खनन (Mining) के 'कलंक' की कहानी अब भी अधूरी - Mukhyadhara

खनन (Mining) के ‘कलंक’ की कहानी अब भी अधूरी

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खनन (Mining) के ‘कलंक’ की कहानी अब भी अधूरी

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड की आय के प्रमुख स्रोतों में से एक खनन की रॉयल्टी पर है। इससे पूर्व शासन के निर्देश पर वन विकास निगम और खनन विभाग ने इसका प्रस्ताव तैयार किया था। दोनों विभागों की रॉयल्टी दरें अलग-अलग थीं। खनन कारोबारियों और आम लोगों की ओर से इन दरों में एकरूपता लाने की मांग लंबे समय से की जा रही थी। प्रदेश में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के क्रम में आरक्षित वन क्षेत्रों में उपखनिज का चुगान (खनन) वन विभाग की ओर से वन विकास निगम को सौंपा गया है।इसके अलावा राजस्व क्षेत्र की नदियों में खनन विभाग की देखरेख में खनन होता है।वहीं, शासन-प्रशासन की अनुमति के बाद निजी पट्टों पर भी खनन किया जाता है।

खास बात यह कि तीनों तरह के खनन में रॉयल्टी की दरें भिन्न-भिन्न थीं। रायॅल्टी की दरें एक समान लागू होने से जहां अवैध खनन के मामलों में कमी आएगी। वहीं निर्माण सामग्री सस्ती होने से लोगों को घर इत्यादि बनाने में राहत मिलेगी। संशोधित नियमावली में अवैध खनन पर लगाए जाने वाले जुर्माने की राशि को घटा दिया गया है, जबकि मैदानी जिलों में नदी तल के खनन पट्टों के आवेदन व नवीनीकरण शुल्क को एक लाख से बढ़ाकर दो लाख कर दिया गया है। सचिव औद्योगिक विकास ने बताया कि अभी तक अवैध खनन पर पांच गुना जुर्माने का प्रावधान था लेकिन यह आसानी से अदा नहीं हो रहा था। ऐसे प्रकरण न्यायालय में जाकर लम्बे खींच रहे थे।

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कैबिनेट नेखनन नियमावली में संशोधन की मंजूरी पहले ही दे दी थी। संशोधनों के तहत खनन पट्टों की जांच, आकलन व सीमांकन करने के लिए अब एसडीएम की गैरहाजिरी में तहसीलदार या उपतहसीलदार भी अधिकृत होंगे। इसके लिए उन्हें खनन निदेशालय से एक सप्ताह का प्रशिक्षण दिया जाएगा। चुगान (खनन) यह कहानी इतनी लंबी है कि इस पर कोई एक फिल्म नहीं बल्कि वेब सीरीज बन सकती है। राज्य बनने के कुछ समय बाद ही भ्रष्टाचार का दाग लग चुका था। लेकिन पता लगने में सालों लग गए। मगर खनन के कलंक की कहानी अब भी आधी ही है। क्या कभी पता चलेगा कि बुग्गी का पैसा जमा कर ट्रकों से गौला को खाली करने वाले लोग कौन थे। माफिया थे या छुटमुट खनन तस्कर। गेटों पर वन निगम के अलावा वन विभाग के कर्मचारी भी होते हैं। इस घपले को लेकर सभी अंजान कैसे बने रहे।

गौला में उपखनिज निकासी को लेकर निगरानी का सिस्टम अब मजबूत हो चुका है लेकिन 2001 से 2003 के बीच ऐसी स्थिति नहीं थी। खनन में वर्चस्व का दौर था। खनन माफिया के कई गुट थे। ऐसे में जमकर विवाद होते थे।ज्यादातर काम मैनुअल तरीके से किया जाता था। तौलकांटों को लगे भी कुछ ही समय हुआ था। वहीं, रुड़की स्थित सरकारी प्रिंटिंग केंद्र से निकासी से जुड़े दस्तावेज तैयार होते हैं, जिन्हें हल्द्वानी में भरा जाता है। खेल की शुरुआत यहीं से हुई। नकल कर हुबहू असली दिखने वाले कागज तैयार किए। फिर बुग्गी से निकासी की रायल्टी जमा कर ट्रकों से उपखनिज बाहर निकाला जाने लगा। यही कागज विजिलेंस के हाथ भी लगे। मगर एक सवाल अब भी कायम है कि निगम के अलावा वन विभाग के कर्मचारी भी गेटों पर रहते थे। वनकर्मी ट्रांजिंट शुल्क और रोड टैक्स वसूलता था। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि उसे घोटाले की भनक क्यों नहीं लगी।

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सूत्रों की मानें तो इस घोटाले से हुए असल राजस्व नुकसान का पता आज तक नहीं लगा। जांच का दायरा वन विभाग की तरफ भी बढ़ा था। लेकिन कुछ खास हासिल नहीं हुआ। वन निगम से जुड़े कुल 35 लोग अब तक इस मामले में गिरफ्तार किए जा चुके हैं।आठ एक बार में पकड़े गए थे। 25 ने सरेंडर किया था। एक अधिकारी को हाल में पकड़ा गया, जबकि अब लखनऊ से सेवानिवृत्त आइएफएस को गिरफ्तार किया गया है। अप्रैल 2003 में वन निगम के ही एक कर्मचारी ने ही शिकायत की थी। उस दौर से जुड़े कुछ और लोग भी राडार पर है। खनन घोटाले में पकड़ा गया एक अधिकारी इस बड़े अधिकारी का करीबी था। पर्दे के पीछे से इस बड़े अधिकारी की ओर से की गई पैरवी लंबे समय तक तो काम ही आई। उत्तराखंड में अवैध खनन का जाल ऐसा फैला है कि अब कई सवाल खड़ें होने लगे हैं।

मार्च 2023 में आई कैग रिपोर्ट ने सभी का ध्यान उत्तराखंड की ओर आकर्षित किया था। इस रिपोर्ट में कैग ने वर्ष 2017-18 से वर्ष2020-21 के बीच 37 लाख टन अवैध खनन की बात कहकर सभी को चौंका दिया था। उत्तराखंड में अवैध खनन के मामले अब कई सवाल खड़े कर दिए हैं। मार्च 2023 में जारी की गई कैग की रिपोर्ट को शायद अभी अधिकारी भुला नहीं पाए होंगे। जिसमें कैग ने वर्ष 2017-18 से वर्ष 2020-21 के बीच 37 लाख टन अवैध खनन की बात कहकर सभी को चौंका दिया था। रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि इस अवधि में किए गए अवैध खनन से सरकार को 45 करोड़ रुपये का चूना विशुद्ध राजस्व के रूप में लगा है। इस बात को माह बीत चुके हैं, लेकिन हालात अब भी अधिक बदले नजर नहीं आ रहे। क्योंकि, देहरादून के खनिज विभाग के अभिलेखों में सिर्फ 40 के करीब ही उप खनिज के भंडारण केंद्र वैध हैं। इनमें से अधिकतर विकासनगर क्षेत्र में ही विद्यमान हैं। अधिवक्ता ने जिले खनिज के भंडारण केंद्रों की सूचना कलेक्ट्रेट/खनिज कार्यालय से मांगी थी। उन्होंने आवेदन के साथ शहर के विभिन्न 12 मार्गों पर स्थित उप खनिज भंडारण केंद्रों की सूची भी दर्ज की थी। ताकि इनके पंजीकरण की स्थिति पता चल सके।

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आरटीआइ आवेदन के जवाब में खनिज कार्यालय ने 40 भंडारण केंद्रों की सूची दी, जिसमें 12 मार्गों पर स्थित खनिज भंडारण केंद्रों का नाम नहीं था।स्पष्ट है कि इन जैसे तमाम भंडारण केंद्र अवैध रूप से संचालित किए जा रहे हैं। ये कहां से उप खनिज लेकर आ रहे हैं और किन्हें आगे बेच रहे हैं, कुछ पता नहीं। ऐसे में सरकार को बड़े पैमाने पर राजस्व की चपत लग रही है। केंद्र शहर में बड़ी संख्या में अवैध भंडारण केंद्र संचालित होने के चलते यह उप खनिज की आपूर्ति सरकारी निर्माण एजेंसियों को भी कर रहे हैं। इस स्थिति में सरकारी निर्माण एजेंसियां बिना पास के ही उप खनिज के प्रयोग की अनुमति ठेकेदारों को देती हैं। लिहाजा, ऐसे प्रकरणों में रायल्टी भी जमा नहीं कराई जाती है।

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कैग ने भी इस तरह के प्रकरण पकड़ते हुए बताया था कि सरकारी निर्माण एजेंसियों ने 37.17 लाख मीट्रिक टन सामग्री के उपयोग कीअनुमति बिना पास के दी। जिससे 104.08 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। जिला खनिज कार्यालय ने भले ही 40 के करीब खनिज भंडारण केंद्रों की सूची उपलब्ध कराई हो, लेकिन यह आंकड़ा कहीं अधिक है। क्योंकि, जीएसटी में 219 ऐसे विक्रेता पंजीकृत हैं, जो बालू, ग्रिट, पत्थर, बजरी आदि सामग्री की आपूर्ति करते हैं सरकारी लापरवाही की कीमत ये बेज़ुबान चुका रहे हैं।

( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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