उत्तराखंड में 13 ग्लेशियर झीलें बेहद संवेदनशील, निगरानी में है सिर्फ 6 ग्लेशियर
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
जलवायु परिवर्तन के कारण जहाँ एक ओर आज उच्च हिमालयी क्षेत्र में वर्तमान में पूर्व में बर्फवारी के स्थान पर वर्षा होने लगी है, वही दूसरी ओर बढ़ रहे तापमान के कारण हिमनद के गलने की दर में वृद्धि होने के साथ ही हिमनद तेजी से पीछे होते जा रहे हैं। ग्लेशियरों द्वारा खाली किये गये स्थानों पर हिमनदों द्वारा लाये गये मलबे के बांध या मोरेन के कारण बने कुछ जलाशयों का आकार वर्षा व हिमनदों के गलने के कारण तेजी से बढ़ रहा है। एक सीमा के बाद बढ़ रहे पानी का दबाव मलवे के बांध को तोड़ कर नीचे बसे इलाकों में बाढ़ का कारण बन सकता है। वर्ष 2013 में केदारनाथ में घटित घटना इसी का एक उदाहरण है। हालांकि वर्ष 2021 में धोलीगंगा वाली बाढ़ ग्लेशियर झील के कारण नहीं आई किन्तु, वह घटना भी उच्च हिमालयी क्षेत्र में आये हिम-स्खलन के कारण घटित हुयी थी।
अभी हाल में 04 अक्टूबर,2023 को सिक्किम राज्य के साऊथ लोहनक झील के टूटने से तिस्ता नदीं में काफी नुकसान हुआ था।इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने तथा घटित होने की स्थिति में प्रभावित हो सकने वाले जन समुदाय को समय से चेतावनी जारी किये जाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण, भारत सरकार द्वारा एक समिति (सी.ओ. डी.आर.आर.) का गठन किया गया है, जिसके द्वारा उत्तराखण्ड राज्य में जोखिम सम्भावित 13 ग्लेशियर झीलों को चिह्नित किया गया है।
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सचिव, आपदा प्रबन्धन एवं पुनर्वास विभाग यू०एस०डी०एम०ए० द्वारा इसके सम्बन्ध में सम्बन्धित संस्थानों के साथ समीक्षा हेतु एक महत्वपूर्ण बैठक ली गयी।आईआईआरएस द्वारा बताया गया कि उनके द्वारा भागीरथी, मन्दाकिनी, अलकनन्दा नदियों के निकट ग्लेशियर झीलों की निगरानी की जा रही है, जिसमें पाया गया कि केदारताल, मिलना व गोरीगंगा ग्लेशियर का क्षेत्र निस्तर निस्तृत होता जा रहा है, जो कि आने वाले समय में आपदा के जोखिम के प्रति संवेदनशील है। ग्लेशियर झीलों के अध्ययन में कार्यरत संस्था द्वारा बताया गया कि उनके द्वारा सिक्किम राज्य के 03 प्रभावित ग्लेशियर झीलों का अध्ययन करने के लिये स्वयं निर्मित अर्ली वार्निंग सिस्टम लगाया गया तथा झीलों की गहराई नापने हेतु धिमेट्री तर्न किया नया जिससे प्राप्त आंकड़ों की सहायता से झीलों में हो रहे परिवर्तन पर निरंतर निगरानी रखी जा रही है।
सचिव आपदा प्रबन्धन द्वारा निर्णय लिए नया कि ग्लेशियरों की निगरानी हेतु एक मल्टी डिसीपिसिनरी टीम गठित की जाये,जिसमें यूएसडीएमए के द्वारा नोडल विभाग के रूप में कार्य किया जायेगा जो अध्ययन करेंगी एवं तत्पश्चात रिपोर्ट भारत सरकार को भी भेजी जायेगी एवं मार्ग दर्शन प्राप्त करते हुवे ग्लेशियर लेज से उत्पन्न होने वाली आपदाओं का प्रभावी नियंत्रण के लिए कार्य किया जायेगा। ग्लेशियर झीलें तेजी से बन और टूट रही हैं। यदि ग्लेशियरों से होने वाले हिमस्खलन व ग्लेशियर में झील बनने की प्रक्रिया की निरंतर निगरानी की जाए तो पहले ही यह पता लगाया जा सकता है कि किस ग्लेशियर से हिमस्खलन होने वाला है या कौन सी ग्लेशियर झील टूटने के कगार पर है। इसके साथ ही भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की निगरानी से आपदा के प्रभाव को कम किया जा सकता है।
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जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक उत्तराखंड में 486 ग्लेशियर सूचीबद्ध हैं। इनमें से सिर्फ 6 की ही नियमित निगरानी हो पाती है। हालांकि वाडिया इंस्टिट्यूट का अनुमान है कि उत्तराखंड के क्षेत्र में करीब डेढ़ हजार ग्लेशियर मौजूद हैं। वाडिया इंस्टिट्यूट ही गंगोत्री, पिंडारी, चौड़ाबाड़ी, डोरियानी, दूनागिरी व कफनी ग्लेशियर पर रियल टाइम निगरानी करता है।पर्यावरण पर सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के सदस्य रहे भूविज्ञानी ने कहा कि ग्लेशियर झील फटने की घटना प्राकृतिक थी। लेकिन हमें यह सचेत करती है कि इस क्षेत्र के ग्लेशियर व हिम-झीलों पर
नियमित निगरानी रखने की सख्त जरूरत है। ताकि हमें यह पता चल सके कि उनमें किस तरह का विस्तार हो रहा है। ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि उसका किस इलाके में कितना असर होगा।
महानिदेशक जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने बताया कि केदारनाथ हादसे (जून, 2013) के बाद उत्तराखंड में 2014-16 के बीच हिमालय
क्षेत्र की ग्लेशियर झीलों की सूची बनाई गई थी।इनमें से 13 ग्लेशियर झीलें बेहद संवेदनशील हैं, जिनमें ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड (ग्लोफ) की संभावना सबसे अधिक है। नियम तोड़ने वाली परियोजनाओं में सबसे ज्यादा 72% हिस्सा औद्योगिक और इंफ्रा प्रोजेक्ट का है। उद्योग की 679 परियोजनाओं में नियमों का उल्लंघन किया गया। वहीं इन्फ्रास्ट्रक्चर और सीआरजेड की 626 परियोजनाएं, गैर-कोयला खनन वाली 305 और कोयला खनन से जुड़े 92 प्रोजेक्ट्स में नियमों की अनदेखी की गई। किसी भी प्रोजेक्ट में पर्यावरण मंजूरी के लिए केवल शर्तें तय करना ही
काफी नहीं है। उसकी निगरानी और जब तक प्रोजेक्ट का उद्देश्य पूरा नहीं हो जाता, तब तक मंत्रालय की जिम्मेदारी बनी रहती है।
जहां जलवायु परिवर्तन के कारण वर्तमान में उच्च हिमालयी क्षेत्र में बर्फबारी के स्थान पर वर्षा होने लगी है। वहीं, बढ़ते टेंप्रेचर के कारण ग्लेशियरों के पिघलने की दर में लगातार ग्रोथ देखी जा रही है। इस कारण ग्लेशियर पीछे होते जा रहे हैं। पूर्व में केदारनाथ, धौलीगंगा व सिक्किम में ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं। इनकी पुनरावृत्ति रोकने और घटित होने की स्थिति में प्रभावित होने वाले लोगों को समय से अलार्म जारी करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने एक समिति गठित की है। समिति ने उत्तराखंड में ऐसी १३ ग्लेशियर झीलें चिह्नित की
हैं, जो जोखिम की दृष्टि से संवेदनशील हैं। हालांकि, स्टेट गवर्नमेंट की ओर से इसमें चार और झीलें शामिल की हैं। आपदा प्रबंधन सचिव के मुताबिक ग्लेशियरों के गहन अध्ययन के बाद केंद्र सरकार को इसकी रिपोर्ट भेजी जाएगी। केंद्र के निर्देश के आधार पर ग्लेशियर झील से होने वाली आपदाओं पर प्रभावी नियंत्रण की व्यवस्था की जाएगी। लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं।
( लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं )