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ज्वलंत सवाल: उत्तराखंड में आवारा मवेशियों (stray cattle) से होते जानमाल के नुकसान की कौन लेगा जिम्मेदारी?

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ज्वलंत सवाल: उत्तराखंड में आवारा मवेशियों (stray cattle) से होते जानमाल के नुकसान की कौन लेगा जिम्मेदारी?

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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

अक्सर आपको कहीं ना कहीं निराश्रित या फिर पालतू गाय घूमते हुए नजर आती है। जिनकी वजह से सड़क में कई बार जाम की समस्या या फिर लोगों इनकी वजह से घायल हो जाते हैं। जिससे स्थानीय जनता काफी परेशान हो रही है इसके लिए उत्तराखंड सरकार के द्वारा हर जिले में गौ सदन की स्थापना करने के लिए निर्देश है।

सड़कों पर “यमराज” बनकर घूम रहे आवारा पशु, आम जनता परेशानमें लोग आवारा पशुओं के आतंक से परेशान हैं। आवारा पशु शहर में सड़क हादसे का कारण बन रहे हैं। इसके बाद भी जिम्मेदार अधिकारी ठोस कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। जिससे लोगों में रोष बढ़ता जा रहा है फरवरी, अप्रैल और जुलाई में तीन लोगों की सांडों के हमले में मौत हुई थी। न जाने कितने लोग इनकी वजह से चोट खा चुके हैं। लेकिन सरकारी विभागों के पास मृतकों और घायलों का कोई आंकड़ा नहीं है। गौर करने वाली बात यह है कि वन्यजीवों के हमले में घायल और मृतकों का पूरा रिकार्ड रखने के साथ वन विभाग मुआवजा भी देता है। लेकिन शहरी क्षेत्र में नई समस्या बन चुके छुट्टा पशु अगर किसी के जीवन को खतरा पहुंचाएं तो उपचार कराने के पैसे भी जेब से भरने पड़ते हैं।

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अवारा पशुओं खासकर सांडों का आतंक लगातार बढ़ रहा है। पार्षदों से लेकर स्थानीय लोग समस्या के समाधान के लिए ज्ञापन देने के साथ धरना-प्रदर्शन भी कर चुके हैं। लेकिन कुर्सी से चिपके अधिकारी समाधान खोजने में फिलहाल असमर्थ नजर आ रहे हैं। समस्या से निजात दिलाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी नगर निगम के पास है। लेकिन उसके पास न सांड पकड़ने के संसाधन हैं और न ही विशेषज्ञ। घायलों के आंकड़े तो दूर की बात है। स्थायी समाधान के लिए सरकारी तंत्र को धरातल पर उतरना पड़ेगा। तभी गोशाला के लिए जमीन मिलेगी औरशहर  इस समस्या से बाहर आ सकेगा। बैठकें सिर्फ औपचारिकता पूरी कर सकती है। इनसे समाधान नहीं निकलता। वन्यजीवों के हमले में किसी व्यक्ति की मौत होने पर सरकार ने छह लाख रुपये मुआवजे की घोषणा की है। इसके अलावा घायल होने पर स्थिति के हिसाब से आर्थिक मदद मिलती है।

रेंजर ने बताया कि घायल को अधिकतम 50 हजार मिलते हैं। गोवंशीय पशुओं के लिए भी सड़क पर खतरा है। कई बार बड़े वाहन इन्हें टक्कर मार देते हैं। बेसहारा होने की वजह कोई देखभाल भी नहीं करता। सरकारी सिस्टम से ज्यादा कुछ गोसेवक इनके उपचार और खाने की व्यवस्था करने में जुटते हैं। केरल, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड को छोड़कर सभी राज्यों में मवेशियों के वध से संबंधित कानून बनाए गए हैं। केंद्रशासित प्रदेशों में लक्षद्वीप में कोई कानून नहीं है। ये कानून वध किए जा सकने वाले मवेशियों की उम्र और प्रकार, प्रमाण पत्र की आवश्यकता और प्रासंगिक दंड प्रावधानों के संदर्भ में राज्यों में भिन्न-भिन्न हैं।

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उदाहरण के लिए, राजस्थान राज्यसभी गोवंश के वध और निर्यात पर प्रतिबंध लगाता है जिसमें गाय, बछड़ा, बछिया, बैल या सांड शामिल हैं। 1 से 2 वर्ष तक का कठोर कारावास और 1000 रुपये तक का जुर्माना। कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर10,000 का दंड निर्धारित किया गया है। इस बीच, ओडिशा राज्य बछिया और बछड़ों सहित गायों के वध पर प्रतिबंध लगाता है। यदि मवेशी 14 वर्ष से अधिक उम्र के हैं या प्रजनन या सूखे के लिए स्थायी रूप से अयोग्य हो गए हैं, तो वध के लिए उपयुक्त प्रमाण पत्र की भी आवश्यकता होती है। सज़ा अधिकतम 2 साल तक की कैद या 1,000 रुपये तक का जुर्माना या दोनों है।  ऐसा माना जाता है कि कुछ राज्यों में मवेशियों के वध पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून के परिणामस्वरूप किसान अपने मवेशियों को कुछ स्थानों पर छोड़ देते हैं, जब जानवर दूध देने की क्षमता खो देता है और उपयोगी होना बंद हो जाता है। आश्रय के अभाव में ऐसे आवारा मवेशी ग्रामीण क्षेत्रों में फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं और शहरी क्षेत्रों में यातायात में बाधा उत्पन्न करते हैं।

जनगणना रिपोर्ट में राज्यों में आवारा मवेशियों की संख्या का डेटा उपलब्ध कराया गया है। आवारा मवेशियों का मुद्दा और क्या पिछले कुछ
वर्षों में कानून और अन्य कारणों से उनकी संख्या में वृद्धि हुई है, संसद में कई बार उठाया गया है। पशुधन से संबंधित डेटा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह इस क्षेत्र के लिए योजना बनाने और कार्यक्रम तैयार करने में मदद करता है। यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अभी भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। भारत में पशुधन जनगणना मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय द्वारा आयोजित की जाती है और यह इस क्षेत्र से संबंधित डेटा का मुख्य स्रोत है। जनगणना जिसमें अनिवार्य रूप से पशुधन और मुर्गीपालन जैसे पालतू जानवरों को शामिल किया गया है, पहली बार 1919में आयोजित की गई थी और तब से इसे पंचवार्षिक आधार पर आयोजित किया जाता है।

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जनगणना के निष्कर्ष कृषकों, व्यापारियों, उद्यमियों और डेयरी उद्योग जैसे कई हितधारकों के लिए प्राथमिक आधार बन जाते हैं। सरकार का यह कदम सराहनीय है, लेकिन अगर धरातल पर काम हो तो ही इसको सही माना जा सकता है।वहीं, गौरक्षा के लिए काम करने वाले समाज- सेवी ने पशुपालकों से अपील की है कि वो सर्दी के मौसम में बीमार पशुओं को बाहर न निकालें। यह ठंड इंसानों के लिए झेलना मुश्किल हो जाता है, तो पशुओं के लिए तो और भी मुश्किल है। पशुप्रेमी शैली यादव का कहना है कि नगर निगम के द्वारा उठाया गया यह कदम पशु प्रेमियों के लिए खुशी की बात है। क्योंकि हर पशुप्रेमी चाहता है कि इंसानों की तरह पशुओं की भी सुरक्षा हो।ये लेखक के अपने विचार हैं।

( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )

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