हिमालय के ज्वलंत सवाल : हिमालय में भोगवादी विकास के नाम पर बड़ी मात्रा में हो रही छेड़छाड़ - Mukhyadhara

हिमालय के ज्वलंत सवाल : हिमालय में भोगवादी विकास के नाम पर बड़ी मात्रा में हो रही छेड़छाड़

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सुरेश भाई
हिमालय मजबूत सैनिक के रूप में सीमाओं की रक्षा करता है। यह जम्मू कश्मीर, लदा्ख, हिमांचल, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल, नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, असम मिलाकर 12 हिमालयी राज्यों में बंटा है। पश्चिम बंगाल का पर्वतीय भाग दार्जिलिंग भी इसमें शामिल है। यह 75 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में 3 हजार किमी लम्बा और नीचे घाटी से 8 हजार मीटर की उंचाई में पश्चिम में उत्तरी पाकिस्तान से लेकर नेपाल, भूटान होते हुए देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस भू-भाग से निकलने वाली नदियां व इनके साथ बहकर जाने वाली मिट्टी भी भारत के अलावा दक्षिण एशिया के कई देशों के लिये खाद्य सुरक्षा हेतु स्थाई प्रबंधन व जलवायु नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
भारतीय हिमालय क्षेत्र में लगभग 9 करोड़ लोग निवास करते हैं, जिनके पास अपने जीने के लिये गांव, प्राकृतिक संसाधन और छोटी जोतों वाली कृषि भूमि है। उनके पास अपने जंगल और खेती की रक्षा के लिये पारम्परिक व्यवस्था और पर्याप्त ज्ञान मौजूद है। हिमालय सीमाओं की रक्षा के साथ आध्यात्मिक प्रेरणा का भी केन्द्र रहा है। कई ऋषि-मुनि और तपस्वी राजाओं ने हिमालय की गुफाओं में रहकर पुण्य कमाया है। कवियों, लेखकों की कलम आये दिन हिमालय पर लिखते-लिखते थकती नहीं है। पर्यटक व श्रद्धालुओं के लिये दूसरा कोई ऐसा स्थान नहीं है, जहां उन्हें हिमालय जैसी स्वर्ग की अनुभूति का एहसास होता हो।
लेकिन अब स्थिति उलट हो रही है। हिमालय में भोगवादी विकास के नाम पर बड़ी मात्रा में छेड़छाड़ हो रही है। विकास की यह एक ऐसी रेखा खींची जा रही है, कि जहां मैदान और पहाड़ में कोई अन्तर नहीं आ रहा है। हिमालय को सबसे अधिक नुकसान मौजूदा भोगौलिक संरचना की संवेदनशीलता को नजरअंदाज करके बनायी जा रही चौड़ी सड़कें, पंचतारा संस्कृति, वनों का विनाश बड़ी संख्या में बांधों का निर्माण, बेपानी और बेजमीन हो रहे यहां के छोटे और सीमांत किसान, महिलाओं का कष्टमय जीवन, घटिया स्वास्थ, शिक्षा और बढता पलायन आदि कई ज्वलंत प्रश्न है। इस समय गंगा को बचाने के लिये जो भी जतन हो रहा है, वह भी हिमालय को समझे बिना अधूरा है।
हिमालय का जंगल और पानी खरीदने के लिये विकासकर्ताओं की गिद्ध दृष्टि बनी हुई है। समाज की बुनियादी जरूरतें जैसे रोजगार आदि भी इन्हीं के बल पर छोड़ दिया जा रहा है। उदाहरण है कि हिमालय में बांध बनाने के लिये जब किसी कम्पनी को ठेका मिलता है तो उसी के इर्द गिर्द रोजगार की फाइलें घूमने लगती है। नौजवान नतमस्तक होकर थोड़े पैसों के लिये लालयित हो जाते हैं, इस समय यह स्थिति पंचेश्वर, लखवाड आदि दर्जनों बांधों की स्वीकृति के बाद प्रभावित क्षेत्र में देखी जा सकती है।
हिमालय के इन सवालों की तरफ सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिये 9 सितम्बर को सन् 2011 से हिमालय दिवस मनाया जा रहा है जिसमें मशहूर पर्यावरणविद् सुन्दर लाल बहुगुणा, विजय जडधारी, राधा बहन, डा. अनिल जोशी, लेखक समेत एक दर्जन लोगों के हस्ताक्षर के साथ 100 से अधिक कार्यकर्ताओं की स्वीकृति है। इसका उद्देश्य है कि देश के लोगों के द्वारा एक समग्र हिमालय की नीति बनाने के लिये दबाव बनाया जाय।
अतः योजनाकारों को हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण की सच्चाई को समझना चाहिये। प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन के चलते वैश्विक जलवायु परिवर्तन का प्रभाव तीव्रता से बढ रहा है। बाढ, भूकम्प, सूखा, वनाग्नि, जैसी घटनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति हो रही है। यह स्थिति हिमालय से लेकर निचले क्षेत्र में निवास कर रहे लोगों के जीवन को भी प्रभावित कर रहा है।
वर्षात के समय हिमालय में बने हुये बांधों से बाढ का पानी बार-बार छोड़ने से नदी के किनारे का समाज बेचैन रहता है। असम, हिमांचल, जम्मू कश्मीर, उत्तराखण्ड इसके उदाहरण बन रहे हैं जहां बाढ से लाखों लोग प्रभावित हो रहे हैं। हिमालय से ही नदियों में गाद भरने लगा है। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि यहां के पर्वतों का गुरुत्वाकर्षक केन्द्र तेजी से खिसक रहा है। जिसपर भूकम्प के प्रभाव के कारण भूस्खलन की समस्या कम नहीं हो सकती है। ऐसे में बड़े निर्माण कार्य वर्षात में विनाशकारी साबित हो रहे हैं। हिमालय की बर्बादी रोकने के लिये अलग हिमालय विकास के मॉडल पर विचार करना होगा।
                (लेखक उत्तराखंड के प्रख्यात पर्यावरणविद हैं।)
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