प्रकृति पूजने का लोक पर्व फूलदेई
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सांस्कृतिक विविधता के मामले में उत्तराखण्ड की अपनी एक अलग पहचान है। यहां हर महीने कोई न कोई त्यौहार मनाया ही जाता है, पहाड़ की यह अनूठी बाल पर्व की परम्परा जो मानव और प्रकृति के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रतीक है।
फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले दवार…..फूल देई-छ्म्मा देई।
यह गीत उत्तराखंड में आजकल के दिनों में गुनगुनाया जाता है क्योकि पुरे उत्तराखंड में आजकल फूलदेई लोकपर्व सुरू हो चूका है जो अगले कुछ दिनों तक मनाया जाता है।
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14 मार्च को चैत्र मास की संक्रान्ति है, यानि भारतीय कलैंडर का प्रथम दिन। इस संक्रांति को उत्तराखण्ड में ‘फूलदेई’ के नाम से एक लोक पर्व मनाया जाता है, जो बसन्त ऋतु के स्वागत का त्यौहार है। इस दिन छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्योली/फ्यूंली, बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं और एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर लोकगीतों को गाते हुये जाते हैं और देहरी का पूजन करते हुये गाते हैं- फ्योली और अन्य रंग बिरंगे फूलो को एकत्रित करने के लिए दौड़ पड़ते थे। खासकर यह होड़ रहती है की सुबह सबसे पहले कौन अपनी फूलो की टोकरी खाली करेगा। “बुरांस” नामक फूल को लाने के लिए जंगल जाते थे।
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आजकल के दिनों में गाँव का माहौल बड़ा आनंदित भरा रहता है सुबह सुब नन्हे मुन्हे बच्चों के मुख से भिन्नं भिन्न प्रकार के लोकगीत सुनाई देते है। जो पुरे मन, मस्तिष्क को रोमांचित कर देते है पहाड़ की यह अनूठी बाल पर्व की परम्परा जो मानव और प्रकृति के बीच के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रतीक है। जहां कुमाऊं में इसे फूलदेई के रूप में मनाया जाता है। वहीं, गढ़वाल में फूल संक्राति के रूप में मनाया जाता है। ये उत्तराखंड के बाल पर्व के रुप में मनाया जाता है. बच्चों की आस्था और हर्षोल्लास का त्योहार फूलदेई आज देवभूमि में धूमधाम से मनाया जा रहा है। ग्रामीण इलाके आज भी पहाड़ की संस्कृति को संजोए हुए है।तेज़ी से बड़ रही आधुनिकता के कारण यह प्राचीन परम्परा विलुप्त की कगार पर खड़ी हो गयी है बाल स्वरों में परिवार की खुशहाली और घर की समृद्धि की कामना समाए रहती है। पहाड़ की विशेषता है कि जीवन में तमाम चुनौतियां, संकट होने के बाद भी सामाजिक उल्लास में कमी नहीं रहती।
आज लोगों को पर्यावरण बचाने के लिए अभियान चलाने पड़ रहे हैं, लेकिन उत्तराखंड में ये मुहिम सदियों से चली आ रही है। बच्चों को फूलदेई के माध्यम से पहाड़ से, पेड़-पौधों, फूल-पत्तियों और नदियों से प्रेम करने की सीख दी जाती है। फूलदेई की परंपरा लोकगीतों के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती रही। ‘नई डाली पैय्यां जामी, देवतों की डाली’, ‘तुमरि देहरियों रौ बसंत फूलों का बग्वान’, ‘फूलदेई , छम्मा देई’
जैसे कई लोकगीत हैं, जो फूलदेई पर्व और इसकी पवित्रता का बखान करते हैं। प्रकृति के बिना मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं। ये प्रकृति ही है, जो हमें खुद से जोड़े रखती है।
उत्तराखंड के लोक जीवन में प्रकृति का विशेष महत्व है, इसी प्रकृति के सम्मान का पर्व है फूलदेई भी कुछ ऐसा ही पर्व है। इन प्राचीन परम्पराओ को बचाने के लिए सरकार को निति तय करनी होगी और स्कूलों मे बच्चों को इस बालपर्व फूलदेई को मनाने के लिए प्रेरित किया जाय व इस परम्परा से संबन्धित लेख या कविताओं को नौनिहालों के पाठ्यक्रम मे शामिल किया जाय ताकि इसे व्यापकता प्रदान हो सके. सरकार की ओर से इस विषय पर ठोस सकारात्मक पहल करनी होगी। हमें अपनी परम्पराओं तथा संस्कृति से भावी पीढ़ी को जोड़ना होगा।
उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं