सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) का फैसला : बेतुकी बयानबाजी पर रोक लगाने से किया इनकार, कोर्ट ने कहा- मंत्रियों के बयान पर सरकार दोषी नहीं
मुख्यधारा डेस्क
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र सरकार की नोटबंदी को लेकर फैसला सुनाया था। इस फैसले में कोर्ट ने नोटबंदी को सही ठहराया था। आज एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने मंत्रियों की फिजूल बयानबाजी पर रोक लगाने को लेकर फैसला सुनाया। कोर्ट ने मंत्रियों के बेतुका बयान पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि बोलने की आजादी पर रोक नहीं लगा सकते हैं। आपराधिक मुकदमों पर मंत्रियों और बड़े पद पर बैठे लोगों की बेतुकी बयानबाजी पर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला दिया है। कोर्ट की संविधान बेंच ने कहा कि मंत्री का बयान सरकार का बयान नहीं कहा जा सकता।
उन्होंने कहा कि बोलने की आजादी हर किसी नागरिक को हासिल है। उस पर संविधान के परे जाकर रोक नहीं लगाई जा सकती। बेंच ने कहा कि अगर मंत्री के बयान से केस पर असर पड़ा हो तो कानून का सहारा लिया जा सकता है। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की बेंच ने कहा कि इसके लिए पहले ही संविधान के आर्टिकल 19(2) में जरूरी प्रावधान मौजूद हैं। पांच जजों की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि राज्य या केंद्र सरकार के मंत्रियों, सासंदों/ विधायकों व उच्च पद पर बैठे व्यक्तियों की अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई अतिरिक्त पाबंदी की जरूरत नहीं है।
कोर्ट ने कहा कि मंत्रियों के बयानों को सरकार का बयान नहीं कह सकते हैं। जस्टिस एस अब्दुल नजीर, एएस बोपन्ना, बीआर गवई, वी रामासुब्रमण्यन और बीवी नागरत्ना की संविधान पीठ ने कहा कि सरकार या उसके मामलों से संबंधित किसी मंत्री द्वारा दिए गए बयानों को अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।
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बता दें कि दरअसल, नेताओं के लिए बयानबाजी की सीमा तय करने का मामला 2016 में बुलंदशहर गैंग रेप केस में उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे आजम खान की बयानबाजी से शुरू हुआ था। आजम ने जुलाई, 2016 के बुलंदशहर गैंग रेप को राजनीतिक साजिश कह दिया था। इसके बाद ही यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 15 नवंबर को इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रखा था। इस दौरान अदालत ने कहा था कि सार्वजनिक पदों पर बैठे लोगों को ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए, जो देशवासियों के लिए अपमानजनक हों। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा था कि यह व्यवहार हमारी संवैधानिक संस्कृति का हिस्सा है और इसके लिए सार्वजनिक पद पर बैठे लोगों के लिहाज से आचार संहिता बनाना जरूरी नहीं है।