केंद्रीय विद्यालय (Central School) क्यों नहीं खुले सरकार, चार साल पहले की गई थी पहल
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
केंद्र सरकार ने चार साल पहले उत्तराखंड के हर ब्लॉक में केंद्रीय विद्यालय खोलने की पहल की, जिसे ऑलवेदर रोड प्रोजेक्ट के बाद राज्य के लिए पीएम मोदी की दूसरी सबसे बड़ी सौगात माना गया, इसके लिए राज्य सरकार भी तय मानक के अनुसार मुफ्त भूमि उपलब्ध कराने के लिए तैयार थी। राज्य ने इसके लिए केंद्र सरकार को पत्र लिखा गया था। पत्र में कहा गया था कि इससे बच्चों को अपने ही क्षेत्र में बेहतर शिक्षा मिलेगी और पलायन रुकेगा।सवाल यह है कि इसके लिए जब सब तैयार थे,तो सरकार बताए कि केंद्रीय विद्यालय क्यों नहीं खुले, इन विद्यालयों को खुलने में कमी कहां रह गई।राज्य में हर साल हजारों बच्चे केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ने का सपना देखते हैं, लेकिन सफल कुछ ही होते हैं। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने उत्तराखंड के हर ब्लॉक में केंद्रीय विद्यालय खोलने की पहल की थी।
केंद्रीय विद्यालय संगठन नई दिल्ली ने राज्य सरकार को तय मानक के अनुसार भूमि उपलब्ध कराने को कहा था। केंद्रीय विद्यालय संगठन की ओर से कहा गया कि विद्यालय ढ़ाई से पांच एकड़ परिसर में बनेगा।सरकार को एक रुपये की दर से 99 साल के पट्टे पर या मुफ्त भूमि उपलब्ध करानी होगी। इसके अलावा केंद्रीय विद्यालय का स्थायी भवन बनने तक सरकार को मुफ्त में 15 कमरों की व्यवस्था करनी होगी, ताकि विद्यालय का अपना भवन बनने तक इसे अस्थायी भवन में शुरू किया जा सके केंद्रीय विद्यालय संगठन के पत्र के बाद शासन ने इस संबंध में सभी जिलों से प्रस्ताव मांगा, लेकिन केंद्रीय विद्यालय नहीं खुल पाए।
जनता की मांग है कि केंद्रीय विद्यालय खुलने चाहिए, जहां जाता हूं, लोग इस बारे में पूछते हैं। हमने केंद्र सरकार को विद्यालय के लिए भूमि उपलब्ध कराने के लिए पत्र लिखा था। केंद्र का भी हमें पत्र आया था, इसे लेकर केंद्र के जो मानक हैं उसमें शिथिलता दी जाए तो विद्यालय खुल सकते हैं। राज्य और केंद्र सरकार को मिलकर केंद्रीय विद्यालय पर काम करना था, स्कूल के कुछ मानक होते हैं,राज्य को ही स्थापना सुविधाएं खड़ी करनी होती हैं, इसमें कई बार व्यावहारिक दिक्कत आती है। इन्हें शुरू करने में कहीं कोई दिक्कत रहीं होगी। अभी इस बारे में कुछ कहना उचित नहीं होगा। पूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री उत्तराखंड केंद्रीय विद्यालयों के लिए हमने कई प्रस्ताव भेजे हैं, इसमें कुछ मंजूर भी हुए हैं।
इसके लिए मानक यह है कि उस क्षेत्र में केंद्रीय कर्मचारी होने चाहिए।
केंद्रीय विद्यालय संगठन ने केंद्र सरकार के निर्देश पर प्रवेश संबंधी कुछ कोटे खत्म कर दिए हैं, जिनमें सांसद, मंत्री, चेयरमैन, डीएम के साथ ग्रैैंड चिल्ड्रेन कोटा भी शामिल हैं। इस निर्णय के साथ ही केंद्रीय विद्यालयों में इस साल करीब 40 हजार ऐसे बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पगा, जो
केंद्रीय या रक्षा सेवा संवर्ग और शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) के दायरे में नहीं आते हैं। कोटा सिस्टम खत्म करने के अपने-अपने पक्ष हैं, जो सही भी हैं, लेकिन बुनियादी सवाल यह भी है कि वे 40 हजार बच्चे कौन थे, जिन्हें इस कोटे से देश भर के केंद्रीय विद्यालयों में दाखिला मिलता था? क्या यह निर्णय वास्तविक अर्थों में संगठन की प्रवेश प्रक्रिया को समावेशी बनाने वाला है? बेशक तकनीकी रूप से यही लगता है, लेकिन केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से शिक्षा दिलाने का सपना देखते है। बेहतर होगा कि केंद्र सरकार आजादी के अमृत महोत्सव पर इस सच्चाई को स्वीकार करे कि देश में सीबीएसई और केंद्रीय विद्यालय एक अति विशिष्ट शिक्षा तंत्र के रूप में खड़े हो गए हैं।
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आखिर क्यों स्वाधीनता के 75 साल बाद भी देश अपने नागरिकों को समुन्नत और जनाकांक्षाओं के अनुरूप समावेशी शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध नहीं करा पा रहा है? क्या कारण है कि सात सौ से अधिक जिलों वाले इस देश में केवल 1,047 केंद्रीय विद्यालय हैं? क्या अमृत महोत्सव में सरकार यह संकल्प नहीं ले सकती कि हर बड़े राज्य में 75नए केंद्रीय विद्यालय खोले जाएं? यह स्पष्ट है कि राज्य बोर्डों के मामले में 80 % बोर्ड फिसड्डी हैं। देश का आम आदमी मजबूरी में अपने बच्चों को राज्यों के स्कूलों में पढ़ाता है। वैसे इस बात को नीति नियोजक बखूबी समझते हैं। इसके बावजूद वे केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल, मिलिट्री स्कूल जैसे नवाचारों पर चुप रहते हैं।
सरकारें चाहें तो देश के प्रत्येक विकास खंड या तहसील इकाई पर भी केंद्रीय विद्यालय खोले जा सकते हैं। साथ ही डिफेंस, पैरा मेडिकल, विदेश मंत्रालय आदि के लिए एक अलग विंग स्थापित की जा सकती है। इन स्कूलों में प्रवेश के लिए आयकरदाता और आरटीई के प्रविधान अमल में लाए जा सकते हैं। केंद्र सरकार चाहे तो राज्य सरकारों के तुलनात्मक रूप से बेहतर स्कूलों को केंद्रीय विद्यालय के रूप में भी अधिग्रहित कर सकती है। शिक्षा मंत्री को यह सच्चाई स्वीकार करनी होगी कि मौजूदा सीबीएसई पैटर्न आधारित शिक्षा देश के आम आदमी के लिए महंगी और दुरूह सपने जैसी ही है। हर आदमी अपने बच्चे को इसी पैटर्न में पढ़ाना चाहता है। इसके लिए वह हर स्तर पर त्याग करने को तैयार रहता है।
सवाल यह है कि राज्यों की शैक्षणिक नाकामी के लिए क्या 75 साल के अनुभव अभी भी कम हैं? केंद्र सरकार का यह दायित्व है कि अमृत महोत्सव के अवसर पर भारत को एक राष्ट्र-एक शिक्षा व्यवस्था के संकल्प की ओर उन्मुख करे। यह जो भेदभावपूर्ण शैक्षिक ढांचा है, उसे खत्म किया जाना चाहिए। अभी 11 लाख बच्चे केंद्रीय विद्यालयों में अध्ययनरत हैं। सरकार चाहे तो यह आंकड़ा प्रति वर्ष दो करोड़ भी हो सकता है। सवाल इच्छाशक्ति का है। उस हीनभाव को महसूस करने का है, जो करोड़ों बच्चे अपने घर, गली, स्कूल में सीबीएसई और राज्य बोर्ड के भेदभाव के चलते झेलते रहते हैं।
( लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )