरण तथा बदलते हुए परिवेश में भी बिना अधिक मेहनत आसानी से उगाया जा सकता है. जबकि वर्तमान खर्चीली खेती की वजह से किसान बढ़ते हुए क़र्ज़ में इतनी बुरी तरह दबते-पीसते जा रहे हैं कि कई बार तो उन्हें अपने खेतों से ही हाथ धोना पड़ जाता है।

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ज़मीन माफ़िया औने-पौने दामों में उनसे सोना उगलती ज़मीनें खरीदकर कॉलोनियाँ, फेक्ट्रियाँ तथा इसी तरह की गैर कृषि कार्यों के लिए अच्छे दामों में बेच देते हैं। देश में यह सब हमारे आसपास बड़ी तादात में हो रहा है। अब तो यह चिंता सताने लगी है कि यदि खेती की ज़मीनें इसी तरह छिनी जाती रही तो आगे के सालों में बढ़ती हुई आबादी के भोजन के लिए अनाज, दलहन, तिलहन और सब्जियाँ कहाँ से आएँगी।

ग्रामीण विकास और खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से भी मोटे अनाज को बढ़ावा दिया जाना बेहतर कदम होगा. मिलेट्स को बढ़ावा देने का तीसरा बड़ा फायदा लोगों की सेहत से जुड़ा है। एक तरफ़ रासायनिक खेती के ज़हर से मुक्ति मिल सकती है तो दूसरी तरफ सेहतमंद परंपरागत अनाज सुगमता से मिल सकता है. कुपोषण बढ़ने का भी यह एक बड़ा कारण है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में किए गए अध्ययन लगातार ताकीद कर रहे हैं कि भारत जैसे देश की जलवायु में हमने मोटे अनाज को उपेक्षित कर बहुत बड़ी गलती की है।

इसकी वजह से बड़ी आबादी थायराइड, मोटापा, कैंसर, गठिया, मधुमेह, हड्डियों के कमज़ोर होने सहित कई गंभीर बीमारियों के शिकार बनती जा रही है। मोटे अनाज में कैल्शियम, जिंक, फास्फोरस, मैगनीशियम, पौटेशियम, फाइबर विटामिन बी और लौहा ज़्यादा होने से ये सेहत के लिए बहुत अच्छे होते हैं। बढ़ते हुए बच्चों तथा शिशु आहार के साथ ये महिलाओं तथा बुजुर्गों के लिए भी बेहद फायदेमंद होते हैं। कोरोना के बाद मोटे अनाज इम्यूनिटी बूस्टर के रूप में पहचाने जाने लगे हैं। किडनी और फेफड़ों के लिए भी ये लाभकारी हैं। ये न तो एसिडिटी बढ़ाते हैं और न ही कब्ज की परेशानी. इनमें एंटीऑक्सीडेंट होते हैं, जो झुर्रियों को रोकते हैं और विषैले तत्वों को शरीर से डिटॉक्स भी करतेहैं। सरकार ने मिलेट्स को बढ़ावा देने के लिए व्यापक कार्य योजना बनाई है।

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इसके तहत फिलहाल बाजरा को ब्रांड बनाया जा रहा है। भारतीय बाजरा और उससे तैयार होने वाले उत्पादों को दुनिया में लोकप्रिय बनाने के लिए कई प्रयास किए जा रहे हैं। मिलेट्स इयर में इसके संवर्धन कार्यक्रम को दुनिया के ७२ देशों ने समर्थन दिया है। अब जर्मनी, ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, दक्षिण अफ्रीका, दुबई, दक्षिण कोरिया, इंडोनेशिया, सऊदी अरब, सिडनी और बेल्जियम आदि में बाजरा को बढ़ावा देने के लिए कोशिशें तेज़ कर दी गईं है। खाद्य एवं कृषि संगठन एफएओ के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष २०२० में बाजरा के वैश्विक उत्पादन ३०.४६४ मिलियन मीट्रिक टन में भारत की हिस्सेदारी 41 फीसदी यानी 12. 41 मिलियन मीट्रिक टन की रही है जबकि 2021-2022 में 27 फीसदी की बढ़ोत्तरी करते हुए 15.92 मिलियन मीट्रिक टन का उत्पादन किया है. लेकिन दुर्भाग्य से इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन के बावजूद इसका निर्यात बहुत कम महज एक फीसदी ही हो पा रहा है। राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गुजरात और मध्यप्रदेश सबसे ज़्यादा बाजरा उगाते हैं.विशेषज्ञ मानते हैं कि बाजरा उत्पादन का कारोबार फिलहाल 9 अरब डालर का है जो बढ़कर 2024 तक 12 अरब डालर तक पहुँच जाएगा। इससे किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है। पानी, खाद और कीटनाशकों पर होने वाले खर्च को रोका जा सकता है, जिससे किसानों को ज़्यादा बचत होगी और उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो सकेगी। समर्थन मूल्य अधिक होने तथा आसानी से बाज़ार उपलब्ध होने से बड़ी संख्या में किसान फिलहाल गेहूं-चने और धान की खेती करते हैं, लेकिन इसकी लागत दिन-ब- दिन बढ़ती जा रही है। खाद और कीटनाशकों के अलावा सबसे बड़ा नुकसान धरती के पानी का हो रहा है. गेहूं-चने और प्याज-लहसुन जैसी फसलों में बहुत पानी लगता है। गेंहू की फसल में चार से पाँच बार तक पानी देना पड़ता है। जल स्तर लगातार गहरे धँसते जाने और अनियमित बारिश की वजह से यह परेशानी और बड़े रूप में हमारे सामने है। इसी वजह से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश आदि प्रदेशों के कई इलाकों में खेती-बाड़ी तो दूर पीने के पानी तक को लोग मोहताज़ हो चुके हैं। मोटे अनाज की इस धारणा को यदि हम किसी तरह ज़मीनी हकीक़त में उतार सके तो भारतीय कृषि की सूरत और सीरत दोनों बदल जाएगी।

फिलहाल मोटे अनाज की खेती अपनी खास जलवायु और अनुकूलताओं के मुताबिक क्षेत्रीय प्रकृति में अलग-अलग इलाकों के बहुत छोटे हिस्सों तक ही सीमित है, मिलेट्स फूड फेस्टिवल के माध्यम से इन अनाजों की पहुंच आम लोगों से खास लोगों तक पहुंचने लगी है।

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हैरानी इस बात की है कि पोषक तत्वों से भरपूर होने के बावजूद इन वर्ग के अनाजों की हैसियत खेतिहर मजदूरों की (बन्नी) मजदूरी तक सीमित थी। जबकि गेंहू और धान की खेती बड़े रकबे में की जाती है। इनमें भी कहीं बाजरा, कहीं ज्वार तो कहीं रागी की फसल होती है। इन्हें व्यवस्थित रूप दिया जाए और उससे भी अधिक आवश्यकता इस बात कि है कि हमारी परम्परागत खेती में जिस तरह मिश्रित फसलों की परम्परा रही है, यदि उस तरह से अन्य फसलों के साथ मोटे अनाज को भी प्रोत्साहित किया जा सका तो बेहतर होगा। मोटा अनाज खेती, किसान, पर्यावरण, पानी, सेहत और स्थानिकता के हर लिहाज से महत्वपूर्ण है. सबसे बड़ी ज़रूरत सरकार की कोशिशों के साथ-साथ समाज की मानसिकता में बदलाव की है।
(लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)

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