सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) जयंती पराक्रम दिवस के नाम से मनाई जाने लगी
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
स्वतंत्रता संग्राम को समझने। करीब से परखने और जिद को जुनून में तब्दील होने की असल कहानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बिन अधूरी है। भले ही नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक में हुआ। लेकिन उनका जीवन पर्यंत उत्तराखंड से आत्मीय लगाव रहा। ऐतिहासिक दस्तावेजों, प्रतिष्ठित इतिहासकार व रिसर्च ब्यूरो के अनुसार सुभाष बाबू को कई मामलों में खुद से ज्यादा उत्तराखंड के अपने सहयोगियों पर भरोसा रहा। बात चाहे आजाद हिंद फौज में मार्चेबंदी की हो या फिर देश के लिए मर मिटने का जुनून, नेताजी ने हर अवसर पर उत्तराखंड के जांबाजों को ही सर्वोत्तम माना। को उडीसा के कटक में जानकीनाथ बोस और प्रभावतीदत्त बोस के घर जन्में बालक सुभाषचन्द्र बोस आज भी युवाओं के जोशीले नेताजी के रूप में भारत के तमाम नवयुवकों के हीरों हैं। जो जीवन की चुनौतियों को स्वीकारना जानते हैं। सदियों से कहावत रही है कि ‘पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं’ जिसका बेहतरीन उदाहरण सुभाषचन्द्र बोस हैं।
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साहस के साथ समाज सेवा, देश प्रेम के साथ राष्ट्र भक्ति की मिशाल हैं सुभाषचन्द्र बोस। बचपन में आप जितने साहसी थे उतने ही उदार भी। कहते हैं कि ओडिशा के कटक शहर में स्थित उड़िया बाजार में प्लेग फैला हुआ था। उस इलाके में केवल बापू पाडा मोहल्ला इस बीमारी से बचा हुआ था। उसकी बडी वजह थी वहां पर मौजूद साफ-सफाई के पुख्ता इंतजाम। जिसे करने के लिए 10 वर्ष से 18 वर्ष के नौवयुवकों ने एक टीम बनायी हुई थी उस टीम का नेतृत्व कर रहा था 12 साल का एक बालक। इस बाजार में हैदर अली नाम के एक व्यक्ति का दबदबा था। हैदर बापू पाडा में साफ-सफाई करने वाले बच्चों को अकसर डाट फटकार कर भगा देता। उसके र्दुव्यवहार के चलते कई बार वह जेल भी जा चुका था। लोग उससे बहुत परेशान थे। कुछ समय बाद हैदर के बेटे और पत्नी को भी प्लेग हो गया यह खबर सुनते ही अभियान दल का मुखिया हैदर की मदद में जुट गया। जबकि लोग उससे दूर भागने लगे।
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हैदर के मन में उस बालक के सेवाभाव को देखकर और स्वयं के किए गए बर्ताव को देखकर आत्मगिलानी का भाव उत्पन्न हो गया और उसका हृदय परिवर्तन हो गया। हैदर का हृदय परिवर्तन करने वाला वह असाधारण बालक और कोई नहीं बल्कि सुभाषचन्द्र बोस ही थे। जिनमें नेतृत्व में कमाल की शक्ति थी कि बडे़ से बडे़ सूरमा भी परास्त हो जाते थे। बडे़ होकर अंग्रेजों को नाकों चने चबवाने का काम सुभाषचन्द्र बोस ने बाखूबी किया। जीवन की जटिलताओं को सरल बनाने का साहस जैसा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस में दिखाई देता है ऐसा कम ही देखने को मिलता है। आज भी भारतीय युवाओं में सिविल सेवा की परीक्षा को पास करने के जज्बे पर नेताजी को देखा जा सकता है। आप ने वर्ष 1919 में भारतीय सिविल से “आई.सी.एस.” की परीक्षा उत्तीर्ण की और बाद में इस्तीफा देकर देश की आजादी के सपने को सच करने के मिशन में लग गए।
सुभाषचन्द्र बोस अपने आध्यात्मिक गुरू विवेकानन्द को एवं राजनीतिक गुरू चितरंजन दास को मानते थे। सन् 1921 में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने चितरंजन दास की स्वराज पार्टी द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र ‘फारवर्ड’ के सम्पादन का कार्यभार संभाला। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार बनाकर यह साबित कर दिया था कि देश अब गुलामी की जंजीरों से बाहर निकलने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के बाद अंग्रेज सरकार ने बिना किसी की सलाह लिए भारत
को युद्ध में शामिल कर दिया। सुभाष चंद्र बोस और फारवर्ड ब्लाक द्वारा विरोध करने पर 5 जुलाई, 1940 को सुभाष को पहले गिरफ्तार किया गया, फिर घर में ही नजरबंद कर दिया गया। नेताजी को राष्ट्रीयता का पाठ गुरु वेनी माधव दास ने पढ़ाया था।
वे प्रतिदिन गीता पढ़कर जीवन दर्शन की प्रखरता ग्रहण करते। रुद्राक्ष की माला धारण करते थे। विजयादशमी के दिन स्वामी भाष्वारानंद को अपने घर आमंत्रित किया था। सिंगापुर में सारे कार्य निपटाने के बाद गहन रात्रि में सुभाष रामकृष्ण मिशन जाते थे। यूनिफार्म छोड़कर पटवस्त्र धारण करते और घंटों ध्यान करते। आजाद हिंद फौज की स्थापना के समय ईश्वर को साक्षी मानकर शपथ ली कि भारत की 38 करोड़ जनता को स्वतंत्र कराने के लिए अपने खून की अंतिम बूंद भी लगा दूंगा। एक बार जापान के प्रधानमंत्री तोजो ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद भारत के राज्य प्रमुख सुभाष बाबू होंगे। नेताजी ने इसका प्रतिवाद किया और कहा कि स्वतंत्रता मिलने के बाद यह भारत की जनता को तय करना है। जो काम भारत में गांधी, नेहरू और मौलाना आजाद कर रहे हैं, दक्षिण-पूर्व एशिया में वह कर रहे हैं। सुभाष की कार्यशैली में एकाग्रता और उच्च पराकाष्ठा थी। वे कर्म के माध्यम से राष्ट्र एवं समाज को नई दिशा देना चाहते थे। उनके विरोधियों ने यहां तक कहा है कि यदि सुभाष जीत जाते तो भारत, इंग्लैंड की गुलामी से निकलकर जापान का गुलाम बन जाता। इसमें कोई सच्चाई नहीं है। उन्होंने कभी भी जापान से आर्थिक सहायता नहीं ली सिर्फ सामरिक मदद ली।
आजाद हिंद फौज कभी भी जापान के चंगुल में नहीं रही। उस समय जापान का विरोध इंग्लैंड से था और नेताजी भी इंग्लैंड से भारत को आजाद कराना चाहते थे, इसलिए दोनों साथ थे। 23 अगस्त, 1945 को टोक्यो रेडियो द्वारा विमान के ताइहोकू हवाई अड्डे पर ध्वस्त होने और नेताजी के वीरगति पाने का समाचार प्रसारित किया गया। मगर देश में किसी ने आज तक इस बात पर विश्वास नहीं किया। नेताजी के अलग-अलग नामों से भारत में ही कहीं अज्ञातवास के किस्से बहुत मशहूर हैं। सच कुछ भी हो, सुभाष अपने देश से असीम प्रेम करते थे। देश को स्वतंत्र कराने के लिए वह किसी से भी मदद लेने के लिए तैयार थे, सर्वोच्च बलिदान को तत्पर थे। यही सोच अन्य राजनेताओं से उन्हें अलग करता है, अमर करता है।
आजादी के लिए नेताजी का नजरिया बड़ा साफ था। उन्हें पता था कि यह थाली में परोसकर नहीं मिलेगी। इसकी देशवासियों को कीमत चुकानी पड़ेगी। इसी के चलते उन्होंने आजादी के आंदोलन से युवाओं को जोड़ा। ‘जय हिंद’,’तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’, ‘चलो दिल्ली’ जैसे नारे देकर उनका जोश बढ़ाया। आजाद हिन्द फौज में लगभग ढाई हजार सैनिक गढ़वाली थे।आज़ाद हिंद फौज और उत्तराखंड का बेहद उल्लेखनीय सम्बन्ध तो रहा ही है साथ ही यह भी जानने वाली बात है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सबसे विश्वसनीय सिपाही उत्तराखंड के ही थे। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को उत्तराखंड के सिपाहियों पर इतना भरोसा था कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा जिम्मेदारी भी उत्तराखंड के सिपाहियों को ही दी। आज़ाद हिंद फौज में गढ़वाल राइफल की दो बटालियनों ने इसका हिस्सा बनने का फैसला किया।
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गढ़वाल राइफल्स की 2/18 और 5/18 बटालियन के ढाई हज़ार से अधिक जवान आजाद हिन्द फ़ौज में शामिल हुए। यह संख्या आज़ाद हिन्द फ़ौज में समाहित किसी भी भारतीय रेजीमेंट में सबसे बड़ी संख्या थी। एक आंकड़े के अनुसार छः सौ से अधिक सैनिक युद्ध में शहीद हुए। सिंगापुर स्थित आजाद हिन्द फौज के प्रशिक्षण केंद्र की बागडोर उत्तराखंड निवासी लेफ्टिनेंट कर्नल चंद सिंह नेगी के पास थी। मेजर देब सिंह दानू आजाद हिंद फौज में पर्सनल गार्ड बटालियन के कमांडर रहे। सुभाष चंद्र बोस के पर्सनल एड्यूजेंट लेफ्टिनेंट कर्नल बुद्धि सिंह रावत थे और लेफ्टिनेंट कर्नल पितृशरण रतूड़ी को फर्स्ट बटालियन का कमांडर बनाया गया था।
लेफ्टिनेंट कर्नल रतूड़ी को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उनकी वीरता के लिए सरदार-ए-जंग की उपाधि से सम्मानित किया. इसके अलावा मेजर पद्म सिंह गुसांई आज़ाद हिंद फौज की थर्ड बटालियन के कमांडर थे।भारत के स्वतन्त्रता आंदोलन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज के गठन को एक महत्वपूर्ण मोड़ कहा जाता है। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का यह दृढ़ विश्वास था अन्य देशों की सशस्त्र सहायता बिना भारत भूमि से अंग्रेजी शासन नहीं हटाया जा सकता।उत्तराखंड के वीरों ने उनका भरपूर साथ दिया था।महान लेखक फिलिप मेसन ने लिखा है कि उत्तराखंड के जवानों ने आजाद हिंद फौज में अद्भुत बहादुरी का परिचय दिया। उन्होंने तो अपने संस्मरण में यहां तक जिक्र किया कि उत्तराखंडी जवानों में देश व स्वामी निष्ठा की ऐसी मिसाल कहीं और नहीं दिखती जितनी आजाद हिंद फौज में नजर आती है। तुम मुझे खून
दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन करने वालेसुभाष चंद्र बोस ने दिया था।
भारत की आजादी में उनका बहुत बड़ा रोल था। सुभाष चंद्र बोस को सबसे बहादुर देशभक्त कहा जाता है। लेकिन, आजादी 2 साल पहले 1945 में उनकी एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई थी। हालांकि, कई लोगों ने उनकी मौत की बात को नहीं माना था। कुछ लोग मानते थे कि सुभाष चंद्र बोस मरे नहीं जिंदा हैं। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी देश सेवा के नाम कर दी थी। उन पर कई किताबें लिखी गई हैं। साथ ही उन पर कई फिल्में और वेब सीरीज भी बन चुकी हैं। 2021 से पहले तक 23 जनवरी को सुभाष चंद्र बोस जयंती के नाम से मनाया जाता था। हालांकि, 2021 में प्रधानमंत्री ने इसे लेकर एक अहम फैसला लिया।
आजादी में नेताजी के योगदान के मद्देनजर पीएम मोदी ने इसे पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का ऐलान किया। इसके बाद से हर साल नेताजी की जयंती को पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। नेताजी भारत के शौर्य व पराक्रम के प्रतीक रहे हैं। आज जब 127वीं पावन जयंती पर उन्हें स्मरण कर रहे हैं तो आंतरिक व बाहरी सुरक्षा की रणनीति क्या होनी चाहिए, इन स्थितियों में अब हमारे सामने सक्षम भारत है। पूरी दुनिया नए भारत को देख रही है।मुख्यमंत्री ने प्रदेश के युवाओं का आह्वान करते हुए कहा कि मातृभूमि के लिए जो भी कर पाएंगे, वह कम होगा। आज की सबसे बड़ी आश्वयकता है कि हर व्यक्ति कर्तव्यों का ईमानदारी पूर्वक निर्वहन करे। यही नेताजी के प्रति सच्ची श्रद्धा व सम्मान होगा।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )