12 जून 1975: 48 साल पहले आज के दिन कोर्ट ने इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) पर 6 साल तक कोई भी पद संभालने पर लगाया था प्रतिबंध
देश में आपातकाल की भी शुरू हुई थी उल्टी गिनती, जानिए पूरा मामला
मुख्यधारा डेस्क
आज एक ऐसी ऐतिहासिक तारीख है जो सत्ता, सियासत के साथ कोर्ट के कठोर फैसले के लिए भी याद की जाती है। यह घटना पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और उनके द्वारा आदेश में लगाए गए आपातकाल (इमरजेंसी) से जुड़ी हुई है।
आइए अब आपको 48 साल पहले 12 जून 1975 को लिए चलते हैं। उस दिन भीषण गर्मी थी ऐसे में राजधानी दिल्ली से लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट के आने वाले फैसले को लेकर सियासी पारा गर्माया हुआ था।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेता इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का बेसब्री से इंतजार भी कर रहे थे। इलाहाबाद कोर्ट के बाहर भी सरगर्मी बढ़ी हुई थी।
12 जून साल 1975 दोपहर को आखिरकार हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी पाते हुए छह साल तक कोई भी पद संभालने पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन इंदिरा ने उच्च न्यायालय के फैसले को मानने से इनकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
दरअसल, पूरा मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का है। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपने प्रतिद्वंदी राजनारायण को पराजित कर दिया था, लेकिन राजनारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी।
उन्होंने दलील दी कि इंदिरा ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसे खर्च किए और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का भी इस्तेमाल किया।
यह आरोप लगाया गया था कि उस इलेक्शन एजेंट यशपाल कपूर पर एक सरकारी कर्मचारी था और वह निजी चुनाव संबंधी काम के लिए सरकारी अधिकारियों का इस्तेमाल करता था। राजनारायण के इन आरोपों को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सही माना।
वोटरों को घूस देना और सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल करने जैसे 14 आरोप सिद्ध होने के बाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी को दोषी मानते हुए छह साल के लिए पद से बेदखल कर दिया।
राजनारायण ने 1971 के आम चुनाव में रायबरेली संसदीय क्षेत्र से इंदिरा गांधी के हाथों चुनाव हारने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में मामला दर्ज कराया था। जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। हालांकि, इंदिरा ने उच्च न्यायालय के फैसले को नहीं माना और सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी।
24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को तो बरकरार रखा, लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की इजाजत दे दी।
देश में 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने की घोषणा की थी
देश में आपातकाल 25 जून 1975 को लागू हुआ। यह 21 मार्च 1977 तक यानी 21 महीने तक रहा। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी।
ऑल इंडिया रेडियो पर प्रसारित अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फर्नांडिस, घनश्याम तिवारी और अटल बिहारी वाजपेयी समेत कई नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
जयप्रकाश नारायण (जेपी) इंदिरा गांधी की नीतियों के खिलाफ हो गए थे। पटना में छात्रों ने आंदोलन की शुरुआत की थी। जेपी ने इसका नेतृत्व इस शर्त के साथ स्वीकार किया कि यह शांतिपूर्ण तरीके से होगा।
यह आंदोलन बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी मुहिम बनकर उभरा। फिर यह संपूर्ण क्रांति आंदोलन बन गया। जेपी आंदोलन से ही कई राजनीतिक धुरंधर निकले। इनमें मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार सरीखे नेता शामिल हैं।
संपूर्ण क्रांति के बाद देश में सरकार विरोधी माहौल बना। इंदिरा गांधी का सत्ता में रहना मुश्किल होने लगा। 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा दी। जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया। वह करीब 18 महीने जेल में रहे। इमरजेंसी खत्म होने के बाद जब चुनाव हुए तो जेपी ने उत्तर भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया।
इंदिरा चुनाव हार गई थीं।इस चुनावी जीत के बाद जब जेपी दिल्ली आए तो सबसे पहले इंदिरा गांधी से मिलने का प्लान फिक्स किया। लोगों को यह काफी अजीब लगा। तब किसी ने उनसे पूछा कि आप क्या कर रहे हैं। वो इंदिरा ही थीं जिन्होंने आपको 18 महीने जेल में रखा था।
इस पर जेपी का जवाब था, मैं अपने बड़े भाई जवाहर की बेटी इंदू से मिलने जा रहा हूं। जीत का जश्न मनाने के बजाय जेपी पहली बार हार का स्वाद चखने वाली इंदिरा गांधी से मिलने सफदरजंग रोड की एक नंबर कोठी में पहुंचे थे।
जेपी से मिलने पर इंदिरा के आंसू आ गए थे। उससे भी बड़ी बात यह थी कि अपनी बेटी समान इंदिरा से जीते जेपी भी डबाडब आंसुओं से भरे थे।
बता दें कि इमरजेंसी को स्वतंत्र भारत के इतिहास में इसे सबसे विवादास्पद फैसला माना जाता है। इसे भारतीय लोकतंत्र में काला अध्याय भी कहा जाता है।